विकारों का त्याग

मैं एक प्रवचन पढ़ रहा हूं। किन्हीं साधु का है। क्रोध छोड़ने को, वासनाएं छोड़ने को कहा है। जैसे ये सब बातें छोड़ने की हों! किसी ने चाहा और छोड़ दिया! पढ़-सुन कर ऐसा ही प्रतीत होता है। इन उपदेशों को सुनकर ज्ञात होता है कि अज्ञान कितना घना है। मनुष्य के मन के संबंध में हम कितना कम जानते हैं।
एक बच्चे से एक दिन मैंने कहा कि तुम अपनी बीमारी को छोड़ क्यों नहीं देते हो? वह बीमार बच्चा हंसने लगा और बोला कि क्या बीमारी छोड़ना मेरे हाथ में है।
प्रत्येक व्यक्ति बीमारी और विकार को छोड़ना चाहता है, पर विकार की जड़ों तक जाना आवश्यक है; वे जिस अचेतन के गर्त से आते हैं, वहां तक जाना आवश्यक है- केवल चेतन-मन के संकल्प से उनसे मुक्ति नहीं पायी जा सकती है।
एक कहानी फ्रॉयड ने कही है- एक ग्रामीण शहर के किसी होटल में ठहरा था। रात्रि उसने अपने कमरे में प्रकाश को बुझाने की बहुत कोशिश की पर असफल ही रहा। उसने प्रकाश को फूंक कर बुझाना चाहा, बहुत भांति फूंका, पर प्रकाश था कि अकंपित जलता ही गया। उसने सुबह इसकी शिकायत की। शिकायत के उत्तर में उसे ज्ञात हुआ कि वह प्रकाश दिये का नहीं था, जो फूंकने से बुझ जाता- वह प्रकाश तो विद्युत का था।
और मैं कहता हूं कि मनुष्य के विकारों को भी फूंककर बुझाने की विधि गलत है। वे मिट्टी के दिये नहीं हैं; विद्युत के दिये हैं। उन्हें बुझाने की विधि अचेतन में छिपी है। चेतन के सब संकल्प फूंकने की भांति व्यर्थ हैं। केवल अचेतन में योग्य माध्यम से उतरकर ही उनकी जड़े तोड़ी जा सकती हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मैं कौन हूं?


एक मंदिर में बोलने गया था। बोलने के बाद एक युवक ने कहा, 'क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूं? यह प्रश्न मैं बहुतों से पूछ चुका हूं; पर जो उत्तर मिले, उनसे तृप्ति नहीं होती है। समस्त दर्शन कहते हैं : अपने को जानों। मैं भी अपने को जानना चाहता हूं। यही मेरा प्रश्न है। 'मैं कौन हूं?,' इसका उत्तर चाहता हूं।'
मैंने कहा, 'अभी आपने प्रश्न पूछा ही नहीं है, तो उत्तर कैसे पाते? प्रश्न पूछना उतना आसान नहीं है।'
उस युवक ने एक क्षण हैरानी से मुझे देखा। प्रकट था कि मेरी बात का अर्थ उसे नहीं दिखा था। वह बोला, 'यह आप क्या कहते हैं? मैंने प्रश्न ही नहीं पूछा है।'
मैंने कहा, 'रात्रि आ जायें।' वह रात्रि में आया भी। सोचा होगा, मैं कोई उत्तर दूंगा। उत्तर मैंने दिया भी, पर जो उत्तर दिया वह उसने नहीं सोचा था।
वह आया। बैठते ही मैंने प्रकाश बुझा दिया। वह बोला, 'यह क्या कर रहे हैं? क्या उत्तर आप अंधेरे में देते हैं?'
मैंने कहा, 'उत्तर नहीं देता, केवल प्रश्न पूछना सिखाता हूं। आत्मिक जीवन और सत्य के संबंध में कोई उत्तर बाहर नहीं है। ज्ञान बाह्य तथ्य नहीं है। वह सूचना नहीं है, अत: उसे आप में डाला नहीं जा सकता है। जैसे कुएं से पानी निकालते हैं, ऐसे ही उसे भी भीतर से ही निकालना होता है। वह नित्य। उसकी सतत् उपस्थिति है, केवल घड़ा उस तक पहुंचाना है। इस प्रक्रिया में एक ही बात स्मरणीय है कि घड़ा खाली हो। घड़ा खाली हो, तो भरकर लौट आता है और प्राप्ति हो जाती है।'
अंधेरे में थोड़ा- सा समय चुपचाप सरका। वह बोला,'अब मैं क्या करूं?' मैंने कहा, 'घड़ा खाली कर लें, शांत हो जाएं और पूछें : 'मैं कौन हूं?' एक बार, दो बार, तीन बार पूछें। समग्र शक्ति से पूछें : 'मैं कौन हूं?'ं प्रश्न पूरे व्यक्तित्व में गूंज उठे और तब शांत हो जाएं और मौन, विचार शून्य प्रतीक्षा करें। प्रश्न और फिर खामोशी, शून्य प्रतीक्षा। यही विधि है।'
वह थोड़ी देर बाद बोला, 'लेकिन मैं चुप नहीं हो पा रहा हूं। प्रश्न तो पूछ लिया पर शून्य प्रतीक्षा असंभव है और अब मैं देख पा रहा हूं कि मैंने वस्तुत: आज तक प्रश्न पूछा ही नहीं था।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सत्य का स्वरूप

सत्य पर चर्चा चल रही थी कि मैं भी आ गया हूं। सुनता हूं। जो बात कह रहे हैं, वे अध्ययनशील हैं। विभिन्न दर्शनों से परिचित हैं। कितने मत हैं और कितने विचार हैं, सब उन्हें ज्ञात मालूम होते हैं। बुद्धि उनकी भरी हुई है- सत्य से तो नहीं, सत्य के संबंध में औरों ने जो कहा है, उससे। जैसे औरों ने जो कहा है, उस आधार से भी सत्य जाना जा सकता है! सत्य जैसे कोई मत है- विचार है और कोई बौद्धिक तार्किक निष्कर्ष है! विवाद उनका गहरा होता जा रहा है और अब कोई भी किसी की सुनने की स्थिति में नहीं है। प्रत्येक बोल रहा है, पर कोई भी सुन नहीं रहा है।
मैं चुप हूं। फिर किसी को मेरा स्मरण आता है और वे मेरा मत जानना चाहते हैं। मेरा तो कोई मत नहीं है। मुझे तो दिखता है कि जहां तक मत है, वहां तक सत्य नहीं है। विचार की जहां सीमा समाप्ति है, सत्य का वहां प्रारंभ है।
मैं क्या हूं! वे सभी सुनने को उत्सुक हैं। एक कहानी कहता हूं- एक साधु था, बोधिधर्म। वह ईसा की छठी सदी में चीन गया था। कुछ वर्ष वहां रहा, फिर घर लौटना चाहा और अपने शिष्यों को इकट्ठा किया। वह जानना चाहता था कि सत्य में उनकी कितनी गति हुई है।
उसके उत्तर में एक ने कहा, 'मेरे मत से सत्य स्वीकार-अस्वीकार के अतीत है- न कहा जा सकता है कि है, न कहा जा सकता है कि नहीं है, क्योंकि ऐसा ही उसका स्वरूप है।'
बोधिधर्म बोला, 'तेरे पास मेरी चमड़ी है।'
दूसरे ने कहा, 'मेरी दृष्टिं में सत्य अंतदर्ृष्टिं है। उसे एक बार पा लिया, फिर खोना नहीं है।'
बोधिधर्म बोला, 'तेरे पास मेरा मांस है।'
तीसरे ने कहा, 'मैं मानता हूं कि पंच महाभूत शून्य हैं और पंच स्कंध भी अवास्तविक हैं। यह शून्यता ही सत्य है।'
बोधिधर्म ने कहा, 'तेरे पास मेरी हड्डियां हैं।'
और अंतत: वह उठा जो जानता था। उसने गुरु के चरणों में सिर रख दिया और मौन रहा। वह चुप था और उसकी आंखें शून्य थी।
बोधिधर्म ने कहा, 'तेरे पास मेरी मज्जा है, मेरी आत्मा है।'
और यही कहानी मेरा उत्तर है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

