केवल आनंद ही नित्य है

रात्रि पानी बरसा और भीतर आ गया था। खिड़कियां बंद थी और बड़ी घुटन मालूम होने लगी थी। फिर खिड़कियां खोलीं और हवा के नये झोंकों से ताजगी बही और फिर मैं कब सो गया, कुछ पता नहीं।
सुबह एक सज्जन आये थे। उन्हें देखकर रात की घुटन याद आ गयी थी। लगा जैसे उनके मन की सारी खिड़कियां, सारे द्वार बंद हैं। एक भी झरोखा उन्होंने अपने भीतर खुला नहीं छोड़ा है, जिससे बाहर की ताजी हवाएं, ताजी रोशनी भीतर पहुंच सके। और मुझे सब बंद दिखने लगा। मैं उनसे बातें कर रहा था और मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे कि मैं दीवारों से बातें कर रहा हूं। फिर मैंने सोचा, अधिक लोग ऐसे ही बंद हैं और जीवन की ताजगी और सौंदर्य तथा नयेपन से वंचित हैं।
मनुष्य अपने ही हाथों अपने को एक कारागार बना लेता है। इस कैद में घुटन और कुंठा मालूम होती है, पर उसे मूल कारण का- ऊब और घबराहट के मूल स्रोत का पता नहीं चलता
है। समस्त जीवन ऐसे ही बीत जाता है।
जो मुक्त गगन में उड़ने का आह्लाद ले सकता था, वह एक तोते के पिंजरे में बंद सांसें तोड़ देता है।
चित्त की दीवारें तोड़ देने पर खुला आकाश उपलब्ध हो जाता है और खुला आकाश ही जीवन है। यह मुक्ति प्रत्येक पा सकता है और यह मुक्ति प्रत्येक को पा लेनी है।
यह मैं रोज कह रहा हूं, पर शायद मेरी बात सब तक पहुंचती नहीं है। उनकी दीवारें मजबूत हैं। पर दीवार कितनी भी मजबूत क्यों न हों, वे मूलत: कमजोर और दुखद हैं। उनके विरोध में यही आशा कि किरण है कि दुखद हैं। और जो दुखद है, वह ज्यादा देर टिक नहीं सकता है। केवल आनंद ही नित्य हो सकता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)