धर्म, सम्राट बनाने की कला है-4



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रवींद्रनाथ ने अपने जीवन में एक घटना का उल्लेख किया है। रवींद्रनाथ ने लिखा है: पूर्णिमा की रात थी और मैं झील पर नाव में विहार करता था। छोटा सा बजरा था नाव का, उस बजरे के भीतर एक छोटा सा दीया जला कर मैं किताब पढ़ता था, सौंदर्य शास्त्र पर कोई किताब पढ़ता था। पढ़ता था उस किताब में कि सौंदर्य क्या है? 

बाहर पूर्णिमा का चांद था, उसकी चारों तरफ चांदनी बरसती थी, झील की लहर-लहर चांदी हो गई थी। लेकिन रवींद्रनाथ अपने झोपड़े में, झील के बजरे में बंद, नाव के अंदर, एक छोटा सा दीया जला कर, उसके गंदे धुएं में बैठ कर सौंदर्य शास्त्र की किताब पढ़ रहे थे। आधी रात गए थक गईं आंखें, किताब बंद की, फूंक मार कर दीया बुझाया, लेटने को हुए--तो हैरान हो गए, चकित हो गए, उठ कर नाचने लगे! जैसे ही दीया बुझाया, द्वार से, खिड़की से, रंध्र-रंध्र से बजरे की, चांदनी भीतर घुस आई, नाचने लगी चांदनी चारों तरफ। 

रवींद्रनाथ ने कहा, अरे, मैं पागल! मैं एक टिमटिमे दीये को जला कर, गंदे दीये को जला कर, धुएं में बैठा हुआ सौंदर्य के शास्त्र को पढ़ता था! और सौंदर्य द्वार पर प्रतीक्षा करता था कि बुझाओ तुम दीया अपना और मैं भीतर आ जाऊं! और द्वार पर रुका था सौंदर्य, कि मैं सौंदर्य शास्त्र में उलझा था तो वह बाहर प्रतीक्षा करता था। 

बंद कर दी किताब, निकल आए बजरे के बाहर। आकाश में चांद था, चारों तरफ मौन झील थी। उसकी बरसती चांदनी में वे नाचने लगे और कहने लगे, यह रहा सौंदर्य! यह रहा सौंदर्य! मैं कैसा पागल था कि किताब खोल कर सौंदर्य खोजता था! वहां अक्षर थे काले, वहां कागज थे, आदमी के बनाए हुए शब्द थे। सौंदर्य वहां कहां था? 

लेकिन हम सब किताबों में खोजते हैं उसे जो चारों तरफ मौजूद है। हम किताबों में खोजते हैं उसे जो हर घड़ी सब तरफ मौजूद है। और जब किताबों में नहीं पाते तो फिर कहते हैं, नहीं होगा ईश्वर। क्योंकि मैंने पूरी किताबें पढ़ डालीं, मिला नहीं मुझे अब तक। पागल हैं हम। जहां हम खोजते हैं वह आदमी की बनाई हुई किताबें, वहां ईश्वर कहां होगा? ईश्वर को देखना है तो वहां खोजो जहां आदमी का बनाया हुआ कुछ भी नहीं है। जहां आदमी के पहले जो था वह है। जिससे आदमी पैदा हुआ वह है। जिसमें आदमी खो जाएगा वह है। वहां खोजो। 

ईश्वर का मतलब है: वह जिससे सब निकलता, जिसमें सब होता, जिसमें सब लीन हो जाता, लेकिन जो सदा रहता है। ईश्वर का मतलब इतना है कि जिससे सब निकलता, जिसमें सब रहता, जिसके बिना कुछ भी नहीं रह सकता, जिसमें सब अंततः लीन हो जाता। लेकिन जो न मिटता है, न बनता है, न खोता है, न जाता है, न आता है--जो है। जो है सदा, उसका नाम ईश्वर है।

 जारी-----  

(सौजन्‍य से – ओशो न्‍यूज लेटर)