स्वयं से प्रेम करो


एक प्रवचन कल सुना है। उसका सार था- आत्म-दमन। प्रचलित रूढि़ यही है। सोचा जाता है कि सबसे प्रेम करना है, पर अपने से घृणा करनी है। स्वयं अपने से शत्रुता करनी है, तब कहीं आत्म-जय होती है। पर यह विचार जितना प्रचलित है, उतना ही गलत भी है। इस मार्ग से व्यक्तित्व द्वैत से टूट जाता है और आत्म-हिंसा की शुरुआत हो जाती है। और हिंसा सब कुरूप कर देती है।
मनुष्य को वासनाएं इस तरह से दमन नहीं करनी हैं, न की जा सकती हैं। यह हिंसा का मार्ग धर्म-मार्ग नहीं है। इसके परिणाम में ही शरीर को सताने के कितने विकसित रूप हो गये हैं। उनमें दिखती है तपश्चर्या, पर वस्तुत: हिंसा का रस, दमन और प्रतिरोध का सुख- यह तप नहीं है, आत्मवंचना है।
मनुष्य को अपने से लड़ना नहीं, अपने को जानना है। पर जानना, अपने को प्रेम करने से शुरू होता है। अपने को सम्यक रूपेण प्रेम करना है। न तो वासनाओं के पीछे अंधा हो कर दौड़ने वाला अपने से प्रेम करता है और न वासनाओं से अंधा हो कर लड़ने वाला अपने से प्रेम करता है। वे दोनों अंधे हैं और पहले अंधेपन की प्रतिक्रिया में दूसरे अंधेपन का जन्म हो जाता है। एक वासनाओं में अपने को नष्ट करता है, एक उनसे लड़कर अपने को नष्ट कर लेता है। वे दोनों अपने प्रति घृणा से भरे हैं। ज्ञान का प्रारंभ अपने को प्रेम करने से होता है।
मैं जो भी हूं, उसे स्वीकार करना है, उसे प्रेम करना है। और इस स्वीकृति और इस प्रेम में ही वह प्रकाश उपलब्ध होता है, जिससे सहज सब-कुछ परिवर्तित हो जाता है- एक संगीत का और एक शांति का और एक आनंद का- जिनके समग्रीभूत प्रभाव का नाम आध्यात्मिक जीवन है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सम्यक दर्शन


मनुष्य जिसे जगत कहता है, वह सत्ता की सीमा नहीं है। वह केवल मनुष्य की इंद्रियों की सीमा है। इन इंद्रियों के पार असीम विस्तार है। इस असीम को इंद्रियों से कभी भी पूरा-पूरा नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि इंद्रियां खण्ड को देखती हैं, अंश को देखती हैं और जो असीम है, अनंत है, वह खण्डित और विभाजित नहीं होता है। जो असीम है, उसे मापने के लिए कोई सीमित साधन काम नहीं दे सकता है।
जो असीम है, वह केवल असीम से ही पकड़ा जा सकता है। और जिन्होंने उसे जाना है, उन्होंने इंद्रियों से, बुद्धि से नहीं- स्वयं असीम होकर उसे जाना है। यह संभव है, क्योंकि इस क्षुद्र और सीमित दिखते मनुष्य में असीम भी उपस्थिति है। इंद्रियों पर उसकी परिसमाप्ति नहीं है। वह इंद्रियों में है, पर इंद्रियां ही नहीं हैं। वह इंद्रियातीत आयाम में फैला हुआ है। वह जितना दिखता है, वहां उसकी समाप्ति-सीमा नहीं, शुरुआत है। वह अदृश्य है। दृश्य के घेरे में अदृश्य बैठा हुआ है। इस अदृश्य को वह अपने भीतर पा ले, तो जगत के समस्त अदृश्यों को पा लेता है।
क्योंकि समस्त भाग और खण्ड दृश्य के हैं। अदृश्य अखंडित है। एक और अनेक वहां एक ही हैं और इसलिए एक को पा लेने से सबको पा लिया जाता है।
कहा है महावीर ने, 'जे एगम जाणई से सव्वम जाणई' एक को जाना कि सब को जाना। वह एक भीतर है। यह दृश्य नहीं दृष्टा है। इससे पाने का मार्ग आंख नहीं है। आंख बंद करना इसका मार्ग है। आंख बंद करने का अर्थ है, दृश्य से मुक्ति। आंख बंद हों और भीतर दृश्य बहते हों, तो आंख खुली ही है। दृश्य दृष्टि में न हो और आंख खुली हो, तो भी आंख बंद है। दृश्य न हो और केवल दृष्टिं, केवल दर्शन रह जाये तो द्रष्टा प्रकट हो जाता है।
जिस दर्शन में द्रष्टा दिखे, वह सम्यक दर्शन है। यह दर्शन जब तक नहीं, तब तक मनुष्य अंधा होता है। आंखें होते हुए भी आंख नहीं होती हैं। इस दर्शन से चक्षु मिलते हैं- वास्तविक चक्षु, इंद्रियातीत चक्षु। सीमाएं मिट जाती हैं, रेखाएं मिट जाती हैं ओर जो है- आदि-अंतहीन विस्तार, ब्रह्मं- वह उपलब्ध होता है।
यह उपलब्धि ही मुक्ति है। क्योंकि प्रत्येक सीमा बंधन है, प्रत्येक सीमा परतंत्रता है। सीमा से ऊपर होना स्वतंत्रता होना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मोक्ष की प्रवृत्ति नहीं


एक साधु कल कह रहे थे , ''मैं संसार की ओर ले जानेवाली प्रवृत्ति छोड़ चुका हूं, अब तो प्रवृत्ति मोक्ष की ओर है। यही निवृत्ति है। संसार की ओर प्रवृत्ति, मोक्ष के प्रति निवृत्ति है; मोक्ष के प्रति प्रवृत्ति संसार के प्रति निवृत्ति है।''
यह बात दिखने में कितनी ठीक और समझ-भरी मालूम होती है। कहीं चूक दिखाई नहीं देती। बिलकुल बुद्धि और तर्क-युक्त है, पर उतनी ही व्यर्थ भी है। ऐसे ही शब्दों के खेल में कितने ही लोग प्रवंचना में पड़े रहते हैं। बुद्धि और तर्क- आत्मिक जीवन के संबंध में कहीं भी ले जाते मालूम नहीं होते हैं। मैंने उनसे कहा, ''आप शब्दों में उलझ गये हैं। 'संसार की ओर प्रवृत्ति' का कोई अर्थ नहीं है। असल में प्रवृत्ति ही संसार है। वह किस ओर है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। बस, उसका होना ही संसार है। वह धन की ओर हो तो, वह धर्म की ओर हो तो- उसका स्वरूप एक ही है।''
प्रवृत्ति मनुष्य को अपने से बाहर ले जाती है। वह वासना है, वह फलासक्ति है, वह कुछ न होने की तृष्णा और दौड़ है। 'अ' 'ब' होना चाहता है! यह उसका रूप है। और जब तक कुछ होने की वासना है, तब तक वह 'जो है', उसका होना नहीं हो पाता है। इस 'है' का उद्घाटन ही मोक्ष है।
'मोक्ष' कोई वस्तु नहीं है, जिसे पाना है। वह वासना का कोई विषय नहीं है। इससे उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। वह तो तब है, जब कोई प्रवृत्ति नहीं होती- मोक्ष की भी नहीं। तब जो होता है, उसका नाम मोक्ष है। इससे मोक्ष को पाना नहीं है, असल में पाना छोड़ना है और मोक्ष पा लिया जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

