पवित्रता की अनुभूति




प्रकाश को अंधकार का पता नहीं। प्रकाश तो सिर्फ प्रकाश को ही जानता है। जिनके हृदय प्रकाश और पवित्रता से आपूरित हो जाते हैं, उन्हें फिर कोई हृदय अंधकार पूर्ण और अपवित्र नहीं दिखाई पड़ता। जब तक हमें अपवित्रता दिखाई पड़े, जानना चाहिए कि उसके कुछ न कुछ अवशेष जरूर हमारे भीतर हैं। वह स्वयं के अपवित्र होने की सूचना ज्यादा और कुछ नहीं है।
सुबह की प्रार्थना के स्वर मंदिर में गूंज रहे थे। आचार्य रामानुज भी प्रभु की प्रार्थना में तल्लीन से दीखते मंदिर की परिक्रमा करते थे। और तभी अकस्मात एक चांडाल स्त्री उनके सम्मुख आ गई। उसे देख उनके पैर ठिठक गये, प्रार्थना की तथाकथित तल्लीनता खंडित हो गई और मुंह से अत्यंत कलुष शब्द फूट पड़े : ''चांडालिन मार्ग से हट, मेरे मार्ग को अपवित्र न कर।'' प्रार्थना करती उनकी आंखों में क्रोध आ गया और प्रभु की स्तुति में लगे होठों पर विष। किंतु वह चांडाल स्त्री हटी नहीं, अपितु हाथ जोड़कर पूछने लगी, ''स्वामी, मैं किस ओर सरकूं? प्रभु की पवित्रता तो चारों ओर ही है! मैं अपनी अपवित्रता किस ओर ले जाऊं?'' मानों कोई परदा रामानुज की आंखों के सामने से हट गया हो, ऐसे उन्होंने उस स्त्री की ओर देखा। उसके वे थोड़े से शब्द उनकी सारी कठोरता बहा ले गये। श्रद्धावनत उन्होंने कहा, ''मां, क्षमा करो। भीतर का मैल ही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। जो भीतर की पवित्रता से आंखों को जांच लेता है, उसे चहुं ओर पावनता ही दिखाई देती है।''
प्रभु को देखने का कोई और मार्ग मैं नहीं जानता हूं। एक ही मार्ग है और वह है - सब ओर पवित्रता का अनुभव होना। जो सब में पावन को देखने लगता है, वही और केवल वही प्रभु के की कुंजी उपलब्ध कर पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)