न सुख, न दुख, केवल समभाव

फूल आते हैं, चले जाते हैं। कांटे आते हैं, चले जाते हैं। सुख आते हैं, चले जाते हैं। दुख आते हैं, चले जाते हैं। जो जगत के इस 'चले जाने' के शाश्वत नियम को जान लेता है, उसका जीवन क्रमश: बंधनों से मुक्त होने लगता है।
एक अंधकारपूर्ण रात्रि में कोई व्यक्ति नदी तट से कूदकर आत्महत्या करने का विचार कर रहा था। वर्षा के दिन थे और नदी पूर्ण पर थी। आकाश में बादल घिरे थे और बीच-बीच में बिजली चमक रही थी। वह व्यक्ति उस देश का बहुत धनी व्यक्ति था, लेकिन अचानक घाटा लगा और उसकी सारी संपत्ति चली गई। उसका भाग्य-सूर्य डूब गया था और उसके समक्ष अंधकार के अतिरिक्त और कोई भविष्य नहीं था। ऐसी स्थिति में उसने स्वयं को समाप्त करने का विचार कर लिया था। किंतु, वह नदी में कूदने के लिए जैसे ही चट्टान के किनारे पर पहुंचने को हुआ कि किन्हीं दो वृद्ध, लेकिन मजबूत हाथों ने उसे रोक लिया। तभी बिजली चमकी और उसने देखा कि एक वृद्ध साधु उसे पकड़े हुए है। उस वृद्ध ने उससे इस निराशा का कारण पूछा और सारी कथा सुनकर वह हंसने लगा और बोला, ''तो तुम यह स्वीकार करते हो कि पहले तुम सुखी थे?'' वह बोला, ''हां, मेरा भाग्य-सूर्य पूरे प्रकाश से चमक रहा था और अब सिवाय अंधकार के मेरे जीवन में और कुछ भी शेष नहीं है।'' वह वृद्ध फिर हंसने लगा और बोला, ''दिन के बाद रात्रि है और रात्रि के बाद दिन। जब दिन नहीं टिकता, तो रात्रि भी कैसे टिकेगी? परिवर्तन प्रकृति का नियम है। ठीक से सुन लो- जब अच्छे दिन नहीं रहे, तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे। और जो व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है, वह सुख में सुखी नहीं होता और दुख में दुखी नहीं। उसका जीवन उस अडिग चट्टान की भांति हो जाता है, जो वर्षा और धूप में समान ही बनी रहती है।''
सुख और दुख को जो समभाव से ले, समझना कि उसने स्वयं को जान लिया। क्योंकि, स्वयं की पृथकता का बोध ही समभाव को जन्म देता है। सुख-दुख आते और जाते हैं, जो न आता है और न जाता है, वह है, स्वयं का अस्तित्व, इस अस्तित्व में ठहर जाना ही समत्व है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रेम अनुभूति है !




प्रेम को पाओ। उससे ऊपर और कुछ भी नहीं है। तिरुवल्लुवर ने कहा है, 'प्रेम जीवन का प्राण है। जिसमें प्रेम नहीं, वह सिर्फ मांस से घिरी हुई हड्डियों का ढेर है।'
प्रेम क्या है? कल कोई पूछता था। मैंने कहा, ''प्रेम जो कुछ भी हो, उसे शब्दों में कहने का उपाय नहीं, क्योंकि वह कोई विचार नहीं है। प्रेम तो अनुभूति है। उसमें डूबा जा सकता है, लेकिन उसे जाना नहीं जा सकता। प्रेम पर विचार मत करो। विचार को छोड़ो और फिर जगत को देखो। उस शांति में जो अनुभव में आएगा, वही प्रेम है।''
और, फिर मैंने एक कहानी भी कही। किसी बाउल फकीर से एक पंडित ने पूछा, ''क्या आपको शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम के विभिन्न रूपों का ज्ञान है?'' वह फकीर बोला, ''मुझ जैसा अज्ञानी शास्त्रों की बात क्या जानें?'' इसे सुनकर उस पंडित ने शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम की विस्तृत चर्चा की और फिर उस फकीर का तत्संबंध में मंतव्य जानना चाहा। वह फकीर खूब हंसने लगा और बोला, ''आपकी बातें सुनकर मुझे लगता था कि जैसे कोई सुनार फूलों की बगिया में घुस आया है और वह स्वर्ण को परखने वाले पत्थर पर फूलों को घिस-घिसकर उनका सौंदर्य परख रहा है!''
प्रेम को विचारों मत- जीओ। लेकिन, स्मरण रहे कि उसे जीने में स्वयं को खोना पड़ता है। अहंकार अप्रेम है और जो जितना अहंकार को छोड़ देता है, वह उतना ही प्रेम से भर जाता है। ऐसा प्रेम ही परमात्मा के द्वार की सीढ़ी है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

आलोचना रुग्ण मानसिकता!


