धर्म अमूर्च्‍छा है

कल एक मंदिर के द्वार पर खड़ा था। धूप जल रही थी और वातावरण सुगंधित था। फिर पूजा की घंटी बजने लगी और आरती का दीप मूर्ति के सामने घूमने लगा। कुछ भक्तजन इकट्ठे थे। वह सब आयोजन सुंदर था और एक सुखद तंद्रा पैदा करता था। लेकिन उन आयोजनों से धर्म का कोई संबंध नहीं है।
किसी मंदिर, किसी मस्जिद, किसी गिरजे का धर्म से कोई नाता नहीं है। सब मूर्तियां पत्थर हैं और सब प्रार्थनाएं दीवारों से की गयी बातचीत के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।
लेकिन इन सब से सुख मिलता मालूम होता है! और वही खतरा है, क्योंकि उसी के कारण प्रवंचना प्रारंभ होती है और प्रगाढ़ होती है। उस सुख के भ्रम में ही सत्य का आभास पैदा होता है। सुख मिलता है, मूर्च्‍छा से- अपने को भूल जाने और स्व की वास्तविकता से पलायन करने से। मदक द्रव्यों का सुख भी ऐसे ही पलायन से मिलता है। धर्म के नाम पर मूर्च्‍छा के सब प्रयोग भी मादक द्रव्यों जैसे ही मिथ्या सुख लाते हैं। सुख धर्म नहीं, क्योंकि वह दुख का अंत नहीं, केवल विस्मृति है।
फिर धर्म क्या है?
धर्म स्व से पलायन नहीं, स्व के प्रति जागरण है। इस जागरण का किसी बाह्य आयोजन से कोई वास्ता नहीं है। यह तो भीतर चलने और चैतन्य को उपलब्ध करने से संबंधित है।
मैं जागूं और साक्षी बनूं- जो है, उसके प्रति चेतन बनूं- बस, धर्म इतने से ही संबंधित है।
धर्म अमूर्च्‍छा है।
और अमूर्च्‍छा आनंद है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)