धारणा-शून्य मन ही जागृति


एक अध्यापक हैं। धर्म में उनकी अभिरुचि है। धर्म ग्रंथों के अध्ययन में जीवन लगाया है। धर्म की बातें उठे तो उनके विचार -प्रवाह का अंत नहीं आता है। एक अंतहीन फीते के भांति उनके विचार निकलते आते हैं। कितने उद्धरण और कितने सूत्र उन्हें याद हैं, कहना कठिन हैं। कोई भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। वे एक चलते-फिरते विश्वकोश हैं, ऐसी ही उनकी ख्याति है। कई बार मैंने उनके विचार सुने हैं और मौन रहा हूं। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा कि मेरे संबंध में क्या ख्याल है? मैंने जो सत्य था, वही कहा। कहा कि ईश्वर के संबंध में विचार इकट्ठा करने में उन्होंने ईश्वर को गंवा दिया है। वे निश्चित ही चौंक गये मालूम हुए थे। फिर बाद में आये भी। उसी संबंध में पूछने आये थे। आकर कहा कि अध्ययन और मनन से ही तो सत्य को पाया जा सकता है। और तो कोई मार्ग भी नहीं है!
मैं ऐसे सब लोगों से एक ही प्रश्न पूछता हूं। वही उनसे भी पूछा था कि अध्ययन क्या है और उससे आपके भीतर क्या हो जाता है? क्या कोई नई दृष्टिं का आयाम पैदा हो जाता है? क्या चेतना किसी नये स्तर पर पहुंच जाती है? क्या सत्ता में कोई क्रांति हो जाती है? क्या आप जो हैं, उससे भिन्न और अन्यथा हो जाते हैं? या कि आप वही रहते हैं और केवल कुछ विचार और सूचनाएं आपकी स्मृति का अंग बन जाती हैं? अध्ययन से केवल स्मृति प्रशिक्षित होती है और मन की सतही परत पर विचार की धूल जम जाती है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं होता है, न हो सकता है। केंद्र पर उससे कोई परिवर्तन नहीं होता है। चेतना वही की वही रहती है। अनुभूति के आयाम वही के वही रहते हैं। सत्य के संबंध में कुछ जानना और सत्य को जानना दोनों बिलकुल भिन्न बातें हें। 'सत्य के संबंध में जानना' बुद्धिगत है, सत्य को जानना चेतनागत है।
सत्य को जानने के लिए चेतना की परिपूर्ण जागृति, उसकी अमूच्र्छा आवश्यक है। स्मृति-प्रशिक्षण और तथाकथित ज्ञान से यह नहीं हो सकता है।
जो स्वयं नहीं जाना गया है, वह ज्ञान नहीं है।
सत्य के, अज्ञात सत्य के संबंध में जो बौद्धिक जानकारी है, वह ज्ञान का आभास है। वह मिथ्या है और सम्यक-ज्ञान में मार्ग में बाधा है। असलियत में जो अज्ञात है, उसे जानने का ज्ञात से कोई मार्ग नहीं है। वह तो बिलकुल नया है। वह तो ऐसा है, जो पूर्व कभी जाना नहीं गया है, इसलिए स्मृति उसे देने या उसकी प्रत्यभिज्ञा में भी समर्थ नहीं है। स्मृति केवल उसे ही दे सकती है- उसकी ही प्रत्यभिज्ञा भी उससे आ सकती है- जो कि पहले भी जाना गया है। वह ज्ञात की ही पुनरुक्ति है।
लेकिन जो नवीन है-एकदम अभिनव, अज्ञात और पूर्व-अपरिचित- उसके आने के लिए तो स्मृति को हट जाना होगा। स्मृति को, समस्त ज्ञात विचारों को हटाना होगा ताकि नये का जन्म हो सके; ताकि 'जो है' वह वैसे ही जाना जा सके जैसा कि है। मनुष्य समस्त धारणाएं और पूर्वाग्रह उसके आने के लिए हटाने आवश्यक हैं। विचार, स्मृति और धारणा-शून्य मन ही अमूच्र्छा है, जागृति है। इसके आने पर ही केंद्र पर परिवर्तन होता है और सत्य का द्वार खुलता है। इसके पूर्व सब भटकन है और जीवन-अपव्यय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

स्व-ज्ञान ही जीवन है


रात पानी बरसा है। उसका गीलापन अभी तक है और मिट्टी से सोंधी सुगंध उठ रही है। सूरज काफी ऊपर उठ आया है और गायों का एक झुंड जंगल जा रहा है। उनकी काठ की घंटियां बड़ी मधुर बज रही हैं। मैं थोड़ी देर तक उन्हें सुनता रहा हूं। अब गायें दूर निकल गयी हैं और घंटियों की फीकी प्रतिध्वनि ही शेष रह गयी है।
इतने में कुछ लोग मिलने आये हैं। पूछ रहे हैं, 'मृत्यु क्या है?'
मैं कहता हूं, 'जीवन को हम नहीं जानते हैं, इसलिए मृत्यु है। स्व-विस्मरण मृत्यु है, अन्यथा मृत्यु नहीं है, केवल परिवर्तन है। 'स्व' को न जानने से एक कल्पित 'स्व' हमने निर्मित किया है। यही है हमारा 'मैं' -अहंकार।'
यह है नहीं, केवल भासता है। यह झूठी इकाई ही मृत्यु में टूटती है। इसके टूटने से दुख होता है, क्योंकि इसी से हमने अपना तादात्म्य स्थापित किया था। जीवन में ही इस भ्रांति को पहचान लेना मृत्यु से बच जाना है। जीवन को जान लो और मृत्यु समाप्त हो जाती है। जो है, वह अमृत है। उसे जानते ही नित्य, शाश्वत जीवन उपलब्ध हो जाता है।
कल एक सभा में यही कहा है : 'स्व-ज्ञान जीवन है। स्व-विस्मरण मृत्यु है।'
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मौन का संगीत

दोपहर की शांति। उजली धूप और पौधे सोये-सोये
से एक जामुन की छाय तले दूब पर आ बैठा हूं। रह-रह कर पत्ते ऊपर गिर रहे हैं- अंतिम, पुराने पत्ते मालूम होते हैं। सारे वृक्षों पर नई पत्तियां आ गई हैं। और नई पत्तियों के साथ न मालूम कितनी नई चिडि़यों और पक्षियों का आगमन हुआ है। उनके गीतों का जैसे कोई अंत ही नहीं है। कितने प्रकार की मधुर ध्वनियां इस दोपहर को संगीत दे रही हैं, सुनता हूं और सुनता रहता हूं और फिर मैं भी एक अभिनव संगीत-लोक में चला जाता हूं।
'स्व' का लोक, संगीत का लोक ही है।
यह संगीत प्रत्येक के पास है। इसे पैदा नहीं करना होता है। यह सुन पड़े, इसके लिए केवल मौन होना होता है। चुप होते ही कैसे एक परदा उठ जाता है! जो सदा से था, वह सुन पड़ता है और पहली बार ज्ञात होता है कि हम दरिद्र नहीं हैं। एक अनंत संपत्ति का पुनराधिकार मिल जाता है। फिर कितनी हंसी आती है- जिसे खोजते थे, वह भीतर ही बैठा था!
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