जो जीवन में कुछ भी नहीं कर पाते, वे अक्सर आलोचक बन जाते हैं। जीवन-पथ पर चलने में जो असमर्थ हैं, वे राह के किनारे खड़े हो, दूसरों पर पत्थर ही फेंकने लगते हैं। यह चित्त की बहुत रुग्ण दशा है। जब किसी की निंदा का विचार मन में उठे, तो जानना कि तुम भी उसी ज्वर से ग्रस्त हो रहे हो! स्वस्थ व्यक्ति कभी किसी की निंदा में संलग्न नहीं होता। और, जब दूसरे उसकी निंदा करते हों, तो उन पर दया ही अनुभव करता है। शरीर से बीमार ही नहीं, मन से बीमार भी दया का पात्र है।
नार्मन विन्सेंट पील ने कहीं लिखा है, ''मेरे एक मित्र हैं, सुविख्यात समाजसेवी। कई बार उनकी बहुत निंदनीय आलोचनाएं होती हैं, लेकिन उन्हें कभी किसी ने विचलित नहीं होते देखा है। जब मैंने उनसे इसका रहस्य पूछा, तो वे मुझसे बोले, 'जरा अपनी एक अंगुली मुझे दिखाइए।' मैंने चकित भाव से अंगुली दिखाई। तब वे कहने लगे, ''देखते हैं! आपकी एक अंगुली मेरी ओर है, तो शेष तीन अंगुलियां आपकी अपनी ही ओर हैं। वस्तुत:, जब कोई किसी की ओर अंगुली उठाता है, तो उसके बिना जाने उसकी ही तीन अंगुलियां स्वयं उसकी ही ओर उठ जाती हैं। अत: जब कोई मेरी ओर दुर्लक्ष्य करता है, तो मेरा हृदय उसके प्रति दया से भर जाता है, क्योंकि, वह मुझसे कहीं बहुत अधिक अपने आप पर प्रहार करता है।''
जब कोई तुम्हारी आलोचना करे, तो अफलातूं का एक अमृत वचन जरूर याद कर लेना। उसने यह सुनकर कि कुछ लोग उसे बहुत बुरा आदमी बताते हैं, कहा था, ''मैं इस भांति जीने का ध्यान रखूंगा कि उनके कहने पर कोई विश्वास ही नहीं लाएगा।''
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आकांक्षाएं ही दुख का कारण!


इच्छाएं दरिद्र बनाती हैं। उनसे ही याचना और दासता पैदा होती है। फिर, उनका कोई अंत भी नहीं है। जितना उन्हें छोड़ो, उतना ही व्यक्ति स्वतंत्र और समृद्ध होता है। जो कुछ भी नहीं चाहता है, उसकी स्वतंत्रता अनंत हो जाती है।
एक संन्यासी के पास कुछ रुपए थे। उसने कहा कि वह उन्हें किसी गरीब आदमी को देना चाहता है। बहुत से गरीब लोगों ने उसे घेर लिया और उससे रुपयों की याचना की। उसने कहा, ''मैं अभी देता हूं- मैं अभी उसे रुपये दिए देता हूं, जो कि इस जगत में सबसे ज्यादा गरीब और भूखा है!'' यह कहकर संन्यासी भीतर गया। तभी, लोगों ने देखा कि राजा की सवारी आ रही है। वे उसे देखने में लग गए। इसी बीच संन्यासी बाहर आया और उसने रुपये हाथी पर बैठे राजा के पास फेंक दिए। राजा ने चकित हो, इसका कारण पूछा। फिर लोगों ने भी कहा कि आप तो कहते थे कि मैं रुपये सर्वाधिक दरिद्र को दूंगा! संन्यासी ने हंसते हुए कहा, ''मैंने उन्हें दरिद्रतम् व्यक्ति को ही दिए हैं। वह जो धन की भूख में सबसे आगे है, क्या वह सर्वाधिक गरीब नहीं है?''
दुख क्या है? कुछ पाने की और कुछ होने की आकांक्षा ही दुख है। दुख कोई नहीं चाहता, लेकिन आकांक्षाएं हों, तो दुख बना ही रहेगा। किंतु, जो आकांक्षाओं के स्वरूप को समझ लेता है, वह दुख से नहीं, वह आकांक्षाओं से ही मुक्ति खोजता है। और, तब दुख के आगमन का द्वार अपने आप ही बंद हो जाता है।
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ध्यान- गैर-यांत्रिक होना ही रहस्य है!

अगर हम अपनी क्रियाओं को गैर-यांत्रिक ढंग से कर सकें तो हमारी पूरी जिंदगी ही एक ध्यान बन जाएगी। तब कोई भी छोटा-सा कृत्य जैसे स्नान करना, भोजन करना, मित्रों से बातचीत करना ध्यान बन जाएगा। ध्यान एक गुणवत्ता है, जो किसी भी चीज के साथ जोड़ी जा सकती है। यह कोई अलग से किया गया काम नहीं है। लोग सोचते हैं कि ध्यान भी एक कृत्य है- जब हम पूर्व दिशा में मुंह करके बैठते हैं, किसी मंत्र का जाप करते हैं, धूप-अगरबत्ती जलाते हैं, किसी विशेष समय पर, विशेष मुद्रा में, किसी विशेष ढंग से कुछ करते हैं।
ध्यान का इन बातों से कोई संबंध नहीं है। ये सब ध्यान को यांत्रिक बनाने के तरीके हैं और ध्यान यांत्रिकता के विरोध में है। तो अगर हम होश को संभाले रखें तो कोई भी कार्य ध्यान है, कोई भी क्रिया हमें बहुत सहयोग देगी।

