मन को निस्तरंग करो!


काश! हम शांत हो सकें और भीतर गूंजते शब्दों और ध्वनियों को शून्य कर सकें, तो जीवन में जो सर्वाधिक आधारभूत है, उसके दर्शन हो सकते हैं। सत्य के दर्शन के लिए शांति के चक्षु चाहिए। उन चक्षुओं को पाये बिना जो सत्य को खोजता है, वह व्यर्थ ही खोजता है।
साधु रिझांई एक दिन प्रवचन दे रहे थे। उन्होंने कहा, ''प्रत्येक भीतर, प्रत्येक के शरीर में वह मनुष्य छिपा है, जिसका कोई विशेषण नहीं है- न पद है, न नाम है। वह उपाधि शून्य मनुष्य ही शरीर की खिड़कियों में से बाहर आता है। जिन्होंने यह बात आज तक नहीं देखी है, वे देखें, देखें। मित्रों! देखो! देखो!'' यह आवाहन सुनकर एक भिक्षु बाहर आया और बोला,''यह सत्य पुरुष कौन है? यह उपाधि शून्य सत्ता कौन है?'' रिंझाई नीचे उतरा और भिक्षुओं की भीड़ को पार कर उस भिक्षु के पास पहुंचा। सब चकित थे कि उत्तर न देकर, वह यह क्या कर रहा है? उसने जाकर जोर-से उस भिक्षु को पकड़ कर कहा, ''फिर से बोलो।'' भिक्षु घबड़ा गया और कुछ बोल नहीं सका। रिंझाई ने कहा,''भीतर देखो। वहां जो है- मौन और शांत- वही वह सत्य पुरुष है। वही हो तुम। उसे ही पहचानो। जो उसे पहचान लेता है, उसके लिए सत्य के समस्त द्वार खुल जाते हैं।''
पूर्णिमा की रात्रि में किसी झील को देखो। यदि झील निस्तरंग हो तो चंद्रमा का प्रतिबिंब बनता है। ऐसा ही मन है। उसमें तरंगें न हों, तो सत्य प्रतिफलित होता है। जिसके मन तरंगों से ढका है, वह अपने हाथों सत्य से स्वयं को दूर किये है। सत्य तो सदा निकट है, लेकिन अपनी अशांति के कारण हम सदा उसके निकट नहीं होते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)