विवेक, बुद्धि और वृत्ति


मैं तीन छोटे-छोटे शब्दों पर मनुष्य की समग्र चेतना को घूमते देखता हूं। वे तीन शब्द कौन से हैं?
वे शब्द हैं- विवेक, बुद्धि और वृत्ति।
विवेक से श्रेष्ठतम चलते हैं। बुद्धि से वे जो मध्य में हैं। और वृत्ति चेतना की निम्नतम दशा है।
वृत्ति पाशविक है। बुद्धि मानवीय है। विवेक दिव्य है।
वृत्ति सहज और आंधी है। वह निद्रा है। वह अचेतन का जगत है। वहां न शुभ है, न अशुभ है। कोई भेद वहां नहीं है। इसमें कोई अंतर्सघर्ष भी नहीं है। वह आंधी वासनाओं का सहज प्रवाह है।
बुद्धि न निद्रा है, न जागरण है। वह अर्ध-मूच्र्छा है। वह वृत्ति और विवेक के बीच संक्रमण है। वह दहलीज है। उसमें एक अंश चैतन्य हो गया है। लेकिन शेष अचेतन है। इससे भेद बोध है। शुभ-अशुभ का जन्म है। वासना भी है, विचार भी है।
विवेक पूर्ण जागृति है। वह शुद्ध चैतन्य है। वह केवल प्रकाश है। वहां भी कोई संघर्ष नहीं है। वह भी सहज है। वह शुभ का, सत का, सौंदर्य का सहज प्रवाह है।
वृत्ति भी सहज, विवेक भी सहज। वृत्ति आंधी सहजता, विवेक सजग सहजता। बुद्धि भर असहज है। उसमें पीछे की ओर वृत्ति है, आगे की और विवेक है। उसके शिखर की लौ विवेक की ओर और आधार की जड़े वृत्ति में हैं। सतह कुछ, तलहटी कुछ। यही खिंचाव है। पशु में डूबने का आकर्षण- प्रभु में उठने की चुनौती- उसमें दोनों एक साथ हैं!
इस चुनौती से डरकर जो पशु में डूबने का प्रयास करते हैं, वे भ्रांति में हैं। जो अंश चैतन्य हो गया है, वह अब अचेतन नहीं हो सकता है। जगत-व्यवस्था में पीछे लौटने का कोई मार्ग नहीं है।
इस चुनौती को मानकर जो सतह पर शुभ-अशुभ का चुनाव करते हैं, वे भी भ्रांति में हैं। उस तरह का चुनाव व आचरण-परिवर्तन सहज नहीं हो सकता है। वह केवल चेष्टिंत अभिनय है। और जो चेष्टिंत है, वह शुभ नहीं है। प्रश्न सतह पर नहीं है, तलहटी में है। वह जो सोया है, उसे जगाना है। अशुभ नहीं, मूच्र्छा छोड़नी है।
अंधेरे में दिया जलाना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)