ईश्वर अनुभूति है!



ईश्वर को जो किसी विषय या वस्तु की भांति खोजते हैं, वो ना-समझ हैं। वह वस्तु नहीं है। वह तो आलोक, आनंद और आत्मा की चरम अनुभूति का नाम है। वह व्यक्ति भी नहीं है कि उसे कहीं बाहर पाया जा सके। वह तो स्वयं की चेतना का ही आत्यांतिक परिष्कार है।।
एक फकीर से किसी ने पूछा, ''ईश्वर है, तो दिखाई क्यों नहीं देता?'' उस फकीर ने कहा, ''ईश्वर कोई वस्तु नहीं है, वह तो अनुभूति है। उसे देखने का कोई उपाय नहीं, हां, अनुभव करने का अवश्य है।'' किंतु, वह जिज्ञासु संतुष्ट नहीं दिखाई दिया। उसकी आंखों में प्रश्न वैसा का वैसा ही खड़ा था। तब फकीर ने पास में ही पड़ा एक बड़ा पत्थर उठाया और अपने पैर पर पटक लिया। उसके पैर को गहरी चोट पहुंची और उससे रक्त-धार बहने लगी। वह व्यक्ति बोला, ''यह आपने क्या किया? इससे तो बहुत पीड़ा होगी? यह कैसा पागलपन?'' वह फकीर हंसने लगा और बोला, ''पीड़ा दीखती नहीं, फिर भी है। प्रेम दीखता नहीं, फिर भी होता है। ऐसा ही ईश्वर भी है।''
जीवन में जो दिखाई पड़ता है, उसकी ही नहीं- उसकी भी सत्ता है, जो कि दिखाई नहीं पड़ता है। और, दृश्य से अदृश्य की सत्ता बहुत गहरी है, क्योंकि उसे अनुभव करने को स्वयं के प्राणों की गहराई में उतरना आवश्यक होता है। तभी वह ग्रहणशीलता उपलब्ध होती है, जो कि उसे स्पर्श और प्रत्यक्ष कर सके। साधारण आंखें नहीं, उसे जानने को तो अनुभूति की गहरी संवेदनशीलता पानी होती है। तभी उसका आविष्कार होता है। और, तभी ज्ञात होता है कि वह बाहर नहीं है कि उसे देखा जा सकता, वह तो भीतर है, वह तो देखने वाले में ही छिपा है।
ईश्वर को खोजना नहीं, खोदना होता है। स्वयं में ही जो खोदते चले जाते हैं, वे अंतत: उसे अपनी सत्ता के मूल-स्रोत और चरम विकास की भांति अनुभव करते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)