विवेक, बुद्धि और वृत्ति


मैं तीन छोटे-छोटे शब्दों पर मनुष्य की समग्र चेतना को घूमते देखता हूं। वे तीन शब्द कौन से हैं?
वे शब्द हैं- विवेक, बुद्धि और वृत्ति।
विवेक से श्रेष्ठतम चलते हैं। बुद्धि से वे जो मध्य में हैं। और वृत्ति चेतना की निम्नतम दशा है।
वृत्ति पाशविक है। बुद्धि मानवीय है। विवेक दिव्य है।
वृत्ति सहज और आंधी है। वह निद्रा है। वह अचेतन का जगत है। वहां न शुभ है, न अशुभ है। कोई भेद वहां नहीं है। इसमें कोई अंतर्सघर्ष भी नहीं है। वह आंधी वासनाओं का सहज प्रवाह है।
बुद्धि न निद्रा है, न जागरण है। वह अर्ध-मूच्र्छा है। वह वृत्ति और विवेक के बीच संक्रमण है। वह दहलीज है। उसमें एक अंश चैतन्य हो गया है। लेकिन शेष अचेतन है। इससे भेद बोध है। शुभ-अशुभ का जन्म है। वासना भी है, विचार भी है।
विवेक पूर्ण जागृति है। वह शुद्ध चैतन्य है। वह केवल प्रकाश है। वहां भी कोई संघर्ष नहीं है। वह भी सहज है। वह शुभ का, सत का, सौंदर्य का सहज प्रवाह है।
वृत्ति भी सहज, विवेक भी सहज। वृत्ति आंधी सहजता, विवेक सजग सहजता। बुद्धि भर असहज है। उसमें पीछे की ओर वृत्ति है, आगे की और विवेक है। उसके शिखर की लौ विवेक की ओर और आधार की जड़े वृत्ति में हैं। सतह कुछ, तलहटी कुछ। यही खिंचाव है। पशु में डूबने का आकर्षण- प्रभु में उठने की चुनौती- उसमें दोनों एक साथ हैं!
इस चुनौती से डरकर जो पशु में डूबने का प्रयास करते हैं, वे भ्रांति में हैं। जो अंश चैतन्य हो गया है, वह अब अचेतन नहीं हो सकता है। जगत-व्यवस्था में पीछे लौटने का कोई मार्ग नहीं है।
इस चुनौती को मानकर जो सतह पर शुभ-अशुभ का चुनाव करते हैं, वे भी भ्रांति में हैं। उस तरह का चुनाव व आचरण-परिवर्तन सहज नहीं हो सकता है। वह केवल चेष्टिंत अभिनय है। और जो चेष्टिंत है, वह शुभ नहीं है। प्रश्न सतह पर नहीं है, तलहटी में है। वह जो सोया है, उसे जगाना है। अशुभ नहीं, मूच्र्छा छोड़नी है।
अंधेरे में दिया जलाना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मनुष्य-मनुष्यता


पूर्णिमा है, लेकिन आकाश बादलों से ढका है। मैं राह से आया हूं। एक रेत के ढेर पर कुछ बच्चे खेल रहे थे। उन्होंने रेत के कुछ घर बनाए और उस पर से ही उनके बीच में झगड़ा हो गया था। रेत के घरों पर ही सारे झगड़े होते हैं। वे तो बच्चे ही थे, पर थोड़ी देर में जो बच्चे नहीं थे, वे भी उसमें सम्मिलित हो गये। बच्चों के झगड़े में, बाद में उनके बड़े भी सम्मिलित हो गये थे।
मैं किनारे खड़ा सोचता रहा कि बच्चों और बड़ों का विभाजन कितना कृत्रिम है! आयु वस्तुत: कोई भेद नहीं लाती और उससे प्रौढ़ता का कोई संबंध नहीं है।
हममें से अधिक बच्चे ही मर जाते हैं। लाओत्से के संबंध में कथा है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ था। यह बात बहुत अस्वाभाविक लगती है। पर क्या इससे भी अधिक अस्वाभाविक घटना यह नहीं है कि कोई मरते समय तक भी प्रौढ़ता को उपलब्ध न हो पाये! शरीर विकसित हो जाते हैं, पर चित्त वहीं का वहीं ठहरा रह जाता है। तभी तो संभव है कि रेत के घरों पर झगड़े चलें और आदमी- आदमी के वस्त्रों को उतार क्षण में नग्न हो जाये और जाहिर कर दे कि सब विकास की बातें व्यर्थ हैं। और कौन कहता है कि मनुष्य पशु से पैदा हुआ है? मनुष्य के पशु से पैदा होने की बात गलत है, क्योंकि वह तो अभी भी पशु ही है।
क्या कभी मनुष्य पैदा नहीं हुआ है?
मनुष्य को गहरा देखने में जो उत्तर मिलता है। वह 'हां' में नहीं मिलता है। डायोजनीज दिन को, भरी दोपहरी में भी अपने साथ एक जलती हुई लालटेन लिये रहता था और कहता था कि मैं मनुष्य को खोज रहा हूं। वह जब वृद्ध हो गया था, तो किसी ने उससे पूछा, 'मनुष्य खोज लेने की आशा है।' उसने कहा, 'हां', क्योंकि अब भी जलती हुई लालटेन मेरे पास है।'
मैं खड़ा रहा हूं और उस रेत के ढेर के पास बहुत भीड़ इकट्ठी हो गयी है और लोग गाली-गलौज का और एक-दूसरे को डराने-धमकाने का बहुत रस-मुग्ध हो पान कर रहे हैं। जो लड़ रहे हैं, उनकी आंखों में भी बहुत चमक मालूम हो रही है। कोई पाशविक आनंद जरूर उनकी आंखों और गतिविधियों में प्रवाहित हो रहा है।
जिब्रान ने लिखा है- एक दिन मैंने खेत में खड़े एक काठ के पुतले से पूछा, 'क्या तुम इस खेत में खड़े-खड़े उकता नहीं जाते हो?' उसने उत्तर दिया, 'ओह! पक्षियों को डराने का आनंद इतना है कि समय कब बीत जाता है, कुछ पता ही नहीं चलता।' मैंने क्षण भर सोचकर कहा, 'यह सत्य है, क्योंकि मुझे भी इस आनंद का अनुभव है।' पुतला बोला, 'हां, वे ही व्यक्ति जिनके शरीर में घास-फूस भरा है, इस आनंद से परिचित हो सकते हैं!' पर इस आनंद से तो सभी परिचित मालूम हाते हैं। क्या हम सबके भीतर घास-फूस ही नहीं भर हुआ है? और क्या हम भी खेत में खड़े झूठे आदमी ही नहीं हैं?
उस रेत के ढेर पर यही आनंद देखकर लौटा हूं और क्या सारी पृथ्वी के ढेर पर भी यही आनंद नहीं चल रहा है?
यह अपने से पूछता हूं और रोता हूं। उस मनुष्य के लिए रोता हूं, जो कि पैदा हो सकता है, पर पैदा नहीं हुआ है। जो कि प्रत्येक के भीतर है, पर वैसे ही छिपा है, जैसे राख में अंगारे छिपा होता है।
वस्तुत: शरीर घास-फूस के ढेर से ज्यादा नहीं है। जो उस पर समाप्त है, अच्छा था कि वह किसी खेत में होता, तो कम से कम फसलों को पक्षियों से बचाने के काम तो आ जाता। मनुष्य की सार्थकता तो उतनी भी नहीं है!
शरीर से जो अतीत है, उसे जाने बिना कोई मनुष्य नहीं बनता है। आत्मा को जाने बिना कोई मनुष्य नहीं बनता है। मनुष्य की भांति पैदा हो जाना एक बात है, मनुष्य होना बिलकुल दूसरी बात है।
मनुष्य को तो स्वयं के भीतर स्वयं को जन्म देना होता है। यह वस्त्रों की भांति नहीं है कि उसे ओढ़ा जा सके। मनुष्यता के वस्त्रों को ओढ़कर कोई मनुष्य नहीं बनता है, क्योंकि वे उसी समय तक उसे मनुष्य बनाये रखते हैं, जब तक कि मनुष्यता की वस्तुत: कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है। आवश्यकता आते ही वे कब गिर जाते हैं, ज्ञात भी नहीं हो पाता है।
बीज जैसे अपने प्राणों को परिवर्तित का अंकुर बनता है- किन्हीं वस्त्रों को धारण करके नहीं- वैसे ही मनुष्य को भी अपनी समस्त प्राण-सत्ता एक नये ही आयाम में अंकुरित करनी होती है, तभी उसका जन्म होता है और परिवर्तन होता है।
और तब उसका आनंद कांटों को फेंकने में नहीं, कांटों को उठाने में और फूलों को बिखेरने में परिणत हो जाता है। वह घड़ी ही घोषणा करती है कि अब वह घास-फूस नहीं है- मनुष्य है, देह नहीं, आत्मा है।
गुरजिएफ ने कहा है, 'इस भ्रम को छोड़ दें कि प्रत्येक के पास आत्मा है।' सच ही जो सोया है, उसके पास आत्मा है या नहीं, इससे क्या अंतर पड़ता है! वही वास्तविक है- जो है। आत्मा सबकी संभावना है, पर उसे जो सत्य बनाता है, वही उसे पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