साधारण चाय का आनंद
क्षण-क्षण जीएं। तीन सप्ताह के लिए कोशिश करें कि जो भी आप कर रहे हैं, उसे जितनी समग्रता से कर सकें, करें। उसे प्रेम से करें और उसका आनंद लें। हो सकता है, यह मूर्खतापूर्ण लगे। यदि आप चाय पी रहे हैं, तो उसमें इतना आनंद लेना मूर्खतापूर्ण लगता है कि यह तो साधारण सी चाय है। लेकिन साधारण सी चाय भी असाधारण रूप से सौंदर्यपूर्ण हो सकती है, यदि हम उसका आनंद लें सकें तो वह एक गहन अनुभूति बन सकती है। गहन समादर से उसका आनंद लें उसे एक ध्यान बना लें- चाय बनाना, केतली की आवाज सुनना, फिर चाय उड़ेलना, उसकी सुगंध लेना, चाय का स्वाद लेना और ताजगी अनुभव करना।
मुर्दे चाय नहीं पी सकते। केवल अति-जीवंत व्यक्ति ही चाय पी सकते हैं। इस क्षण हम जीवित हैं! इस क्षण हम चाय का आनंद ले रहे हैं। धन्यवाद से भर जाएं और भविष्य की मत सोचें; अगला क्षण अपनी फिक्र खुद कर लेगा। कल की चिंता न लें- तीन सप्ताह के लिए वर्तमान में जीएं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

अहम मात्र प्रवंचना है!


मैं जब मनुष्य को मरते देखता हूं, तो अनुभव होता है कि उसमें मैं ही मर गया हूं। निश्चय ही प्रत्येक मृत्यु मेरी ही मृत्यु की खबर है। और जो ऐसा नहीं देख पाते हैं, वे मुझे चक्षुहीन मालूम होते हैं। मैंने तो जगत की प्रत्येक घटना से शिक्षा पाई है। और, जितना ही उनमें गहरे देखने में मैं समर्थ हुआ, उतना ही वैराग्य सहज फलीभूत हुआ है। जगत में आंखें खुली हों, तो ज्ञान मिलता है। और, ज्ञान आए, तो वैराग्य आता है।
मैंने सुना है कि एक अत्यंत वृद्ध भिखारी किसी राह के किनारे बैठा भिक्षा मांगता था। उसके शरीर में लकवा लग गया था। उसके पास से निकलते लोग आंखें दूसरी ओर कर लेते थे। एक युवक रोज उस मार्ग से निकलता था और सोचता था कि इस जरा-जीर्ण मरणासन्न वृद्ध भिखारी को भी जीवन का मोह कैसा है? यह किस लिए भीख मांगता और जीना चाहता है? अंतत: एक दिन उसने उस वृद्ध से यह बात पूछ ही ली। उसके प्रश्न को सुन वह भिखारी हंसने लगा और बोला, ''बेटे! यह प्रश्न मेरे मन को भी सताया करता है। परमात्मा से पूछता हूं, तो भी कोई उत्तर नहीं आता है। फिर सोचता हूं कि शायद वह मुझे इसलिए जिलाए रखना चाहता है, ताकि दूसरे मनुष्य जान सकें कि मैं भी कभी उनके जैसा ही था और वे भी कभी मेरे ही जैसे हो सकते हैं! इस संसार में सौंदर्य का, स्वास्थ्य का, यौवन का सभी का अहम, एक प्रवंचना से ज्यादा नहीं है।''
शरीर एक बदला हुआ प्रवाह है और मन भी। उन्हें जो किनारे समझ लेते हें, वे डूब जाते हैं। न शरीर तट है, न मन तट है। उन दोनों के पीछे जो चैतन्य है, साक्षी है, द्रष्टा है, वह अपरिवर्तित, नित्य, बोध मात्र ही वास्तविक तट है। जो अपनी नौका को उस तट से बांधते हें, वे अमृत को उपलब्ध होते हैं।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन संगीत




