दुख की ईंटें हटाकर सुख की ईंटें रखिये

आज तक का समाज दुख से भरा हुआ समाज है, उसकी ईंट ही दुख की है, उसकी बुनियाद ही दुख की है। और जब दुखी समाज होगा तो समाज में हिंसा होगी, क्योंकि दुखी आदमी हिंसा करेगा। और जब समाज दुखी होगा और जीवन दुखी होगा तो आदमी क्रोधी होगा, दुखी आदमी क्रोध करेगा। और जब जिंदगी उदास होगी, दुखी होगी, तो युद्ध होंगे, संघर्ष होंगे, घृणा होगी। दुख सब चीज का मूल उदगम है।यदि नये समाज को जन्म देना हो तो दुख की ईंटों को हटा कर सुख की ईंटें रखनी जरूरी हैं। और वे ईंटें तभी रखी जा सकती हैं जब हम जीवन के सब सुखों को सहज स्वीकार कर लें और सब सुखों को सहज निमंत्रण दे सकें।
निश्चित ही, बूंद-बूंद सुख आते हैं; इकट्ठा सुख नहीं बरसता है। इकट्ठा पानी भी नहीं बरसता है; बूंद-बूंद सब बरस रहा है। उस बूंद-बूंद को स्वीकार कर लेना पड़ेगा। क्षण ही हमारे हाथ में आता है। एक क्षण से ज्यादा किसी के हाथ में नहीं है। उस क्षण में ही जीना है, उस क्षण में ही सुख को पूरा का पूरा पी लेना है। उस क्षण को खाली रिक्त जो छोड़ देगा और प्रतीक्षा करेगा कि शाश्वत को पाएंगे हम-क्षण भी छूट जाएगा, शाश्वत भी नहीं मिलेगा। क्षण को पीने की कला, सुख-सृजन की कला है।

और हम सब क्षण-विरोधी हैं।
आदमी सुखी हो सकता है अगर वह प्रतिपल, जो उसे मिल रहा है, उसे पूरे अनुग्रह से और पूरे आनंद से आलिंगन कर ले। सांझ फूल मुरझाएगा, अभी तो फूल जिंदा है! सांझ की चिंता अभी से क्या? जब तक फूल जिंदा है तब तक उसके सौंदर्य को जीया जा सकता है। और जिस व्यक्ति ने जिंदा फूल के सौंदर्य को जी लिया, वह जब फूल मुरझाता है और गिरता है, तब वह दिन भर के सौंदर्य से इतना भर जाता है कि फूल की संध्या और गिरती हुई पंखुड़ियां भी फिर उसे सुंदर मालूम पड़ती हैं। आंख में सौंदर्य भर जाए तो पंखुड़ियों का गिरना पंखुड़ियों के खिलने से कम सुंदर नहीं है। और आंख में सौंदर्य भर जाए तो बचपन से ज्यादा सौंदर्य बुढ़ापे का है। लेकिन जीवन भर दुख से गुजरता हो तो सांझ भी कुरूप हो जाती है। सांझ कुरूप हो ही जाएगी, वह जिंदगी भर का जोड़ है।
मैं समझ पाता हूं कि अगर एक नया मनुष्य पैदा करना है-जो कि नये समाज के लिए जरूरी है-तो हमें क्षण में सुख लेने की क्षमता और क्षण में सुख लेने का आदर और अनुग्रह और ग्रॅटीट्यूड पैदा करना पड़ेगा। हमें यह कहना बंद कर देना पड़ेगा कि सांझ फूल मुरझा जाएगा। सांझ तो सब मुरझा जाएंगे। सांझ तो आएगी, लेकिन सांझ का अपना सौंदर्य है, सुबह का अपना सौंदर्य है और सुबह के सौंदर्य को सांझ के सौंदर्य से तुलना करने की भी कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी का अपना सौंदर्य है, मृत्यु का अपना सौंदर्य है। दीये के जलने का अपना सौंदर्य है, दीये के बुझ जाने का अपना सौंदर्य है। चांद की रात ही सुंदर नहीं होती, अंधेरी अमावस की रात का भी अपना सौंदर्य है। और जो देखने में समर्थ हो जाता है वह सब चीजों से सौंदर्य और सब चीजों से सुख पाना शुरू कर देता है।
लेकिन यह क्यों भूल हो गई कि आदमी इतना उदास और दुखी क्यों हमने निर्मित किया? 
यह भूल इसलिए हो गई कि हम शरीर के शत्रु हैं। सारी मनुष्यता अब तक शरीर की दुश्मन रही है। इंद्रियों के दुश्मन हैं। और इंद्रियां द्वार हैं जीवन के। इंद्रियों की दुश्मनी की जरूरत नहीं है। इंद्रियों की गुलामी न हो, इतना ही काफी है। इंद्रियों की मालकियत बहुत है। लेकिन इंद्रियों की मालकियत के लिए इंद्रियों से दुश्मनी करने की कोई जरूरत नहीं है।
जारी:::सौजन्‍य से : ओशो न्‍यूज  लेटर