सागर को पाना नहीं, पीना है

एक प्रभात गौतम बुद्ध बोलने को थे। पर इसके पहले कि वे अपना मौन तोड़ते, विहार के द्वार पर एक विहंग गीत गाने लगा था। उस शांत, उस निस्तब्ध प्रभात में फिर वे चुप ही रहे। सूर्य अपनी किरणों का जाल बुनता रहा और पक्षी गीत गाता रहा। बुद्ध चुप थे, तो सभी चुप थे। और उस मौन में, उस शून्य में वह गीत दिव्य हो गया था। गीत पूरा हुआ तो शून्य और गहरा हो गया था। बुद्ध फिर उठ गये। उस दिन वे कुछ भी नहीं बोले। उस दिन बस मौन प्रवचन ही हुआ था। उस मौन से उन्होंने जो कहा, वह किसी शब्द से कभी नहीं कहा गया है।
इस जगत में और इस जीवन में जो भी है, सब दिव्य है, सब भागवत है। सब में विराट की छाप और छाया है। वही सब में प्रच्छन्न है। वही सब में प्रकट है। उसका ही रूप है, उसकी ही ध्वनि है। पर हम चुप नहीं हैं, इसलिए उसे नहीं सुन पाते हैं। हमारी आंखें खुली नहीं हैं, इसलिए उसका दर्शन नहीं हो पाता है।
हम अतिशय हैं, इसलिए 'वह' नहीं होता है।
हम खाली हों, तो वह अभी और यहीं है।
सत्य है, वह स्व-मूच्र्छा में है, जैसे प्रकाश हो पर आंख बंद हो और फिर स्व को नहीं जगाते हैं, सत्य की खोज करते हैं। आंख तो खोलते नहीं हैं और प्रकाश का अनुसंधान करते हैं। इस भूल में कभी मत पड़ना। सब खोज छोड़ो और चुप हो जाओ। चित्त को चुप कर लो और सुनों। आंखें खुली कर लो और देखो। जैसे पानी की मछली मुझ से पूछे कि उसे सागर खोजना है, तो उससे मैं क्या कहूंगा? मैं उससे कहूंगा : खोज छोड़ों और देखो कि तुम सागर में ही हो। प्रत्येक सागर में है। सागर को पाना नहीं, पीना शुरू करना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)