एक युवक ने मुझ से पूछा, ''जीवन में बचाने जैसा क्या है?'' मैंने कहा, ''स्वयं की आत्मा और उसका संगीत। जो उसे बचा लेता है, वह सब बचा लेता है और जो उसे खोता है, वह सब खो देता है।''
एक वृद्ध संगीतज्ञ किसी वन से निकलता था। उसके पास बहुत सी स्वर्ण मुद्राएं थीं। मार्ग में कुछ डाकुओं ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसका सारा धन तो छीन ही लिया, साथ ही उसका वाद्य वायलिन भी। वायलिन पर उस संगीतज्ञ की कुशलता अप्रतिम थी। उस वाद्य का उस-सा अधिकारी और कोई न था। उस वृद्ध ने बड़ी विनय से वायलिन लौटा देने की प्रार्थना की। वे डाकू चकित हुए। वृद्ध अपनी संपत्ति न मांग कर अति साधारण मूल्य का वाद्य ही क्यों मांग रहा था? फिर, उन्होंने भी सोचा कि यह बाजा हमारे किस काम का और उसे वापस लौटा दिया। उसे पाकर वह संगीतज्ञ आनंद से नाचने गा और उसने वहीं बैठकर उसे बजाना प्रारंभ कर दिया। अमावस का रात्रि, निर्जन वन। उस अंधकार पूर्ण निस्तब्ध निशा में उसके वायलिन से उठे स्वर अलौकिक हो गूंजने लगे। शुरू में तो डाकू अनमने पन से सुनते रहे, फिर उनकी आंखों में भी नरमी आ गई। उनका चित्त भी संगीत की रसधार में बहने लगा। अंत में भव विभोर हो वे उस वृद्ध संगीतज्ञ के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने उसका सारा धन लौटा दया। यही नहीं, वे उसे और भी बहुत-सा धन भेंटकर वन के बाहर तक सुरक्षित पहुंचा गये थे।
ऐसी ही स्थिति में क्या प्रत्येक मनुष्य नहीं है? और क्या प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन ही लूटा नहीं जा रहा है? पर, कितने हैं, जो कि संपत्ति नहीं, स्वयं के संगीत को और उस संगीत-वाद्य को बचा लेने का विचार करते हैं?
सब छोड़ो और स्वयं के संगीत को बचाओ और उस वाद्य को जिससे कि जीवन संगीत पैदा होता है। जिन्हें थोड़ी भी समझ है, वे यही करते हैं और जो यह नहीं कर पाते हैं, उनके विश्व भर की संपत्ति को पा लेने का भी कोई मूल्य नहीं है। स्मरण रहे कि स्वयं के संगीत से बड़ी और कोई संपत्ति नहीं है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

पवित्रता की अनुभूति




प्रकाश को अंधकार का पता नहीं। प्रकाश तो सिर्फ प्रकाश को ही जानता है। जिनके हृदय प्रकाश और पवित्रता से आपूरित हो जाते हैं, उन्हें फिर कोई हृदय अंधकार पूर्ण और अपवित्र नहीं दिखाई पड़ता। जब तक हमें अपवित्रता दिखाई पड़े, जानना चाहिए कि उसके कुछ न कुछ अवशेष जरूर हमारे भीतर हैं। वह स्वयं के अपवित्र होने की सूचना ज्यादा और कुछ नहीं है।
सुबह की प्रार्थना के स्वर मंदिर में गूंज रहे थे। आचार्य रामानुज भी प्रभु की प्रार्थना में तल्लीन से दीखते मंदिर की परिक्रमा करते थे। और तभी अकस्मात एक चांडाल स्त्री उनके सम्मुख आ गई। उसे देख उनके पैर ठिठक गये, प्रार्थना की तथाकथित तल्लीनता खंडित हो गई और मुंह से अत्यंत कलुष शब्द फूट पड़े : ''चांडालिन मार्ग से हट, मेरे मार्ग को अपवित्र न कर।'' प्रार्थना करती उनकी आंखों में क्रोध आ गया और प्रभु की स्तुति में लगे होठों पर विष। किंतु वह चांडाल स्त्री हटी नहीं, अपितु हाथ जोड़कर पूछने लगी, ''स्वामी, मैं किस ओर सरकूं? प्रभु की पवित्रता तो चारों ओर ही है! मैं अपनी अपवित्रता किस ओर ले जाऊं?'' मानों कोई परदा रामानुज की आंखों के सामने से हट गया हो, ऐसे उन्होंने उस स्त्री की ओर देखा। उसके वे थोड़े से शब्द उनकी सारी कठोरता बहा ले गये। श्रद्धावनत उन्होंने कहा, ''मां, क्षमा करो। भीतर का मैल ही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। जो भीतर की पवित्रता से आंखों को जांच लेता है, उसे चहुं ओर पावनता ही दिखाई देती है।''
प्रभु को देखने का कोई और मार्ग मैं नहीं जानता हूं। एक ही मार्ग है और वह है - सब ओर पवित्रता का अनुभव होना। जो सब में पावन को देखने लगता है, वही और केवल वही प्रभु के की कुंजी उपलब्ध कर पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