समाधि


मैं मनुष्य को शब्दों से घिरा देखता हूं। पर शास्त्र और शब्द व्यर्थ हैं। उस भांति सत्य के संबंध में जाना जा सकता है, लेकिन सत्य को जानने का वह मार्ग नहीं है।
शब्द से सत्ता नहीं आती है। सत्ता का द्वार शून्य है।
शब्द से नि:शब्द में छलांग लगाने का साहस ही धार्मिकता है।
विचार 'पर' को जानने का उपाय है। वह 'स्व' को नहीं देता है। 'स्व' उसके पीछे जो है। 'स्व' सबके पूर्व है। 'स्व' से हम सत्ता में संयुक्त होते हैं। विचार भी 'पर' है। वह भी जब नहीं है, तब 'जो है' वह होता है। उसके पूर्व मैं 'अहं' हूं और उसमें 'ब्रह्मं' हूं।
सत्य में, सत्ता में स्व-पर मिट जाता है। वह भेद भी विचार में और विचार का ही था।
चेतना के तीन रूप हैं- बाह्य मू‌िर्च्छत-अंतर्मू‌िर्च्छत, बाह्य जाग्रत-अंतर्मू‌िर्च्छत और बाह्य जाग्रत-अंतर्जाग्रत। पहला रूप : मूच्र्छा- अचेतना का है। वह जड़ता है। वह विचार पूर्व की स्थिति है। दूसरा रूप : अर्ध-मूच्र्छा- अर्ध चेतना का है। वह जड़ और चेतना के बीच है। वह विचार की स्थिति है। तीसरा रूप : अमूच्र्छा- पूर्ण चेतना का है। वह पूर्ण चैतन्य है और विचारातीत है।
सत्य को जानने के लिए केवल विचाराभाव ही नहीं पाना है। वह तो जड़ता में, मूच्र्छा में ले जाते है। धर्म के नाम से प्रचलित बहुत सही क्रियाएं मूच्र्छा में ही ले जाती हैं। शराब, सेक्स और संगीत भी मूच्र्छा में ही ले जाती हैं। मूच्र्छा में पलायन है। वह उपलब्धि नहीं है।
सत्य को पाने के लिए विचार-शून्यता ओर चैतन्य पाना होता है। उस स्थिति का नाम समाधि है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

समयातीत होना आनंद है

कल दोपहर एक पहाड़ी के आंचल में था। धूप-छाया के विस्तार में बड़ी सुखद घडि़यां बीतीं। निकट ही था, एक तालाब और हवा के तेज थपेड़ों ने उसे बेचैन कर रखा था। लहरें उठती-गिरतीं और टूटती उसका सब कुछ विक्षुब्ध था।
फिर हवाएं सो गयीं और तालाब भी सो गया।
मैंने कहा, 'देखो, जो बेचैन होता है, वह शांत भी हो सकता है। बेचैनी अपने में शांति छपाए हुए है। तालाब अब शांत है, तब भी शांत था। लहरें ऊपर ही थीं, भीतर पहले भी शांति थी।'
मनुष्य भी ऊपर ही अशांत है। लहरें ऊपर ही हैं, भीतर गहराई में घना मौन है। विचारों की हवाओं से दूर चलें और शांत सरोवर के दर्शन हो जाते हैं। यह सरोवर 'अभी और यहीं' पाया जा सकता है। समय का प्रश्न नहीं है, क्योंकि समय वहीं तक है, जहां तक विचार हैं। ध्यान समय के बाहर है। ईशा ने कहा, 'और वह समय नहीं है। .....'
समय में दुख है। समय दुख है। समयातीत होना आनंद
में होना है।
चलो मित्र, समय के बाहर चलें- वहीं हम हैं। समय के भीतर जो दिखता है, वह समय के बाहर ही है। इतना जानना ही चलना है। जाना कि हवाएं रुक जाती हैं और सरोवर शांत हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

आंखें खोलो, स्वर्ग का राज तुम्हारा है


नीले नभ के नीचे सूरज की गर्मी फैल गयी है। सर्दी घनी हो गई है और दूब पर जमे ओस के कण बर्फ जैसे ठण्डे लगते हैं। फूलों से ओस की बूंदे टपक रही हैं। रातरानी रात भर सुगंध देकर सो गई है।एक मुर्गा बांग देता है और फिर दूर-दूर से उसके प्रत्युत्तर आते हैं। वृक्ष मलय के झोंकों से कांप रहे हैं और चिडि़यों के गीत बंद ही नहीं होते हैं।सुबह अपने हस्ताक्षर सब जगह कर देती है। सारा जगत अचानक कहने लगता है कि सुबह हो गई है।मैं बैठा दूर वृक्षों में खो गये रास्ते को देखता हूं। धीरे-धीरे राह भरने लगती है और लोग निकलते हैं। वे चलते, पर सोये से लगते हैं। किसी आंतरिक तंद्रा ने सबको पकड़ा हुआ है। सुबह के इन आनंद क्षणों के प्रति वे जागे हुए नहीं लगते हैं, जैसे कि उन्हें ज्ञात ही नहीं कि जो जगत के पीछे है, वह इन क्षणों में अनायास प्रकट हो जाता है।जीवन में कितना संगीत है और मनुष्य कितना बधिर है!जीवन में कितना सौंदर्य है और मनुष्य कितना अंधा है!जीवन में कितना आनंद है और मनुष्य कितना संवेदन-शून्य है!उस दिन उन पहाडि़यों पर गया था। उन सुंदर पर्वत-पंक्तियों में हम देर तक रुके थे; पर जो मेरे साथ थे, वे जीवन की दैनंदिन क्षुद्र बातों में ही लगे हुए थे। उन सब बातों में जिनका कोई अर्थ नहीं, जिनका होना न होना बराबर है। इन बातों की ओट ने उन्हें उस पर्वतीय संध्या के सौंदर्य से वंचित कर दिया था। इस तरह क्षुद्र में आवेष्टिंत हम विराट से अपरिचित रह जाते हैं और जो निकट ही है, वह अपने हाथों दूर पड़ जाता है।मैं कहना चाहता हूं, ''ओ मनुष्य! तुझे खोना कुछ भी नहीं है, सिवाय अपने अंधेपन के और पा लेना है, सब-कुछ। अपने हाथों बने भिखारी! आंखें खोल। पृथ्वी और स्वर्ग का सारा राज्य तेरा है।''(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शून्य के लिए ही मेरा आमंत्रण

