'मैं' अपरिवर्तनीय है!

सुबह थी, फिर दोपहर आयी, अब सूरज डूबने को है। एक सुंदर सूर्यास्त पश्चिम पर फैल रहा है।
मैं रोज दिन को उगते देखता हूं, दिन को छाते देखता हूं, दिन को डूबते देखता हूं और फिर यह देखता हूं कि न तो मैं उगा, न मैंने दोपहर पायी और न ही मैं अस्त पाता हूं।
कल यात्रा से लौटा तो देख रहा था। सब यात्राओं में ऐसा ही अनुभव होता है। राह बदलती है, पर राही नहीं बदलता है।। यात्रा तो परिवर्तन है, पर यात्री अपरिवर्तित मालूम होता है।
कल कहां था, आज कहां हूं, कभी क्या था, अब क्या है- पर जो मैं कल था, वही आज भी हूं, जो मैं कभी था, वही अब भी हूं।
शरीर वही नहीं है, मन वही नहीं है, पर मैं वही हूं।
दिक् और काल में परिवर्तन है, पर 'मैं' में परिवर्तन नहीं है। सब प्रवाह है, पर 'मैं' प्रवाह का अंग नहीं है। यह उनमें होकर भी उनसे बाहर और उनके अतीत है।
यह नित्य-यात्री, यह चिर नूतन, चिर-परिचित यात्री ही आत्मा है। परिवर्तन के जगत में इस अपरिवर्तित के प्रति जाग जाना ही मुक्ति है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)