संयम सत्य का द्वार


संयम क्या है? अस्पर्श-भाव संयम है। तटस्थ साक्षी-भाव संयम है। संसार में 'होना' और साथ ही 'नहीं-होना' संयम है।
एक बार कन्फ्यूशियस से येन-हुई ने पूछा, ''मैं मन पर संयम रखने के लिए क्या करूं?'' कन्फ्यूशियस ने कहा, ''तुम कानों से नहीं सुनते, मन से सुनते हो; मन से भी नहीं सुनते, अपनी आत्मा से सुनते हो। प्रयत्न करो कि केवल कानों से ही सुनोगे। मन को कानों की सहायता करने की जरूरत न पड़े। तब शून्यावस्था में आत्मा बाह्य प्रभावों को अक्रियाता से ही ग्रहण करेगी। ऐसी समाधि में ही संयम है। और ऐसी अवस्था में ही भगवान का निवास है।''
येन-हुई ने कहा, ''किंतु इस भांति तो मरा व्यक्तित्व ही खो जाएगा? क्या शून्यावस्था का यही अर्थ नहीं है?'' कन्फ्यूशियस बोला, ''हां, यही अर्थ है। सामने, उस झरोखे को देखते हो? इसके होने से यह कक्ष प्राकृतिक सौंदर्य से जगमगा उठा है। परंतु, प्राकृतिक दृश्य बाहर ही हैं। चाहो तो अपने कानों और अपनी आंखों का प्रयोग अपने अंतर को इसी भांति ज्योतित करने के लिए कर सकते हो। इंद्रियों को झरोखा बनाओ और स्वयं शून्य हो रहो। इस अवस्था को ही मैं संयम कहता हूं।''
मैं आंखों से देखता हूं, कानों से सुनता हूं, पैरों से चलता हूं- और फिर भी 'मैं' सबसे दूर हूं, वहां न देखना है, न सुनना है, न चलना है। इंद्रियों से जो भी आता हो, उससे अलिप्त और तटस्थ खड़े होना सीखो। इस भांति अस्पर्श में प्रतिष्ठित हो जाने का नाम संयम है। और, संयम सत्य का द्वार है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

आंखें खोलो !


धर्म एक है, सत्य एक है और जो उसे खण्डों में देखते हों, जानें कि जरूर उनकी आंखें ही खण्डित हैं।
एक सुनार था। वह राम का भक्त था। भक्ति उसकी ऐसी अंधी थी कि राम के अतिरिक्त उसका किसी और मूर्ति पर कोई आदर न था। वह कभी किसी और मूर्ति के दर्शन नहीं करता था। दूसरी मूर्तियों के सामने वह अपनी आंखें बंद कर लेता था! एक दिन देश के राजा ने कृष्ण की मूर्ति के लिए जड़ाऊ मुकुट बनाने की उसे आज्ञा दी। वह सुनार बहुत धर्म संकट में पड़ा। कृष्ण की मूर्ति के सिर का नाप वह कैसे ले? किसी भांति आंखों पर पट्टी बांधकर वह मूर्ति का नाप लेने गया। लेकिन, कृष्ण की मूर्ति का नाप लेते समय उसे ऐसा अनुभव हुआ कि वह अपनी जानी-पहचानी राम की मूर्ति को ही टटोल रहा है! उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा और उसने एक ही झटके में अपनी आंखों की पट्टी निकालकर फेंक दी। इस घटना में उसकी बाहर की ही नहीं, भीतर की पट्टी भी दूर फिंक गई।। उसकी आंखें पहली बार खुलीं और उसने देखा कि सभी रूप प्रभु के हैं, क्योंकि उसका तो कोई भी रूप नहीं है! जिसका कोई रूप हो, उसके सभी रूप नहीं हो सकते हैं। जिसका कोई रूप नहीं है, वही सभी रूपों में हो सकता है।
यह कहानी सत्य है या नहीं, मुझे ज्ञात नहीं। लेकिन, मंदिरों, मस्जिदों और गिरजों में जाते लोगों की आंखों पर मैं ऐसी ही पट्टियां बंधी रोज देखता हूं। मैं उनसे इस कहानी को कहता हूं। वे मुझसे पूछते हैं कि क्या यह कहानी सत्य है? मैं कहता हूं कि अपनी आंखों पर बंधी पट्टीयों को टटोलें, तो आधी कहानी तो सत्य मालूम होगी ही और यदि उन पट्टियों को निकाल भी फेंकें तो शेष आधी कहानी भी सत्य हो जाती है!
आंखें खोलो और देखो। अपने ही हाथों से हम सत्य की पूर्णता से स्वयं को वंचित किए बैठे हैं। सब धारणाएं और आग्रहों को छोड़कर जो देखता है, वह सब जगह एक ही सत्ता और एक ही परमात्मा का अनुभव करता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

