सत्य की आकांक्षा



सत्य की साधना सतत् है। श्वास-श्वास जिसकी साधना बन जाती है, वही उसे पाने का अधिकारी होता है।

सत्य की आकांक्षा अन्य आकांक्षाओं के साथ एक आकांक्षा नहीं है। अंश मन से जो उसे चाहता है, वह चाहता ही नहीं। उसे तो पूरे और समग्र मन से ही चाहना होता है। मन जब अपनी अखंडता में उसके लिए प्यासा होता है, तब वह प्यास ही सत्य तक पहुंचने का पथ बन जाती है। स्मरण रहे कि सत्य के लिए प्रज्ज्वलित प्यास ही पथ है। प्राण जब उस अनंत प्यास से भरे होते हैं और हृदय जब अज्ञात को खोजने के लिए ही धड़कता है, तभी प्रार्थना प्रारंभ होती है। श्वासें जब उसके लिए ही आती-जाती हैं, तभी उस मौन अभीप्सा में ही परमात्मा की ओर पहले चरण रखे जाते हैं।

प्रेम- प्यासा प्रेम ही उसे पाने की पात्रता और अधिकारी है

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)