धर्म, सम्राट बनाने की कला है-3







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एक तो इसलिए आदमी धार्मिक नहीं हो पाता कि वह बाहर की चीजों को इकट्ठा करने में सारी शक्ति, सारा समय, सारा जीवन गंवा देता है। 
और इससे भी ज्यादा खतरनाक बात दूसरी है। यह बाहर की दौड़ का आदमी तो कभी न कभी जाग सकता है और इसे खयाल आ सकता है कि मैं क्या कर रहा हूं? ये मैं कौन से सपने बसा रहा हूं? ये मैं कैसी व्यर्थ की आशाओं में जीवन गंवा रहा हूं? ये मैं कैसे रेत के मकान बना रहा हूं जो कल गिर जाएंगे? यह मैं कैसी कागज की नाव बहा रहा हूं जो अभी-अभी डूब जाएगी? एक न एक दिन बाहर की जिंदगी में दौड़ने वाला आदमी खड़ा हो जाता है, सोचता है, विचारता है। लेकिन एक और खतरा है। जो लोग बाहर की जिंदगी से ऊब जाते हैं और जिन्हें यह भी समझ में आ जाता है कि व्यर्थ है बाहर की दौड़, वे फिर भीतर की खोज में निकलते हैं। और भीतर की खोज में दो दिशाएं हैं। 

बाहर की खोज अधर्म है। भीतर की खोज में दो दिशाएं हैं: एक धर्म की दिशा है, एक झूठे धर्म की दिशा है। और भीतर जो झूठे धर्म की दिशा पर चला जाता है वह फिर फिजूल हो जाता है, फिर वह भी कहीं नहीं पहुंचता। 

बाहर से जाग जाना बहुत आसान है, लेकिन झूठी, भीतर की झूठी धार्मिक दिशा से जागना बहुत कठिन है। जब आदमी बाहर से थक जाता है और समझ लेता है कि कुछ भी पाने योग्य नहीं है...और कौन नहीं समझ लेता है! जिसके पास थोड़ी भी बुद्धि है उसे दिखाई पड़ने लगता है कि कोई प्रयोजन नहीं है बाहर। कुछ भी पा लिया तो अर्थ नहीं है, क्योंकि मृत्यु सब छीन लेती है। तब आदमी भीतर मुड़ता है। लेकिन भीतर एक झूठी दिशा है, एक झूठे धर्म की दिशा है। और उस झूठे धर्म की दिशा में फिर आदमी भटक जाता है और व्यर्थ हो जाता है। फिर आनंद को उपलब्ध नहीं हो पाता। 

वह झूठे धर्म की दिशा क्या है? 
धर्म के नाम पर कुछ ऐसी बातें धर्म बना दी गई हैं जो धर्म नहीं हैं। जैसे एक आदमी रोज सुबह उठता है और मंदिर हो आता है और सोचता है कि मंदिर हो आने से धर्म हो गया। ऐसा आदमी भ्रांति में है। मंदिर में हो आने से कभी भी धर्म नहीं हुआ है। और कोई भी आदमी का बनाया हुआ मंदिर भगवान का मंदिर नहीं है। आदमी कैसे भगवान का मंदिर बना सकता है? आदमी भगवान का मंदिर बना लेगा तो आदमी भगवान से भी बड़ा हो जाएगा। भगवान आदमी को बनाता होगा, आदमी भगवान को नहीं बना सकता। 
लेकिन झूठे धर्म ने यह तरकीब समझाई है कि आदमी भगवान को बना सकता है। एक पत्थर की मूर्ति आदमी बना लेता है और कहता है, भगवान हो गया। और फिर उसकी पूजा शुरू कर देता है। पागलपन की हद्द है! अपने ही हाथ से बनाई गई मूर्तियां भगवान की कैसे हो सकती हैं? 

भगवान की कोई मूर्ति नहीं है और भगवान का कोई मंदिर नहीं है। और या फिर सभी मूर्तियां भगवान की हैं और सब कुछ भगवान का मंदिर है। यह सारी पृथ्वी, यह सारा आकाश, ये सारे चांदत्तारे भगवान की मूर्ति हैं। यह समुद्र, ये हवाएं, ये लोग, ये आंखें, ये धड़कते हुए दिल, यह रेत, ये सब भगवान की मूर्ति हैं। या तो यह सच है और या फिर यह सच है कि भगवान की कोई भी मूर्ति नहीं। अमूर्ति है, भगवान अरूप है। 

लेकिन इन दोनों के बीच में एक तीसरी तरकीब निकाली गई--कि हमने मंदिर बना लिए हैं, मूर्तियां पत्थर की बना ली हैं, मंदिर हैं, मस्जिद हैं, गिरजे हैं। और न मालूम कितने प्रकार के रूप हैं आदमी के बनाए हुए मंदिरों के, आदमी के बनाए हुए भगवानों के। और इन भगवानों और मंदिरों में हम भटक जाते हैं और खो जाते हैं। 