अंतस में खोजो


आनंद चाहते हो? आलोक चाहते हो? तो सबसे पहले अंतस में खोजो। जो वहां खोजता है, उसे फिर और कहीं नहीं खोजना पड़ता है। और, जो वहां नहीं खोजता, वह खोजता ही रहता है, किंतु पता नहीं है।
एक भिखारी था। वह जीवन भर एक ही स्थान पर बैठ कर भीख मांगता रहा। धनवान बनने की उसकी बढ़ी प्रबल इच्छा थी। उसने बहुत भीख मांगी। पर, भीख मांग-मांग कर क्या कोई धनवान हुआ है? वह भिखारी था, सो भिखारी ही रहा। वह जिया भी भिखारी और मरा भी भिखारी। जब वह मरा तो उसके कफन के लायक भी पूरे पैसे उसके पास नहीं थे! उसके मर जाने पर उसका झोंपड़ा तोड़ दिया गया और वह जमीन साफ की गई। उस सफाई में ज्ञात हुआ कि वह जिस जगह बैठकर जीवन भर भीख मांगता रहा, उसके ठीक नीचे भारी खजाना गड़ा हुआ था।
मैं प्रत्येक से पूछना चाहता हूं कि क्या हम भी ऐसे ही भिखारी नहीं हैं? क्या प्रत्येक के भीतर ही वह खजाना नहीं छिपा हुआ है, जिसे कि हम जीवन भर बाहर खोजते रहते हैं!
इसके पूर्व कि शांति और संपदा की तलाश में तुम्हारी यात्रा प्रारंभ हो, सबसे पहले उस जगह को खोद लेना, जहां कि तुम खड़े हो। क्योंकि, बड़े से बड़े खोजियों और यात्रियों ने सारी दुनिया में भटक कर अंतत: खजाना वहीं पाया है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ध्यान- सृजन में डूब जाएं!


कला एक ध्यान है। कोई भी कार्य ध्यान बन सकता है, यदि हम उसमें डूब जाएं। तो एक तकनीशियन मात्र मत बने रहें। यदि आप केवल एक तकनीशियन हैं, तो पेंटिंग कभी ध्यान नहीं बन पाएगी। हमें पेंटिंग में पूरी तरह डूबना होगा, पागल की तरह उसमें खो जाना पड़ेगा। इतना खो जाना पड़ेगा कि हमें भी खबर न रह जाए कि हम कहां जा रहे हैं, कि हम क्या कर रहे हैं कि हम कौन हैं!
यह पूरी तरह खो जाने की स्थिति ही ध्यान होगी। इसे घटने दें। चित्र हम न बनाएं, बल्कि बनने दें। और, मतलब यह नहीं है कि हम आलसी हो जाएं। नहीं, फिर तो वह कभी नहीं बनेगा। यह हम पर उतरना चाहिए, हमें परी तरह सक्रिय होना है और फिर भी कर्ता नहीं बनना है। यह पूरी कीमिया है, यह पूरी कला है- हमें सक्रिय होना है, लेकिन फिर भी कर्ता नहीं बनना है।
कैनवास के पास जाएं। कुछ मिनटों के लिए ध्यान में उतर जाएं, कैनवास के सामने शांत हो कर बैठ जाएं। यह 'सहज लेखन' जैसा होना चाहिए, जिसमें पैन अपने हाथ में लेकर हम शांत बैठ जाते हैं और अचानक हाथ में एक स्पंदन सा महसूस होता है। हमने कुछ किया नहीं, हम भलीभांति जानते हैं। हम तो सिर्फ शांत-मौन प्रतीक्षा कर रहे थे। एक स्पंदन सा होता है और हाथ चलने लगता है, कुछ उतरने लगता है।
उसी तरह से हमें पेंटिंग शुरू करनी चाहिए। कुछ मिनटों के लिए ध्यान में डूब जाएं, सिर्फ उपलब्ध रहें- कि जो भी होगा, हम उसे होने देंगे। हम अपनी सारी प्रतिभा, सारी कुशलता का उपयोग, जो भी होगा, उसे होने देंगे।
इस भाव दशा के साथ-साथ ब्रश उठाएं और शुरू करें। आहिस्ता शुरू करें, ताकि आप बीच में न आएं। बहुत आहिस्ता शुरू करें। जो भी भीतर से बहे, बहने दें और उसमें लीन हो जाएं। शेष सब भूल जाएं। कला सिर्फ कला के लिए ही हो, तभी वह ध्यान है। उसका कोई और लक्ष्य नहीं होना चाहिए। और, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि हम पेंटिंग बेचे नहीं या उसका प्रदर्शन न करें- वह बिलकुल ठीक है। पर बाई-प्राडक्ट है। वह उसका उद्देश्य नहीं है। भोजन की जरूरत है, तो पेंटिंग बेचनी भी पड़ती है। हालांकि बेचने में पीड़ा होती है, यह अपना बच्चा बेचने जैसा ही है। मगर जरूरत है, तो ठीक है। दुख भी होता है, लेकिन वह उद्देश्य नहीं था, बेचने के लिए चित्र नहीं बनाया गया था। वह बिक गया- यह बिलकुल दूसरी बात है- लेकिन बनाते समय कोई उद्देश्य नहीं है। नहीं तो हम तकनीशियन ही रह जाएंगे।
हमें तो मिट जाना चाहिए। हमें मौजूद रहना चाहिए। जो भी हम कर रहे हों, उसमें बिना किसी नियंत्रण कि हमें पूरी तरह खो जाना चाहिए।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