एक साधु ने अपने आश्रम के अंत:वासियों को जगत के विराट विद्यालय में अध्ययन के लिए यात्रा को भेजा था। समय पूरा होने पर वे सब, केवल एक को छोड़कर, वापस लौट आये थे। उनके ज्ञानार्जन और उपलब्धियों को देखकर गुरु बहुत प्रसन्न हुआ था। वे बहुत कुछ सीख कर वापस लौटे थे। फिर अंत में पीछे छूट गया युवक भी लौट आया। गुरु ने उससे कहा, 'निश्चय ही तुम सबसे बाद में लौटे हो, इसलिए सर्वाधिक सीख कर लौटे होगे।' उस युवक ने कहा, 'मैं कुछ सीख कर नहीं लौटा हूं, उलटा जो आपने सिखाया था, वह भी भूल आया हूं।' इससे अधिक निराशाजनक उत्तर और क्या हो सकता था!
फिर एक दिन वह युवक गुरु की मालिश कर रहा था। गुरु की पीठ को मलते हुए उसने स्वगत ही कहा, 'मंदिर तो बहुत सुंदर है, पर भीतर भगवान की मूर्ति नहीं है।' गुरु ने सुना, उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। निश्चय ही वे शब्द उससे ही कहे गये थे। उसके ही सुंदर शरीर को उसने मंदिर कहा था। गुरु के क्रोध को देखकर वह युवक हंसने लगा था। वह ऐसा ही था कि जैसे कोई जलती अग्नि पर और घृत डाल दे। गुरु ने उसे आश्रम से अलग कर दिया था।
फिर एक सुबह जब गुरु अपने धर्मग्रंथ का अध्ययन कर रहा था, वह युवक अनायास कहीं से आकर पास बैठ गया था। वह बैठा रहा, गुरु पढ़ता रहा। तभी एक जंगली मधुमक्खी कक्ष में आकर बाहर जाने का मार्ग खोजने लगी थी। द्वार तो खुला ही था-वही द्वार, जिससे वह भीतर आयी थी, पर वह बिलकुल अंधी होकर बंद खिड़की से निकलने की व्यर्थ चेष्टा कर रही थी। उसकी भनभन मंदिर के सन्नाटे में गूंज रही थी। उस युवक ने खड़े होकर जोर से उस मधुमक्खी से कहा, 'ओ, नासमझ, वह द्वार नहीं, दीवार है। रुक और पीछे देख, जहां से तेरा आना हुआ है, द्वार वही है।'
मधुमक्खी ने तो नहीं, पर उस गुरु ने ये शब्द अवश्य सुने और उसे द्वार मिल गया। उसने युवक की आंखों में पहली बार देखा। वह वह नहीं था, जो यात्रा पर गया था। ये आंखें दूसरी ही थीं। उसने उस दिन जाना कि वह जो सीखकर आया है, वह कोई साधारण सीखना नहीं है।
वह सीखकर नहीं कुछ जानकर आया था।
गुरु ने उससे कहा, 'मैं आज जान रहा हूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली है और मैं आज जान रहा हूं कि मैं आज तक दीवार से ही सिर मारता रहा हूं और मुझे द्वार नहीं मिला है। पर अब मैं द्वार को पाने के लिए क्या करूं? क्या करूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली न रहे?' उस युवक ने कहा, 'भगवान को चाहते हो, तो स्वयं से खाली हो जाओ। जो स्वयं भरा है, वही भगवान से खाली है। जो स्वयं से खाली हो जाता है, वह पाता है कि वह सदा से ही भगवान से भरा हुआ था। और इस सत्य तक द्वार पाना चाहते हो, तो वही करो, जो वह अब मधुमक्खी कर रही है।'
गुरु ने देखा मधुमक्खी अब कुछ नहीं कर रही है। वह दीवार पर बैठी है और बस बैठी है। उसने समझा, वह जागा। जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, ऐसा उसने जाना और उसने देखा कि मधुमक्खी द्वार से बाहर जा रही है।
यह कथा मेरा पूरा संदेश है। यही मैं कह रहा हूं। भगवान को पाने को कुछ करना नहीं है, वरन सब करना छोड़कर देखना है। चित्त जब शांत होता है और देखता है, तो द्वार मिल जाता है। शांत और शून्य चित्त ही द्वार है। उस शून्य के लिए ही मेरा आमंत्रण है। वह आमंत्रण धर्म का ही है। उस आमंत्रण को स्वीकार कर लेना ही धार्मिक होना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

भय

महावीर ने पूछा है : श्रमणो, प्राणियों को भय क्या है?
कल कोई यही पूछता था और कोई पूछे या न पूछे, प्रश्न तो यही प्रत्येक की आंखों में है। शायद यह सनातन प्रश्न है और शायद यह अकेला ही प्रश्न है, जो पूछना सार्थक भी है।
प्रत्येक भयभीत है। ज्ञात में, अज्ञात में भय सरक रहा है।
उठते-बैठते सोते-जाते भय बना हुआ है। प्रत्येक क्रिया में, व्यवहार में, विचार में भय है। प्रेम में, घृणा में, पाप में सब भय है। जैसे हमारी पूरी चेतना ही भय से निर्मित है। हमारे विश्वास, धारणाएं, धर्म और ईश्वर भय के अतिरिक्त और क्या हैं?
यह भय क्या है? भय के अनेक रूप हैं, पर भय एक ही है। वह मृत्यु है। यह मूल भय है। मिटने की, न जाने की संभावना ही समस्त भय के मूल में है। भय अर्थात न हो जाने की, मिटने की आशंका। इस आशंका से बचने का प्रयास पूरे जीवन चलता है। सब प्रयास इस मूल असुरक्षा से बचने को हैं।
पर पूरे जीवन दौड़कर भी 'होना' सुनिश्चित नहीं हो पाता है। दौड़ हो जाती है, समाप्त-असुरक्षा वैसी ही बना रहती है। जीवन हो जाता है, पूरा और मृत्यु टल नहीं पाती है। तब ज्ञान होता है कि जीवन जैसा था ही नहीं, केवल मृत्यु विकसित हो रही थी। जन्म और मृत्यु जैसे जीवन के ही दो छोर थे।
यह मृत्यु का भय क्यों? मृत्यु तो अज्ञात है। वह तो अपरिचित है। उसका भय कैसे होगा? जो ज्ञात ही नहीं है, उससे संबंध भी क्या हो सकता है?
वस्तुत: जिसे हम मृत्यु का भय कहते हैं, वह मृत्यु का न होकर, जिसे हम जीवन जीवन जानते हैं, उसके खोने का डर है। जो ज्ञात है, उसके खोने का भय है। जो ज्ञात है, उससे हमारा तादात्म्य है। वह हमारा होना बन गया है। वही हमारी सत्त बन गयी है। मेरा शरीर, मेरी संपत्ति, मेरी प्रतिष्ठ, मेरे संबंध, मेरे
संस्कार, मेरे विश्वास, मेरे विचार-यही मेरे 'मैं' के प्राण बन गये हैं। यही 'मैं' हो गया है। मृत्यु इस 'मैं' को छीन लेगी। यही भय है।
इस सबको इकट्ठा किया जाता है, भय से बचने, सुरक्षा पाने को और होता उलटा है- इसे खोने की आशंका ही भय बन जाती है। मनुष्य साधारणत: जो भी करता है, वह सब जिसके लिए किया जाता है, उसके विपरीत चलता है।
आज्ञान से आनंद के लिए उठाये गये सब कदम दुख में ले जाते हैं। अभय के लिए चला गया रास्त और भय में ले जाता है। जो 'स्व' की प्राप्ति मालूम होती है, वह 'स्व' नहीं है। यदि इस सत्य के प्रति जागना हो जाये- यदि मैं यह जान सकूं कि जिसे मैंने 'मैं' जाना है, वह 'मैं' नहीं हूं और इस क्षण भी मेरे तादात्म्य से मैं भिन्न और पृथक हूं, तो भय विसर्जित हो जाता है। मृत्यु में जो 'पर' है, वही खोता है।
इस सत्य को जानने के लिए कोई क्रिया, कोई उपाय नहीं करना है। केवल उन-उन तथ्यों को जानना है, उन-उन तथ्यों के प्रति जागना है, जिन्हें मैं समझता हूं कि 'मैं' हूं- जिनसे मेरा तादात्म्य है। जागरण तादात्म्य तोड़ देता है। जागरण 'स्व' और 'पर' को पृथक कर देता है। 'स्व' और 'पर' का तादात्म्य भय है और उनका पृथक बोध भय-मुक्ति है-अभय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