आदमी न मंदिर बना सकता है, न भगवान बना सकता है। आदमी मंदिर में प्रवेश कर सकता है, आदमी भगवान में प्रवेश कर सकता है, लेकिन बना नहीं सकता। आदमी का बनाया हुआ कुछ भी धर्म नहीं हो सकता। धर्म वह है जो हमसे पहले है और हमसे बाद रहेगा। धर्म वह है जिससे हम बनते हैं और जिसमें हम लीन होते हैं। हम धर्म को नहीं बना सकते।

लेकिन हमने धर्म खड़े कर लिए हैं--हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध। ये हमारे बनाए हुए धर्म हैं। जो हम बनाते हैं वह नकली होगा, वह कभी असली धर्म नहीं हो सकता। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। जो भी आदमी बनाएगा धर्म, वह नकली होगा, वह झूठा होगा। वह असली नहीं हो सकता। असली धर्म वह है जो हमें धारण किए हुए है। असली धर्म वह नहीं है जो हम बनाते हैं। इसलिए धर्मशास्त्र जैसा कोई शास्त्र दुनिया में नहीं है। शास्त्र हैं, धर्मशास्त्र कोई भी नहीं है। धर्मशास्त्र कैसे हो सकता है! आदमी की बनाई हुई किताब धर्म की किताब कैसे हो सकती है! 

हां, एक किताब है जो चारों तरफ खुली हुई है। सूरज उस किताब के पन्नों में है, आकाश उस किताब के पन्नों में है, हवाएं उस किताब के पन्नों में हैं, यह सारी की सारी प्रकृति और यह सारा जीवन उस किताब के अध्याय हैं। 

लेकिन उस किताब को कोई खोलने नहीं जाता। लोग रामायण को खोल लेते हैं, कुरान को खोल लेते हैं, बाइबिल को खोल लेते हैं और सोचते हैं: धर्मशास्त्र पढ़ रहे हैं। 

धर्मशास्त्र एक ही है--यह पूरा जीवन। परमात्मा का जो बनाया हुआ है वह धर्मशास्त्र है। आदमी की बनाई हुई किताबें धोखा हैं। आदमी की बनाई हुई किताब सुंदर हो सकती है, काव्य हो सकती है, अदभुत हो सकती है, लेकिन धर्मशास्त्र नहीं हो सकती।
जारी--------
(सौजन्‍य से – ओशो न्‍यूज लेटर)