सहनशीलता


सहनशीलता जिसमें नहीं है, वह शीघ्र टूट जाता है। और, जिसने सहनशीलता के कवच को ओढ़ लिया है, जीवन में प्रतिक्षण पड़ती चोटें उसे और मजबूत कर जाती हैं।
मैंने सुना है : एक व्यक्ति किसी लुहार के द्वार से गुजरता था। उसने निहाई पर पड़ते हथौड़े की चोटों को सुना और भीतर झांककर देखा। उसने देखा कि एक कोने में बहुत से हथौड़े टूटकर और विकृत होकर पड़े हुए हैं। समय और उपयोग ने ही उनकी ऐसी गति की होगी। उस व्यक्ति ने लुहार से पूछा, ''इतने हथोड़ों को इस दशा तक पहुंचाने के लिए कितनी निहाइयों की आपको जरूरत पड़ी?'' लुहार हंसने लगा और बोला, ''केवल एक ही मित्र, एक ही निहाई सैकड़ों हथौड़ों को तोड़ डालती है, क्योंकि हथौड़े चोट करते हैं और निहाई सहती है।''
यह सत्य है कि अंत में वही जीतता है, जो चोटों को धैर्य से स्वीकार करता है। निहाई पर पड़ती हथौड़ों की चोटों की भांति ही उसके जीवन में भी चोटों की आवाज तो बहुत सुनी जाती है, लेकिन अंतत: हथौड़े टूट जाते हैं और निहाई सुरक्षित बनी रहती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

स्वयं की खोज


स्मरण रखना कि इस जगत में स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया जा सकता है। जो उसे खोजते हैं, वे पा लेते हैं और जो उससे अन्यथा कुछ खोजते हैं, वे अंतत: असफलता और विषाद को ही उपलब्ध होते हैं। वासनाओं के पीछे छोड़ने वाले लोग नष्ट हुए हैं- नष्ट होते हैं- और नष्ट होंगे। वह मार्ग आत्म-विनाश का है।
''एक छोटे से घुटने के बल चलने वाले बालक ने एक दिन सूर्य के प्रकाश में खेलते हुए अपनी परछाई देखी। उसे एक अद्भुत वस्तु जान पड़ी। क्योंकि, वह हिलता तो उसकी वह छाया भी हिलने लगती थी। वह छाया का सिर पकड़ने का उद्योग करने लगा। किंतु, जैसे ही वह छाया का सिर पकड़ने के लिए बढ़ता कि वह दूर हो जाता। वह कितना ही बढ़ता गया, लेकिन पाया कि सिर तो सदा उतना ही दूर है। उसके और छाया के बीच फासला कम नहीं होता था। थक कर और असफलता से वह रोने लगा। द्वार पर भिक्षा को आए हुए एक भिक्षु ने यह देखा। उसने पास आकर बालक का हाथ उसके सिर पर रख दिया। बालक रोता था, हंसने लगा; इस भांति छाया का मस्तक भी उसने पकड़ लिया था।''
कल मैंने यह कथा कही और कहा, ''आत्मा पर हाथ रखना जरूरी है। जो छाया को पकड़ने में लगते हैं, वे उसे कभी भी नहीं पकड़ पाते। काया छाया है। उसके पीछे जो चलता है, वह एक दिन असफलता से रोता है।''
वासना दुष्पूर है। उसका कितना ही अनुगमन करो, वह उतनी ही दुष्पूर बनी रहती है। उससे मुक्ति तो तब होती है, जब कोई पीछे देखता है और स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

समता ही परमेश्वर!



अंत:करण जब अक्षुब्ध होता है और दृष्टिं सम्यक, तब जिस भाव का उदय होता है, वही भाव परमसत्ता में प्रवेश का द्वार है। जिनका अंत:करण क्षुब्ध है और दृष्टिं असम्यक, वे उतनी ही मात्रा में सत्य से दूर होते हैं। श्री अरविंद का वचन है, 'सम होने याने अनंत हो जाना।' असम होना ही क्षुद्र होना है और सम होते ही विराट को पाने का अधिकार मिल जाता है।

''धर्म क्या है?'' मैंने कहा : ''सम भाव।'' जिन्होंने पूछा था, वे कुछ समझे नहीं। फिर, उन्होंने पूछा। मैंने उनसे कहा, ''चित्त की एक ऐसी दशा भी है, जहां कुछ भी अशांत नहीं करता है। अंधकार और प्रकाश वहां समान दीखते हैं। और सुख-दुखों का उस भाव में समान स्वागत और स्वीकार होता है। वह चित्त की धर्म-दशा है। ऐसी अवस्था में ही आनंद उत्पन्न होता है। जहां विरोधी भी विपरीत परिणाम नहीं लाते और जहां कोई भी विकल्प चुना नहीं जाता है, उस निर्विकल्प दशा में ही स्वयं में प्रवेश होता है।'' फिर वे जाने को ही थे और मुझे कुछ स्मरण आया। मैंने कहा : ''सुनो, एक साधु हुआ है- जोशु। उससे किसी ने पूछा था कि क्या धर्म को प्रकट करने वाला कोई एक शब्द है। जोशु ने कहा : 'पूछोगे तो दो हो जाएंगे।' किंतु पूछने वाला नहीं माना, तो जोशु बोला था : 'वह शब्द है- हाँ।' ''

जीवन की समस्तता और समग्रता के प्रति स्वीकार को पा लेने का नाम ही सम-भाव है। वही है समाधि। उसमें ही 'मैं' मिटता और विश्व-सत्ता से मिलन होता है। जिसके चित्त में 'नहीं' है, वह समग्र से एक नहीं हो पाता है। सर्व के प्रति 'हां' अनुभव करना जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है। क्योंकि, वह 'स्व' को मिटाती है और स्वयं से मिलती है। मैंने सबसे बड़ी संपत्ति 'सम-भाव' को जाना है। समत्व अद्वितीय है। आनंद और अमृत केवल उसे ही मिलते हैं, जो उस दशा को स्वयं में आविष्कृत कर लेता है। वह स्वयं के परमात्मा होने की घोषणा है। कृष्ण का आश्वासन है 'समता ही परमेश्वर है।'


(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन को तो जानो!