विजय पथ

मैंने कल कहा है : मिट्टी फूल बन जाती है। और गंदगी खाद बनकर सुगंध में परिणत हो जाती है। ऐसे ही मनुष्य के विकार हैं। जो मनुष्य में पशु जैसे दिखते हैं। वही दिशा परिवर्तित होने पर दिव्यता को उपलब्ध हो जाते हैं।
इसलिए अदिव्य भी बीजरूप में दिव्य हैं और तब वस्तुत: अदिव्य कुछ भी नहीं हैं। समस्त जीवन दिव्यता है। सब कुछ दिव्य है। भेद केवल उस दिव्यता की अभिव्यक्ति का है।
और ऐसा देखने पर कुछ भी घृणा करने योग्य नहीं रह जाता है। जो एक छोर पर पशु है, वही दूसरे छोर पर प्रभु है। पशुता और दिव्यता में विरोध नहीं, विकास है। ऐसी पृष्ठभूमि में चलने पर आत्म-दमन और उत्पीड़न व्यर्थ है। यह संघर्ष अवैज्ञानिक है। अपने को दो में तोड़कर कोई भी आत्म-शांति और ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता है।
जो मैं ही हूं, उसके एक अंश को नष्ट किया जा सकता है। वह दब सकता है, लेकिन जिसका दमन किया गया है, उसका निरंतर दमन करना होता है। जो हारा गया है, उसे निरंतर हारना होता है। विजय उस मार्ग से कभी पूर्ण नहीं हो पाती है।
विजय का पथ दूसरा है। वह दमन का नहीं, ज्ञान का है। वह गंदगी को हटाने का नहीं है, क्योंकि वह गंदगी भी मैं ही हूं। वह उसे खाद बनाने का है। इसे ही पुरानी अलकेमी में 'लोहे को स्वर्ण बनाना' कहा गया है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मृत्यु और जीवन

भोर का आखिरी तारा डूब रहा है। कुहासे में ढंकी सुबह का जन्म होने को है। पूरब पर प्रसव की लाली फैल गयी है।
मित्र ने अपने किसी प्रियजन की मृत्यु की खबर दी है। रात्रि ही देह से उनका संबंध टूटा है। फिर थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वे मृत्यु पर बात करने लगे हैं। बहुत सी बातें और अंत में उन्होंने पूछा : 'रोज मृत्यु होती है, फिर भी प्रत्येक ऐसे जीता है कि जैसे उसे मरना नहीं है! यह समझ में ही नहीं आता है कि मैं भी मर सकता हूं। इतनी मृत्यु के बीच, यह अमृत्व का विश्वास क्यों?'
यह विश्वास बहुत अर्थपूर्ण है। यह इसलिए है कि म‌र्त्य देह में जो बैठा है, वह म‌र्त्य नहीं है। मृत्यु की परिधि है, पर केंद्र पर मृत्यु नहीं है।
वह जो देख रहा है- देह-मन का दृष्टा है- वह जानता है कि मैं देह और मन से पृथक हूं। वह म‌र्त्य का दृष्टा, म‌र्त्य नहीं है। वह जान रहा है : सब मृत्युओं को पार करके भी मैं अमृत शेष रह जाता हूं।'
पर यह बोध अचेतन है, इसे चेतन बना लेना ही मुक्त हो जाना है। मृत्यु प्रत्यक्ष दीखती है, अमृत का बोध परोक्ष है- उसे भी जो प्रत्यक्ष बना लेता है, वह जान लेता है उसे- जिसका न जन्म है, न मृत्यु है।
वह जीवन-जो जीवन और मृत्यु के अतीत है- पा लेना ही मोक्ष है। वह प्रत्येक के भीतर है, उसे केवल जानना भर है।
एक साधु से किसी ने पूछा था, 'मृत्यु क्या है और जीवन क्या है? यह जानने मैं आपके पास आया हूं।' उस साधु ने प्रत्युत्तर में जो कहा, वह अद्भुत है। उसने कहा था, 'तब कहीं और जाओ। मैं जहां हूं, वहां न मृत्यु है, न जीवन है।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

चेतना को पहचानों

एक झोंपड़े में बैठा हूं। छप्पर की रंध्रों से सूरज का प्रकाश गोल चकतों में फर्श पर पड़ रहा है। उनमें उड़ते धूलिकण दिख रहे हैं। प्रकाश के वे अंग नहीं हैं, पर उन्होंने प्रकाश को धूमिल कर दिया है। वे प्रकाश को छू भी नहीं सकते हैं, क्योंकि वे अत्यन्त भिन्न और विजातीय हैं। फिर भी प्रकाश उनके कारण मैला हो गया दिखता है। प्रकाश तो अब भी प्रकाश है। उसके स्वरूप में कोई भेद नहीं पड़ा है। पर उसकी देह- उसकी अभिव्यक्ति अशुद्ध हो गई है। इन विजातीय अतिथियों के कारण आतिथेय बदला हुआ दिख रहा है।
ऐसे ही मनुष्य की आत्मा के साथ भी हुआ है। उसमें भी बहुत से विजातीय धूलिकण अतिथि बन गये हैं और इन धूलिकणों में उसका जो स्वरूप है, वह छिप गया है। आतिथेय जैसे बहुत अतिथियों में खो जाये और पहचाना न जा सके, ऐसा ही हो गया है।
पर जो जीवन से परिचित होना चाहते हैं और सत्य का साक्षात करना चाहते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि वे अतिथियों की भीड़ में उसे पहचाने जो कि अतिथि नहीं है और गृहपति है। इस गृहपति के जाने बिना जीवन एक निद्रा है। उसकी पहचान से ही जागरण का प्रारंभ होता है।
वह पहचान ही ज्ञान है। उस पहचान से उससे परिचय होता है, जो कि नित्य शुद्ध-बुद्ध है।
धूलिकणों से प्रकाश अशुद्ध नहीं होता है, न ही आत्मा होती है।
प्रकाश धूमिल हो जाता है, आत्मा विस्मृत हो जाती है।
आत्मा के प्रकाश पर कौन सी धूल है?
वह सब जो भी मुझ में बाहर से आया है- वह सब धूल है। उसके अतिरिक्त जो मुझ में है, वही मेरा स्वरूप है। इंद्रियों से जो भी उपलब्ध और संग्रहीत हुआ है, वह सब धूल है।
ऐसा क्या है मुझमें, जो इंद्रियों से उपलब्ध नहीं है? रूप, रस, गंध, ध्वनि-इसके अतिरिक्त और मुझ में क्या है?
वह सत्य है : चेतना-जो कि इंद्रियों से गृहीत नहीं है।
वह इंद्रियों से नहीं आयी है- वरन उनके पीछे है।
यह चेतना ही मेरा स्वरूप है, शेष सब विजातीय धूल है। वही गृहपति है, शेष सब अतिथि हैं। इस चेतना को ही जानना और उघाड़ना है। उसमें ही उस संपदा की उपलब्धि होती है, जो कि अविनश्वर है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