धर्म, सम्राट बनाने की कला है-2


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      अधिक लोग इसलिए जीवन को व्यर्थ कर लेते हैं कि उन्हें पता ही नहीं कि जीवन में क्या बचाने योग्य है, क्या छोड़ देने योग्य है। हम सब वस्तुएं और सामान बचाने में लग जाते हैं और खुद का व्यक्तित्व, खुद की आत्मा खो देते हैं। एक तो कारण यह है कि मनुष्य धार्मिक नहीं हो पाता। और जो मनुष्य धार्मिक नहीं हो पाता है वह मनुष्य कभी आनंदित भी नहीं हो सकता है। धार्मिक होना और आनंदित होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। अधार्मिक होना और दुखी होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। इसलिए कोई कभी कल्पना न करे कि अधार्मिक होते हुए भी कोई व्यक्ति कभी आनंदित हो सकता है। यह असंभव है। जैसे शरीर की बीमारियां हैं, और शरीर से बीमार आदमी कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर तो स्वस्थ चाहिए। वैसे ही आत्मा की बीमारियां भी हैं। अधर्म आत्मा की बीमारी का नाम है। जो आत्मा की बीमारी में पड़ा हुआ है वह कैसे आनंदित हो सकता है? शरीर दुखी हो तो भी एक आदमी भीतर आनंदित हो सकता है। लेकिन भीतर की आत्मा ही दुखी हो तब तो आनंदित होने की कोई उम्मीद नहीं है, कोई आशा नहीं है। लेकिन जिस आत्मा को आनंदित करना है उस आत्मा के लिए हम कुछ भी नहीं करते, शरीर के लिए सब कुछ करते हैं। व्यर्थ की चीजों के लिए बहुत कुछ करते हैं। जैसे छोटे बच्चे समुद्र के किनारे पत्थर बीन कर इकट्ठा कर लेते हैं और सोचते हैं कि कोई बहुत बड़ा काम कर लिया। जैसे कि छोटे बच्चे समुद्र के किनारे बैठ कर रेत के मकान बना लेते हैं और लड़ते हैं, झगड़ते हैं--कि मेरा मकान तोड़ दिया! मेरे मकान पर लात मार दी! लेकिन उन्हें पता नहीं कि थोड़ी देर में मां की आवाज आएगी घर से और वह सब मकान वहीं किनारे पर, रेत के किनारे पर छोड़ कर चले जाना पड़ेगा; न कोई मकान किसी का है, न किसी के मिटने से कुछ मिटता है, न बनने से कुछ बनता है। 
    ऐसे ही हम जिंदगी में जो मकान बनाते हैं--मिट्टी के, बाहर के, वस्तुओं के, पदार्थ के--एक दिन पुकार आती है ऊपर से और रेत के किनारे पर सब छोड़ कर चले जाना पड़ता है। फिर उनका कोई हिसाब नहीं रखा जा सकता। फिर उन्हें साथ भी नहीं ले जाया जा सकता। जाते वक्त, जमीन से विदा होते वक्त हाथ खाली होते हैं। लेकिन जिन चीजों से भरने में हमने जीवन गंवा दिया, उनमें से एक भी हमारे साथ नहीं होती। और ध्यान रहे, वही है संपत्ति जो मृत्यु के क्षण में भी साथ रहे। वह संपत्ति नहीं है जो मृत्यु के क्षण में छूट जाए। 
       सिकंदर मरा, तो जिस राजधानी में उसकी अरथी निकली, हजारों-लाखों लोग उस अरथी को देखने इकट्ठे हुए थे। लेकिन हर आदमी एक ही सवाल पूछने लगा। सिकंदर के दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे। ऐसा तो कभी भी नहीं हुआ था। किसी के हाथ अरथी के बाहर लटके नहीं देखे गए थे। लोग पूछने लगे, कोई भूल हो गई है? लेकिन किसी भिखमंगे की अरथी होती तो भूल भी हो सकती थी। सिकंदर की अरथी थी। बड़े-बड़े सम्राट कंधा दे रहे थे। ये हाथ क्यों लटके हुए हैं बाहर? फिर धीरे-धीरे लोगों को पता चला, सिकंदर ने खुद ही चाहा था कि मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने पूछा था कि यह क्या पागलपन है? हाथ बाहर कभी किसी के लटके देखे नहीं गए। किसलिए चाहते हो कि हाथ बाहर लटके रहें? तो सिकंदर ने कहा था, मैं चाहता हूं कि लोग देख लें कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं, मेरे हाथ भी भरे हुए नहीं हैं। 
जिंदगी भर दौड़ कर हाथ भरते हैं और फिर पाते हैं कि हाथ खाली रह गए हैं। जिंदगी भर ये हाथ खाली थे। सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है। कुछ मिलता नहीं, सिर्फ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। करीब-करीब ऐसे ही जैसे दूर दिखाई पड़ता है कि पृथ्वी जमीन को छू रही है, हम थोड़े आगे बढ़ेंगे तो वह जगह आ जाएगी जहां जमीन आकाश को छूता है। लेकिन हम जितने आगे बढ़ते हैं उतना ही वह घेरा भी आगे बढ़ता चला जाता है। हम जिंदगी भर चलते रहें, पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लें, वह जगह नहीं आएगी जहां जमीन आकाश को छूती है। वह सिर्फ छूती हुई दिखाई पड़ती है, वह कहीं छूती नहीं। ठीक ऐसे ही आदमी जिंदगी भर सोचता है: यह मिल जाए, यह मिल जाए, यह मिल जाए। और सब मिल जाएगा एक दिन, ऐसा लगता है आगे, आगे कहीं मिलने की जगह आ जाएगी। दौड़ता है, दौड़ता है, दौड़ता है। आखिर गिर जाता है, मिलने का वक्त नहीं आता, हाथ खाली ही रह जाते हैं। 
जारी-------
(सौजन्‍य से : ओशो न्‍यूज  लेटर)

