शून्य ही हमारा स्वरूप है

संध्या रुकी सी लगती है। पश्चिमोन्मुख सूरज देर हुए बादलों में छुप गया है, पर रात्रि अभी नहीं हुई है। एकांत है- बाहर भी, भीतर भी। अकेला हूं- कोई बाहर नहीं है, कोई भीतर नहीं है।मैं इस समय कहीं भी नहीं हूं या कि वहां हूं, जहां शून्य है। और जब मन शून्य होता है, तो होता ही नहीं है।यह मन अद्भुत है। प्याज की गांठ की तरह अनुभव होता है। एक दिन प्याज को देख कर यह स्मरण आया था। उसे छीलता था, छीलता गया-परतो पर परतें निकलती गयीं और फिर हाथ कुछ भी न बचा। मोटी खुदरी परतें, फिर मुलायम चिकनी परतें और फिर कुछ भी नहीं। मन भी ऐसा ही है : उघाड़ते चलें-स्थूल परतें, फिर सूक्ष्म परतें, फिर शून्य। विचार, वासनाएं और अहंकार और बस, फिर कुछ भी नहीं है, फिर शून्य है। इस शून्य को उघाड़ लेने को ही मैं ध्यान कहता हूं।यह शून्य ही हमारा स्वरूप है। वह जो अंतत: शेष बचा रहता है, वही स्वरूप है। उसे आत्मा कहें, चाहे अनात्मा। शब्द से कुछ अर्थ नहीं है। विचार, वासना, अहंकार जहां नहीं है, वहीं वह है-'जो है।'ह्यूम ने कहा : जब भी मैं अपने में जाता हूं, कोई 'मैं' मुझे वहां नहीं मिलता है, 'या तो विचार से टकराता हूं, या किसी वासना से या किसी स्मृति से। पर स्वयं से कोई मिलना नहीं होता है।' यह बात ठीक ही है। पर ह्यूम परतों ही से लौट आते हैं। यही उनकी भूल है। वे थोड़ा और गहरे जाते, तो वहां पहुंच जाते जहां कि टकराने को कुछ भी नहीं है। वही है स्वरूप। जहां टकराने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता है, वहां वह है, जो मैं हूं। उस शून्य पर ही सब खड़ा है, पर यदि कोई सतह से ही लौट आये, तो उससे परिचय नहीं हो पाता है। सतह पर संसार है, केंद्र में स्व है। सतह पर सब है, केंद्र पर शून्य है।(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)