कागज के फूल

एक मित्र कागज के कुछ फूल भेंट कर गये हैं। इन फूलों को देखता हूं- जो दिख रहा है, उसके पार उनमें कुछ भी नहीं है। उनमें सब कुछ दृश्य है, अदृश्य कुछ भी नहीं। और बाहर क्यारियों में गुलाब के फूल खिले हैं, उनमें जो दिख रहा है, उसके पार कुछ अनदिखा भी है और वह अदृश्य ही उनका प्राण है।
आधुनिक सभ्यता कागज के फूलों की सभ्यता है। दिखने पर, दृश्य पर वह समाप्त है और इसलिये निष्प्राण भी है। अदृश्य से, अज्ञात से नाता टूट गया है। और इसलिए मनुष्य जितना आज जड़ों से अलग हो गया है, उतना इसके पूर्व कभी भी नहीं हुआ था।
वृक्ष, फूल, फल, पत्ते। सब दृश्य हैं, पर जड़े भूमि में होती हैं- जड़ें अज्ञात और अदृश्य होती हैं। और जो जड़े देखी जा सकती हैं, सब जड़ें उन पर ही समाप्त नहीं हो जाती हैं- और जड़ें भी हैं, जो देखी नहीं जा सकतीं।
प्राण यह जो महाप्राण से संयुक्त है, वह केंद्र अज्ञात ही नहीं, अज्ञेय भी है। इस अज्ञेय से संयुक्त मनुष्य वास्तविक जड़ों को पा जाता है। इस अज्ञेय को विचारों से नहीं पाया जा सकता है। विचार की सीमा ज्ञेय पर समाप्त है।
विचार स्वयं ज्ञेय और दृश्य हैं। और जो दृश्य है, वह अदृश्य को जानने का मध्यम नहीं बन सकता है। सत्ता विचार के पार है। अस्तित्व विचार के अतीत है। अस्तित्व को इसलिये जाना नहीं जाता है, हुआ जाता है। उससे पृथक, दर्शक होकर परिचित होना नहीं होता, वरन उसमें एक होकर होना होता है।
विचार छोड़कर, शांत, शून्य होकर, वह अद्वैत आता है, जो सत्य में, सत्ता में खड़ा कर देता है। कागज के फूल देखने हों, तो दूर से देखे जा सकते हैं। उनका द्रष्टा हुआ जा सकता है। पर, असली फूल देखने हों, तो फूल बन जाना जरूरी है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)