मनुष्य के साथ क्या हो गया है?

मैं सुबह उठता हूं। देखता हूं, गिलहरियों को दौड़ते, देखता हूं, सूरज की किरणों में फूलों को खिलते, देखता हूं, संगीत से भरी प्रकृति को। रात्रि सोता हूं। देखता हूं, तारों से झरते मौन को, देखता हूं, सारी सृष्टिं पर छा गयी आनंद-निंद्रा को। और फिर, अपने से पूछने लगता हूं कि मनुष्य को क्या हो गया है?
सब कुछ आनंद से तरंगित है, केवल मनुष्य को छोड़कर। सब कुछ आनंद से आन्दोलित है, केवल मनुष्य को छोड़ कर। सब दिव्य शांति में विराजमान है, केवल मनुष्य को छोड़ कर।
क्या मनुष्य इस सब का भागीदार नहीं है? क्या मनुष्य कुछ पराया है? अजनबी है?
पर परायापन अपने हाथों लाया गया है। यह टूट अपने हाथों पैदा की गई है। स्मरण आती है, बाइबिल की पुरानी कथा। मनुष्य 'ज्ञान का फल' खाकर आनंद के राज्य से बहिष्कृत हो गया है। यह कथा कितनी सत्य है। ज्ञान ने, बुद्धि ने, मन ने मनुष्य को जीवन से तोड़ दिया है। वह सत्ता में हो कर सत्ता से बाहर हो गया है।
ज्ञान को छोड़ते ही, मन से पीछे हटते ही, एक ये लोक का उदय होता है। उसमें हम प्रकृति से एक हो जाते हैं। कुछ अलग नहीं होता है, कुछ भिन्न नहीं होता है। सब एक शांति में स्पंदित होने लगता है।
यह अनुभूति ही 'ईश्वर' है।
ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। ईश्वर की कोई अनुभूति नहीं होती है, वरन् एक अनुभूति का नाम ही ईश्वर है। 'उसका' कोई साक्षात नहीं है, वरन् एक साक्षात का ही वह नाम है।
इस साक्षात में मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। इस अनुभूति में वह अपने 'घर' आ जाता है। इस प्रकाश में वह फूलों और पत्तियों के सहज-स्फूर्त आनंद का साझीदार होता है। इस एक ओर से वह मिट जाता है और दूसरी ओर सत्ता को पा लेता है। यह उसकी मृत्यु भी है और उसका जीवन भी है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)