कल दोपहर एक पहाड़ी के आंचल में था। धूप-छाया के विस्तार में बड़ी सुखद घडि़यां बीतीं। निकट ही था, एक तालाब और हवा के तेज थपेड़ों ने उसे बेचैन कर रखा था। लहरें उठती-गिरतीं और टूटती उसका सब कुछ विक्षुब्ध था।
फिर हवाएं सो गयीं और तालाब भी सो गया।
मैंने कहा, 'देखो, जो बेचैन होता है, वह शांत भी हो सकता है। बेचैनी अपने में शांति छपाए हुए है। तालाब अब शांत है, तब भी शांत था। लहरें ऊपर ही थीं, भीतर पहले भी शांति थी।'
मनुष्य भी ऊपर ही अशांत है। लहरें ऊपर ही हैं, भीतर गहराई में घना मौन है। विचारों की हवाओं से दूर चलें और शांत सरोवर के दर्शन हो जाते हैं। यह सरोवर 'अभी और यहीं' पाया जा सकता है। समय का प्रश्न नहीं है, क्योंकि समय वहीं तक है, जहां तक विचार हैं। ध्यान समय के बाहर है। ईशा ने कहा, 'और वह समय नहीं है। .....'
समय में दुख है। समय दुख है। समयातीत होना आनंद
में होना है।
चलो मित्र, समय के बाहर चलें- वहीं हम हैं। समय के भीतर जो दिखता है, वह समय के बाहर ही है। इतना जानना ही चलना है। जाना कि हवाएं रुक जाती हैं और सरोवर शांत हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
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