मिट्टी के दीयों पर विश्वास छोड़ो और चिन्मय ज्योति खोजा


एक मिट्टी का दिया जल रहा था, वह भी बुझ गया है। हवा का एक झोंका आया और उसे ले गया। मिट्टी के दीये का विश्वास भी क्या? और उन ज्योतियों का साथ भी कितना, जिन्हें हवाएं बुझा सकती हैं?
अंधेरे के सागर में डूब गये हैं। एक युवक बैठे हैं। अंधेरे से उन्हें बहुत भय लग रहा है। वे कह रहे हैं कि अंधेरे में उनके प्राण कांप जाते हैं और सांसे लेना भी मुश्किल हो जाता है।
मैं उनसे कह रहा हूं कि जगत में अंधेरा ही अंधेरा है। और ऐसी कोई भी ज्योति जगत के पास नहीं है कि अंधेरे को नष्ट कर दे। जो भी ज्योतियां हैं, वे देर-अबेर स्वयं ही अंधेरे में डूब जाती हैं। वे आती हैं और चली जाती हैं, पर अंधेरा वहीं का वहीं बना रहता है। जगत का अंधकार तो शाश्वत है और उसकी ज्योतियों पर जो विश्वास करते हैं, वे नासमझ हैं; क्योंकि वे ज्योतियां वास्तविक नहीं हैं, और सब अंतत: अंधेरे से पराजित हो जाती हैं।
पर एक और लोक भी है। जगत से भिन्न एक और जगत भी है। जगत अंधकार है, तो वह लोक प्रकाश ही प्रकाश है। जगत में प्रकाश क्षणिक और सामयिक है और अंधकार शाश्वत है, तो उस लोक में अंधकार क्षणिक और सामयिक है और आलोक शाश्वत है।
एक और भी आश्चर्य है कि अंधकार का लोक हमसे दूर और प्रकाश का लोक बहुत निकट है।
अंधकार बाहर और प्रकाश भीतर है।
और स्मरण रहे कि जब तक अंतस के आलोक में जागरण नहीं होता है, तब तक कोई ज्योति अभय नहीं दे सकती है। मिट्टी के मृण्मय दीयों पर विश्वास छोड़ो और चिन्मय ज्योति को खोजो। उससे ही अभय, आनंद और वह आलोक मिलता है, जिसे कि कोई छीन नहीं सकता है। वही अपना है, जो कि छीना न जा सके और वही अपना है, जो कि बाहर नहीं है।
आंख के बाहर अंधकार है, पर आंख के भीतर तो देखो कि वहां क्या है?
यदि वहा भी अंधकार होता, तो अंधकार का बोध नहीं हो सकता था। जो अंधकार को जानता है, वहां अंधकार नहीं हो सकता।
जो आलोक की आकांक्षा करता है, वह कैसे अंधकार हो सकता है? वह आलोक है, इसलिए उसे आलोक आकांक्षा है। वह आलोक है, इसलिए उसे आलोक की अभिप्सा है। आलोक ही केवल आलोक के लिए प्यासा हो सकता है। जहां से प्यास आती है, वहीं खोजो- उसी बिंदु को लक्ष्य बनाओ तो पाओगे कि जिसकी प्यास है, वह वहीं छिपा हुआ है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)