नास्तिक होना, अधार्मिक होना नहीं!


एक युवक ने आकर कहा है, 'मैं नास्तिक हो गया हूं।'
मैं उसे देखता हूं। उसे पहले से जानता हूं। जीवन-सत्य को जानने की उसकी प्यास तीव्र है। वह किसी भी मूल्य पर सत्य को अनुभव करना चाहता है। उसमें तीव्र प्रतिभा है और सतही आस्थाएं उसे तृप्त नहीं करती हैं। संस्कार, परंपरा और रूढि़यां उसे कुछ भी नहीं दे पा रही हैं। वह संदेहों और शंकाओं से घिर गया है। सारे मानसिक सहारे और धारणाएं खंडित हो गयी हैं और वह उसके एक घने नकार में डूब गया है।
मैं चुप हूं। वह दुबारा बोला है, 'ईश्वर पर से मेरी श्रद्धा हट गयी है। कोई ईश्वर नहीं है। मैं अधार्मिक हो गया हूं।'
मैं उससे कहता हूं कि यह मत कहो। नास्तिक होना, अधार्मिक होना नहीं है। वास्तविक आस्तिकता पाने के लिए नकार से गुजरना ही होता है। वह अधार्मिक होने का नहीं, वस्तुत: धार्मिक होने का प्रारंभ है। संस्कारों से, शिक्षण से, विचारों से मिली आस्तिकता कोई आस्तिकता नहीं है। जो उससे तृप्त है, वह भ्रांति में है। वह विपरीत विचारों में पलता, तो उसका मन विपरीत निर्मित हो सकता था। और फिर वह उससे ही तृप्त हो जाता।
मन पर पड़े संस्कार परिधि की, सतह की घटना है। वह मृत पर्त है। वह उधार और बासी स्थिति है। कोई भी सचमुच आत्मिक जीवन के लिये प्यासा व्यक्ति, उस काल्पनिक जल से अपनी प्यास नहीं बुझा सकता है। ओर इस अर्थ में वह व्यक्ति धन्य-भागी है। क्योंकि वास्तविक जल को पाने की खोज इसी बेबुझी प्यास से प्रारंभ होती है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम ईश्वर की धारणा से सहमत नहीं हो। क्योंकि यह असहमति ईश्वर के सत्य तक तुम्हें ले जा सकती है।
मैं उस युवक के चेहरे पर एक प्रकाश फैलता देखता हूं। एक शांति और एक आश्वासन उसकी आंखों में आ गया है। जाते समय में उससे कह रहा हूं, 'इतना स्मरण रखना कि नास्तकिता धार्मिक जीवन की शुरुआत है। वह अंत नहीं है। वह पृष्ठभूमि है, पर उस पर ही रुक नहीं जाना है। वह रात्रि है, उसमें ही डूब नहीं जाना है। उसके बाद ही, उससे ही, सुबह का जन्म होता है।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)