प्रतिबद्धता का भय- अंतिम



संबंधों में शांति पूर्वक रहना बहुत कठिन है। लेकिन वही चुनौती है। यदि तुम उससे बचते हो तो तुम परिपक्वता से वंचित रह जाओगे। यदि तुम समूची पीड़ा के साथ उसमें उतरोगे, और फिर भी उसमें जाते रहोगे तो धीरे-धीरे वह पीड़ा एक आशीष बन जाती है, अभिशाप वरदान बन जाता है। धीरे-धीरे संघर्ष के द्वारा, घर्षण के द्वारा केंद्रीकरण होता है।उस संघ के द्वारा तुम अधिक सजग, अधिक सावचेत हो जाते हो।दूसरा व्यक्ति तुम्हारे लिए आईना बन जाता है। तुम अपनी कुरूपता दूसरे में प्रतिफलित हुाई देख सकते हो। दूसरा तुम्हारे अचेतन को उकसाता है, उसे सतह पर लाता है। तुम्हें अपने अंतरतम के सभी छुपे हुए हिस्सों को जानना होगा, और उसका सबसे आसान तरीका है प्रतिफलित होना, संबंध के दर्पण में झांकना। मैं इसे सरल कहता हूं क्योंकि इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है लेकिन है यह बहुत दूभर, कठिन क्योंकि इसके द्वारा खुद को बदलना होगा।

जब तुम सद्गुरु के पास आते हो तब तो इससे भी बड़ी चुनौती खड़ी होती है, तुम्हें निर्णय लेना होता है; और निर्णय अज्ञात के पक्ष में लेना होता है और निर्णय समग्र और अंतिम होता है, अपरिवर्तनीय होता है। यह बच्चों का खेल नहीं है, यह वापिस न लौटने का बिंदु है।इतना संघर्ष होता है। लेकिन लगातार बदलते मत रहो क्योंकि यह खुद से बचने का उपाय है। और तुम कोमल रहोगे, तुम बचकाने रहोगे, परिपक्व नहीं होओगे। केवल अज्ञात ही तुम्हें आकर्षित करे क्योंकि उसे तुमने अभी तक जीया नहीं हैउस क्षेत्र में तुम गए नहीं हो। वहां जाओ! वहां कुछ नया घट सकता है। हमेशा नए के हक में निर्णय लो-- चाहे जो भी जोखिम हो, और तुम सतत विकसित होओगे। और ज्ञात के पक्ष में निर्णय लो तो तुम अतीत के साथ एक वर्तुल में घूमते रहोगे। तुम दोहराते रहोगे, तुम एक ग्रामोफोन रिकार्ड बन गए हो।
और निर्णय लो। जितने जल्दी निर्णय ले सको उतना अच्छा। स्थगित करना बिलकुल मूढ़ता है। कल भी तुम्हें निर्णय लेना ही होगा, तो आज ही क्यों नहीं? और क्या तुम ऐसा सोचते हो कि कल तुम आज से ज्यादा समझदार होओगे?क्या तुम सोचते हो कि कल तुम आज से ज्यादा जीवंत होओगे? क्या तुम सोचते हो कि कल तुम आज से अधिक जवान और ताज़ा होओगे? कल तुम ज्यादा बूढ़े हो ओगे, तुम्हारा साहस कम होगा, तुम अधिक अनुभवी हो ओगे, तुम्हारी चालाकी अधिक होगी। कल मौत अधिक पास आएगी, तुम कंपना शुरू करोगे और भयभीत होओगे।
कल के लिए कभ स्थगित मत करना। किसे पता, कल आए न आए! अगर निर्णय लेना ही है तो अभी लेना होगा।

(सौजन्‍य से: ओशो इंटरनेश्‍नल न्‍यूज लेटर)


प्रतिबद्धता का भय



केवल निर्णय लेने से ही तुम अधिक से अधिक सजग हो सकते हो, केवल निर्णय लेने से ही तुम अधिक से अधिक स्पष्ट हो सकते है, केवल निर्णय लेने से ही तुम तीक्ष्ण बुद्धि के बन सकते हो, अन्यथा तुम सुस्त रह जाओगे|
लोग एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जाते है, एक सतगुरु से दूसरे सतगुरु के पास जाते है, एक मंदिर से दूसरे में, इसलिए नहीं कि वे एक महान खोजी है, पर इसलिए कि वे निर्णय लेने में असमर्थ होते है| इसलिए वे एक को छोड़ कर दूसरे की ओर जाते है| यह उनका प्रतिबद्धता से बचने का मार्ग है|

कुछ ऐसा ही अन्य मानवीय संबंधों में भी होता है : पुरुष एक स्त्री से दूसरी स्त्री की ओर जाता है, और बदलता ही चला जाता है| लोग समझते है कि वह एक महान प्रेमी है; लेकिन वह कोई प्रेमी नहीं है, वह केवल बच रहा है, वह किन्हीं गहरे संबंधों से बचने की कोशिश कर रहा है| क्योंकि गहरे संबंधों में समस्याओं का सामना करना पड़ता है| और इसमें बहुत पीड़ा से गुज़रना पड़ता है| इसलिए व्यक्ति केवल सुरक्षित रहना चाहता है; लोग कोशिश करते हैं कि किसी के भीतर गहरे न उतरें। अगर तुम ज्यादा गहरे गए तो हो सकता है तुम आसानी से वापिस न आओ। और तुम किसी के भीतर गहरे उतरो तो कोई और भी तुम्हारे भीतर गहरे उतरेगा–– उसी अनुपात में। अगर मैं तुम्हारे भीतर गहरे जाऊं तो इसका रास्ता यही है कि मैं भी तुम्हें अपने भीतर गहरे प्रवेश करने दूं। यह लेन-देन है, साझेदारी है। फिर हो सकता है व्यक्ति अत्यधिक उलझ जाए, और भागना मुश्किल हो जाए और असहनीय पीड़ा हो। इसलिए लोग सुरक्षित रहना पसंद करते हैं कि सिर्फ सतहों को मिलने दो। छिछले प्रेम संबंध! इससे पहले कि तुम फंसो, भाग खड़े होओ।
आधुनिक जीवन में ऐसा ही हो रहा है। लोग बचकाने हो गए हैं, इतने बचकाने कि उनकी सारी परिपक्वता खो गई है। परिपक्वता तभी आती है जब तुम आंतरिक पीड़ा से गुज़रने के लिए तैयार होते हो। प्रौढ़ता तभी आती है जब तुम यह चुनौती स्वीकारने के लिए तैयार होते हो। और प्रेम से बढ़कर कोई चुनौती नहीं है।  दूसरे व्यक्ति के साथ प्रसन्नता पूर्वक रहना दुनिया में से बड़ी से बड़ी चुनौती है । अकेले शांति पूर्वक जीना बहुत आसान है, किसी दूसरे के साथ शांति पूर्वक जीना महा कठिन है क्योंकि दो संसार टकराते हैं, दो दुनियाएं मिलती हैं–– सर्वथा भिन्न दुनियाएं। वे एक दूसरे से आकर्षित कैसे होते हैं? क्योंकि वे एक  दूसरे से बिलकुल अलग हैं, लगभग विपरीत धृव हैं।

जारी----
(सौजन्‍य से: ओशो इंटरनेश्‍नल न्‍यूज लेटर)