धर्म, सम्राट बनाने की कला है-1











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नुष्य के जीवन में इतना दुख है, इतनी पीड़ा, इतना तनाव कि ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद पशु भी हमसे ज्यादा आनंद में होंगे, ज्यादा शांति में होंगे। समुद्र और पृथ्वी भी शायद हमसे ज्यादा प्रफुल्लित हैं। रद्दी से रद्दी जमीन में भी फूल खिलते हैं। गंदे से गंदे सागर में भी लहरें आती हैं--खुशी की, आनंद की। लेकिन मनुष्य के जीवन में न फूल खिलते हैं, न आनंद की कोई लहरें आती हैं। 
मनुष्य के जीवन को क्या हो गया है? यह मनुष्य की इतनी अशांति और दुख की दशा क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो होने को पैदा हुआ है वही नहीं हो पाता है, जो पाने को पैदा हुआ है वही नहीं उपलब्ध कर पाता है, इसीलिए मनुष्य इतना दुखी है? अगर कोई बीज वृक्ष न बन पाए तो दुखी होगा। अगर कोई सरिता सागर से न मिल पाए तो दुखी होगी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो वृक्ष बनने को है वह नहीं बन पाता है और जिस सागर से मिलने के लिए मनुष्य की आत्मा बेचैन है, उस सागर से भी नहीं मिल पाती है, इसीलिए मनुष्य दुख में हो? 
धर्म मनुष्य को उस वृक्ष बनाने की कला का नाम है। 
धर्म मनुष्य को सागर से मिलाने की कला का नाम है--जिस सागर से मिल कर तृप्ति मिलती है, शांति मिलती है, आनंद मिलता है।
लेकिन धर्म के नाम पर जो जाल खड़ा हुआ है वह मनुष्य को कहीं ले जाता नहीं, और भटका देता है। धर्म के नाम पर कितने धर्म हैं दुनिया में? तीन सौ धर्म हैं दुनिया में! और धर्म तीन सौ कैसे हो सकते हैं? धर्म हो सकता है तो एक ही हो सकता है। सत्य अनेक कैसे हो सकते हैं? सत्य होगा तो एक ही होगा। लेकिन एक सत्य के नाम पर जब तीन सौ संप्रदाय खड़े हो जाते हैं, तो सत्य की खोज करनी भी मुश्किल हो जाती है। हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं--और धार्मिक आदमी कहीं भी नहीं है। धार्मिक आदमी नहीं है इसलिए इतनी बेचैनी है, इतनी अशांति है, इतना दुख है। 
धार्मिक आदमी न होने के दो कारण हैं। 
एक छोटी सी कहानी से समझाऊं। 
पहला तो कारण यह है कि मनुष्य उन चीजों को बचाने में जीवन गंवा देता है, जिनके बचाने का अंततः कोई भी मूल्य नहीं। मनुष्य उस दौड़ में सारे जीवन को लगा देता है, जिस दौड़ में दौड़ने के बाद भी कहीं पहुंचने की कोई उम्मीद नहीं। 
स्वामी राम जापान गए हुए थे। टोकियो के एक बड़े रास्ते पर हजारों लोगों की भीड़ थी। राम भी उस भीड़ में खड़े हो गए। एक मकान में आग लग गई थी। कोई बहुमूल्य मकान जल रहा था। बड़ा महल, चारों तरफ से लपटें पकड़ गई थीं। सैकड़ों लोग महल के भीतर से सामान बाहर ला रहे थे। महल का मालिक खड़ा था--खोया, बेहोश सा। लोग उसे सम्हाले थे। उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। जीवन भर उसने जो कमाया था उसमें आग लग गई थी। 
फिर लोग बाहर आए तिजोरियां लेकर, बहुमूल्य सामान लेकर, किताबें लेकर, कीमती दस्तावेज लेकर और उन लोगों ने कहा कि अब एक बार और भवन के भीतर जाया जा सकता है, फिर तो लपटें पूरी तरह पकड़ लेंगी, फिर भीतर जाना असंभव होगा। हमें जो भी महत्वपूर्ण मालूम पड़ा, हमने बचा लिया है। अब भी कोई और चीज खास रह गई हो तो आप हमें बता दें, हम उसे बचा लाएं। 
उस मालिक ने कहा, मुझे कुछ भी न दिखाई पड़ रहा है, न समझ आ रहा है। तुम एक बार और जाकर भीतर देख लो, जो भी बचाने जैसा लगे बचा लो। 
वे लोग भीतर गए। हर बार सामान लेकर वे खुशी-खुशी बाहर लौटे थे कि इतनी चीजें बचा लीं। लेकिन अंतिम बार वे छाती पीटते हुए और रोते हुए लौटे। सारी भीड़ पूछने लगी कि क्यों रो रहे हो? क्या हो गया? 
उन लोगों ने रोते हुए कहा कि बड़ी भूल हो गई, भवन के मालिक का एक ही बेटा था, वह भीतर सोया था, हम उसे बचाना ही भूल गए। हमने सारा सामान बचा लिया, लेकिन सामान का असली मालिक मर गया है, हम उसकी लाश लेकर आए हैं। 
स्वामी राम ने अपनी डायरी में उस दिन लिखा कि आज जो मैंने देखा है वह अधिकतम मनुष्यों के जीवन में घटित होता है। लोग व्यर्थ की चीजें बचाने में जीवन गंवा देते हैं और जीवन का असली मालिक मर ही जाता है, उसे बचा ही नहीं पाते।
जारी----
(सौजन्‍य से – ओशो न्‍यूज  लेटर)