भागवत-चैतन्य का विज्ञान है, धर्म

रात्रि की शांति में नगर सो गया है। एक अतिथि को साथ लेकर मैं घूम कर लौटा हूं। मार्ग में बहुत बातें हुई हैं। अतिथि अनात्मवादी हैं। विद्वान हैं और खूब पढ़ा-लिखा है। बहुत तर्क उन्होंने इकटं्ठे किये हैं। मैंने वह सब शांत हो सुना है। और फिर सिर्फ एक ही बात पूछी है कि क्या इन सारे विचारों से शांति और आनंद उन्हें उपलब्ध हो रहा है?
इस पर वे थोड़ा सकुचा गये हैं और उत्तर नहीं खोज पाए हैं।
सत्य की कसौटी तर्क नहीं है। सत्य की कसौटी विचार नहीं है। सत्य की कसौटी है आनंदानुभूति। विचार-सारणी सम्यक हो, तो परिणाम में जीवन आनंद-चेतना से भर जाता है। इस स्थिति को ही पाने के लिए सब विचार हैं और जो विचार-दर्शन यहां नहीं ले आता, वह अविचार ही ज्यादा है। इससे, मैंने उनसे कहा, 'मैं आपकी बातों का विरोध नहीं करता हूं। बस, आपसे ही- अपने आपसे यह प्रश्न पूछने की विनय करता हूं।'
धर्म विचार नहीं है। वह तो भागवत-चैतन्य उपलब्ध करने का एक विज्ञान मात्र है। उसकी परीक्षा विवाद में नहीं, प्रयोग में है। वह सत्य-निर्णय नहीं, सत्य-साधना और सिद्धि है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मैं का बोद्ध


धूप में घूम कर लौटा हूं। सर्दियों की कुननी धूप कितनी सुखद मालूम होती है। सूरज निकला ही है और किरणों की गरमाहट आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही है।
एक व्यक्ति साथ थे। मैं राह भर चुप रहा, पर वे बोलते ही रहे। सुनता था, तो एक बात ध्यान में आयी कि हम कितनी बार 'मैं' का प्रयोग करते हैं। इस 'मैं' के केंद्र से ही सब जुड़ा रहता है। जन्म के बाद संभवत: 'मैं' का बोध सबसे पहले उठता है और मृत्यु के समय सबसे अंत में यह जाता है। इन दो छोरों के बीच में भी उसका ही विस्तार होता है।
इतना सुपरिचित यह 'मैं' है, पर कितना अज्ञात भी है! इससे अधिक रहस्यमय शब्द मानवीय भाषा में दूसरा नहीं है।
जीवन बीत जाता है, पर 'मैं' का रहस्य शायद उघड़ पाता हो!
यह 'मैं' कौन है? इसे अस्वीकार करना भी संभव नहीं है। निषेध में भी यह प्रस्तावित हो जाता है। 'मैं नहीं हूं' कहने में भी वह उपस्थित हो जाता है। मानवीय बोध में यह 'मैं' सबसे सुनिश्चित और अंसदिग्ध तत्व है।
'मैं हूं'- यह बोध तो है, पर 'मैं कौन हूं?'- यह सहज ज्ञान नहीं है। इसे जानना साधना से ही सुलभ है। समस्त साधना 'मैं' को जानने की साधना है। समस्त धर्म, समस्त दर्शन इस एक प्रश्न के ही उत्तर हैं।
'मैं कौन हूं?' इसे प्रत्येक को अपने से पूछना है। सब छूट जाए और एक प्रश्न ही रह जाये। सारे मन पर गूंजती यह एक जिज्ञासा रह जाये। तो ऐसा यह प्रश्न अचेतन में उतर जाता है। प्रश्न जैस-जैसे गहरा होने लगता है, वैसे-वैसे सतही तादात्म्य टूटने लगते हैं। दिखने लगता है कि मैं शरीर नहीं हूं। दिखने लगता है कि मैं मन नहीं हूं। दिखने लगता है कि मैं तो वह हूं, जो सबको देख रहा है। द्रष्टा हूं मैं, साक्षी हूं मैं। यह अनुभूति 'मैं' के वास्तविक स्वरूप का दर्शन बन जाती है। शुद्ध-बुद्ध, द्रष्टा-चेतना का साक्षात हो जाता है।
इस सत-ज्ञान के उदय से जीवन के रहस्य का द्वार खुलता है। अपने से परिचित होकर हम जगत के समस्त रहस्य से परिचित हो जाते हैं। 'मैं' का ज्ञान ही प्रभु का ज्ञान बन जाता है। इसलिए कहता हूं कि यह 'मैं' बहुमूल्य है। इसकी परिपूर्ण गहराई में उतर जाना, सब-कुछ पा लेना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

शून्य ही हमारा स्वरूप है

संध्या रुकी सी लगती है। पश्चिमोन्मुख सूरज देर हुए बादलों में छुप गया है, पर रात्रि अभी नहीं हुई है। एकांत है- बाहर भी, भीतर भी। अकेला हूं- कोई बाहर नहीं है, कोई भीतर नहीं है।मैं इस समय कहीं भी नहीं हूं या कि वहां हूं, जहां शून्य है। और जब मन शून्य होता है, तो होता ही नहीं है।यह मन अद्भुत है। प्याज की गांठ की तरह अनुभव होता है। एक दिन प्याज को देख कर यह स्मरण आया था। उसे छीलता था, छीलता गया-परतो पर परतें निकलती गयीं और फिर हाथ कुछ भी न बचा। मोटी खुदरी परतें, फिर मुलायम चिकनी परतें और फिर कुछ भी नहीं। मन भी ऐसा ही है : उघाड़ते चलें-स्थूल परतें, फिर सूक्ष्म परतें, फिर शून्य। विचार, वासनाएं और अहंकार और बस, फिर कुछ भी नहीं है, फिर शून्य है। इस शून्य को उघाड़ लेने को ही मैं ध्यान कहता हूं।यह शून्य ही हमारा स्वरूप है। वह जो अंतत: शेष बचा रहता है, वही स्वरूप है। उसे आत्मा कहें, चाहे अनात्मा। शब्द से कुछ अर्थ नहीं है। विचार, वासना, अहंकार जहां नहीं है, वहीं वह है-'जो है।'ह्यूम ने कहा : जब भी मैं अपने में जाता हूं, कोई 'मैं' मुझे वहां नहीं मिलता है, 'या तो विचार से टकराता हूं, या किसी वासना से या किसी स्मृति से। पर स्वयं से कोई मिलना नहीं होता है।' यह बात ठीक ही है। पर ह्यूम परतों ही से लौट आते हैं। यही उनकी भूल है। वे थोड़ा और गहरे जाते, तो वहां पहुंच जाते जहां कि टकराने को कुछ भी नहीं है। वही है स्वरूप। जहां टकराने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता है, वहां वह है, जो मैं हूं। उस शून्य पर ही सब खड़ा है, पर यदि कोई सतह से ही लौट आये, तो उससे परिचय नहीं हो पाता है। सतह पर संसार है, केंद्र में स्व है। सतह पर सब है, केंद्र पर शून्य है।(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)