'मैं' का बंधन!


'मैं' को भूल जाना और 'मैं' से ऊपर उठ जाना सबसे बड़ी कला है। उसके अतिक्रमण से ही मनुष्य मनुष्यता को पार कर द्वियता से संबंधित हो जाता है। जो 'मैं' से घिरे रहते हैं, वे भगवान को नहीं जान पाते। उस घेरे के अतिरिक्त मनुष्यता और भगवत्ता के बीच और कोई बाधा नहीं है।
च्वांग-त्सु किसी बढ़ई की एक कथा कहता था। वह बढ़ई अलौकिक रूप से कुशल था। उसके द्वारा निर्मित वस्तुएं इतनी सुंदर होती थीं कि लोग कहते थे कि जैसे उन्हें किसी मनुष्य ने नहीं, वरन देवताओं ने बनाया हो। किसी राज ने उस बढ़ई से पूछा, ''तुम्हारी कला में यह क्या माया है?'' वह बढ़ई बोला, ''कोई माया-वाया नहीं है, महाराज! बहुत छोटी सी बात है। वह यही है कि जो भी मैं बनाता हूं, उसे बनाते समय अपने 'मैं' को मिटा देता हूं। सबसे पहले मैं अपनी प्राण-शक्ति के अपव्यय को रोकता हूं और चित्त को पूर्णत: शांत बनाता हूं। तीन दिन इस स्थिति में रहने पर, उस वस्तु से होने वाले मुनाफे, कमाई आदि की बात मुझे भूल जाती है। फिर, पांच दिनों बाद उससे मिलने वाले यश का भी ख्याल नहीं रहता। सात दिन और, और मुझे अपनी काया का विस्मरण हो जाता है- सभी बाह्य-अंतर विघ्न और विकल्प तिरोहित हो जाते हैं। फिर, जो मैं बनाता हूं, उससे परे और कुछ भी नहीं रहता। 'मैं' भी नहीं रहता हूं। और, इसलिए वे कृतियां दिव्य प्रतीत होने लगती हैं।''
जीवन में दिव्यता को उतारने का रहस्य सूत्र यही है। मैं को विसर्जित कर दो- और चित्त को किसी सृजन में तल्लीन। अपनी सृष्टिं में ऐसे मिट जाओ और एक हो जाओ जैसे कि परमात्मा उसकी सृष्टिं में हो गया है।
कल कोई पूछता था, ''मैं क्या करूं?'' मैंने कहा, ''क्या करते हो, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि कैसे करते हो! स्वयं को खोकर कुछ करो, तो उससे ही स्वयं को पाने का मार्ग मिल जाता है।''
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)