मृत्यु है ही नहीं



कल रात्रि कोई महायात्रा पर निकल गया है। उसके द्वार पर आज रुदन है।
ऐसे क्षणों में बचपन की एक स्मृति मन में दुहर जाती है। पहली बार मरघट जाना हुआ था। चिता जल गई थी और लोग छोटे-छोटे झुंड बनाकर बातें कर रहे थे। गांव के एक कवि ने कहा था 'मैं मृत्यु से नहीं डरता हूं। मृत्यु तो मित्र है।'
यह बात तब से अनेक रूपों में अनेक लोगों से सुनी है। जो ऐसा कहते हैं, उनकी आंखों में भी देखा है और पाया है कि भय से ही ऐसी अभय की बातें निकलती हैं।
मृत्यु के अच्छे नाम देने से ही कुछ परिवर्तन नहीं हो जाता है। वस्तुत: डर मृत्यु का नहीं है, डर अपरिचय का है। जो अज्ञात है, वह भय पैदा करता है। मृत्यु से परिचित होना जरूरी है। परिचय अभय में ले आता है। क्यों? क्योंकि परिचय से ज्ञात होता है कि 'जो है', उसकी मृत्यु नहीं है।
जिस व्यक्ति को हमने अपना 'मैं' जाना है, वही टूटता है, उसकी ही मृत्यु है। वह है नहीं, इसलिए टूट जाता है। वह केवल सांयोगिक है : कुछ तत्वों का जोड़ है, जोड़ खुलते ही बिखर जाता है। यही है मृत्यु। और इसलिए व्यक्तित्व के साथ स्वरूप के साथ एक जानना जब तक है, तब तक मृत्यु है।
व्यक्तित्व से गहरे उतरें, स्वरूप पर पहुंचे और अमृत उपलब्ध हो जाता है।
इस यात्रा का- व्यक्तित्व से स्वरूप तक की यात्रा का मार्ग धर्म है।
समाधि में, मृत्यु से परिचय हो जाता है।
सूरज उगते ही जैसे अंधेरा 'न' हो जाता है, वैसे ही समाधि उपलब्ध होते ही मृत्यु 'न' हो जाती है।
मृत्यु न तो शत्रु है, न मित्र है। मृत्यु है ही नहीं। न उससे भय करना है, न उससे अभय होना है। केवल उसे जानना है। उसका अज्ञान भय है, उसका ज्ञान अभय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)