प्रभु को अपने भीतर अनुभव करो


रात्रि आधी होने को है। आकाश आज बहुत दिनों बाद खुला है। सब नहाया-नहाया मालूम होता है और आधा चांद पश्चिम क्षितिज में डूबता जा रहा है।
आज संध्या कारागार में बोला हूं। बहुत कैदी थे। उनसे बातें करते-करते वे कैसे सरल हो जाते हैं! उनकी आंखों में कैसी पवित्रता झलकने लगती है- उसका स्मरण आ रहा है।
मैंने वहां कहा है : प्रभु की दृष्टिं में कोई पापी नहीं है, प्रकाश की दृष्टिं में जैसे अंधेरा नहीं है। इसलिए मैं तुमसे कुछ छोड़ने को नहीं कहता हूं। हीरे पा लो, मिट्टी तो अपने आप छूट जाती है। जो तुमसे छोड़ने को कहते हैं, वे ना समझ हैं। जगत को केवल पाया जाता है। एक नयी सीढ़ी पाते हैं, तो पिछली सीढ़ी अपने आप छूट जाती है। छोड़ना नकारात्मक है। उसमें पीड़ा है, दुख है, दमन है। पाना सत्तात्मक है। उसमें आनंद है। क्रिया में छोड़ना पहले दिखता है, पर वस्तुत: पाना पहले है। पहले पहली सीढ़ी ही छूटती है, पर उसके पूर्व दूसरी सीढ़ी पा ली गयी होती है। उसे पाकर ही- उसे पाया जानकर ही-पहली सीढ़ी छूटती है। इससे प्रभु को पाओ, तो जो पाप जैसा दिखता है, वह अनायास चला जाता है।
सच ही, उस एक के पाने में सब पा लिया जाता है। उस सत्य के आते ही सब अपने से विलीन हो जाते हैं। स्वप्नों को छोड़ना नहीं है, जानना है। जो स्वप्नों को छोड़ने में लगता है, वह उन्हें मान लेता है। हम स्वप्नों को मानते ही नहीं हैं। इससे ही हम कह सके हैं : 'अहं ब्रह्मंास्मि- मैं ही ब्रह्मं हूं।' यह जिसका उद्घोष है, उनके लिए अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है।
मित्र, इसे जानो। प्रकाश को अपने भीतर जगाओ और पुकारो। प्रभु को अपने भीतर अनुभव करो। अपने सत्य के प्रति जागो और फिर पाया जाता है कि अंधेरा तो कहीं है ही नहीं। अंधेरा हमारी मूच्र्छा है और जागरण प्रकाश बन जाता है।
यह उन कैदियों से कहा था और फिर लगा कि यह तो सबसे कहना है, क्योंकि ऐसा कौन है, जो 'कैदी' नहीं है!
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)