सब विलीन हो जाने दो


'मैं साधक हूं। आध्यात्मिक साधना में लगा हूं। क्रमश: गति होती जा रही है, एक दिन प्राप्ति भी हो जाने को है।'
एक साधु ने एक दिन मुझ से यह कहा था। उनके शब्दों में मुझे साधना नहीं, वासना ही लगी थी। ऐसी साधना भी बधा है। जो है, उसे पाने का अभ्यास क्या करना है! उसे पाना भी तो नहीं, यह जानना है कि वह खोया ही नहीं गया है। और तथाकथित साधना का उपक्रम इस सत्य को छिपा देता है। उसके मूल में भी वासना है और कुछ पाने और कुछ बदलने की आकांक्षा है। मैं जो हूं, उसे बदलना है। 'आ' को 'ब' बनाना है। समस्त वासना के मूल में यही द्वंद्व होता है, यही द्वैत होता है। यह द्वैत ही जगत है और दुख है।
मैं कहता हूं, 'आप जो हो, उससे जरा भी कुछ और होने की आकांक्षा यदि है, तो आप 'जो हो' उसके विपरीत जा रहे हो।' और 'जो है'- वही मार्ग है। 'जो है'- उसके प्रति जागते ही जीवन एक सहजता और सौंदर्य से भर जाता है। एक स्वतंत्रता और मुक्ति श्वास-श्वास में भर जाती है। यह सौंदर्य तथाकथित अभ्यासी को कभी उपलब्ध नहीं होता है। उसमें एक हिंसा, एक दमन और कुछ 'होने' की वासना के लक्षण सहजता नष्ट कर देते हैं। इसलिए एक कुरूपता समस्त तथाकथित समस्त साधुओं में होती है।
फिर क्या करें? कुछ भी नहीं। न करना, कुछ भी न करना ध्यान है। कर्म में स्व नहीं है, विचार में स्व नहीं है। कर्म और विचार के बाहर होते ही वह आविष्कृत हो जाता है। सब छोड़ दो, सब मिट जाने दो, सब विलीन हो जाने दो। और फिर इस 'न-कुछ' में, इस शून्य में जो दिखता है, वही सब-कुछ है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)