जीवन क्या है? जीवन के रहस्य में प्रवेश करो। मात्र जी लेने से जीवन चूक जाता है, लेकिन ज्ञात नहीं होता। अपनी शक्तियों को उसे जी लेने में नहीं, ज्ञात करने में भी लगाओ। और, जो उसे ज्ञात कर लेता है, वही वस्तुत: उसे ठीक से जी भी पाता है।
रात्रि कुछ अपरिचित व्यक्ति आए थे। उनकी कुछ समस्याएं थीं। मैंने उनकी उलझन पूछी। उनमें से एक व्यक्ति बोला, ''मृत्यु क्या है?'' मैं थोड़ा हैरान हुआ। क्योंकि समस्या जीवन की होती है। मृत्यु की कैसी समस्या? फिर मैंने उन्हें कन्फ्यूशियस से ची-ली की हुई बातचीत बताई। ची-ली ने कन्फ्यूशियस से मृत्यु के पूर्व पूछा था कि मृतात्माओं का आदर और सेवा कैसे करनी चाहिए? कन्फ्यूशियस ने कहा, ''जब तुम जीवित मनुष्यों की ही सेवा नहीं कर सकते, तो मृतात्माओं की क्या कर सकोगे?'' तब ची-ली ने पूछा, ''क्या मैं मृत्यु के स्वरूप के संबंध में कुछ पूछ सकता हूं?'' मृत्यु के द्वार पर खड़ा वृद्ध कन्फ्यूशियस बोला, ''जब जीवन को ही अभी तुम नहीं जानते, तब मृत्यु को कैसे जान सकते हो?'' यह उत्तर बहुत अर्थपूर्ण है। जीवन को जो जान लेता है, वे ही केवल मृत्यु को जान पाते हैं। जीवन का रहस्य जिन्हें ज्ञात हो जाता है, उन्हें मृत्यु भी रहस्य नहीं रह जाती है, क्योंकि वह तो उसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
मृत्यु से भयभीत केवल वे ही होते हैं, जो कि जीवन को नहीं जानते। मृत्यु का भय जिसका चला गया हो, जानना कि वह जीवन से परिचित हुआ है। मृत्यु के समय ही ज्ञात होता है कि व्यक्ति जीवन को जानता था कि नहीं? स्वयं में देखना : वहां यदि मृत्यु-भय हो, तो समझना कि अभी जीवन को जानना शेष है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

केवल परमेश्वर


बहुत संपत्तियां खोजीं, किंतु अंत में उन्हें विपत्ति पाया। फिर, स्वयं में संपत्ति के लिए खोज की। जो पाया वही परमात्मा था। तब जाना कि परमात्मा को खो देना ही विपत्ति और उसे पा लेना ही संपत्ति है।
किसी व्यक्ति ने एक बादशाह की बहुत तारीफ की। उसकी स्तुति में सुंदर गीत गाए। वह उससे कुछ पाने का आकांक्षी था। बादशाह उसकी प्रशंसाओं से हंसता रहा और फिर उसने उसे बहुत सी अशर्फियां भेंट कीं। उस व्यक्ति ने जब अशर्फियों पर निगाह डाली, तो उसकी आंखें किसी अलौकिक चमक से भर गई और उसने आकाश की ओर देखा। उन अशर्फियों पर कुछ लिखा था। उसने अशर्फियां फेंक दीं और वह नाचने लगा। उसका हाल कुछ का कुछ हो गया। उप अशर्फियों को पढ़कर उसमें न मालूम कैसी क्रांति हो गई थी। बहुत वर्षो बाद किसी ने उससे पूछा कि उन अशर्फियों पर क्या लिखा था? वह बोला, ''उन पर लिखा था 'परमेश्वर काफी है'।''
सच ही परमेश्वर काफी है। जो जानते हैं, वे सब इस सत्य की गवाही देते हैं।
मैंने क्या देखा? जिनके पास सब कुछ है, उन्हें दरिद्र देखा और ऐसे संपत्तिशाली भी देखें, जिनके पास कि कुछ भी नहीं है। फिर, इस सूत्र के दर्शन हुए कि जिन्हें सब पाना है, उन्हें सब छोड़ देना होगा। जो सब छोड़ने का साहस करते हैं, वे स्वयं प्रभु को पाने के अधिकारी हो जाते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रेम और प्रार्थना


प्रेम और प्रार्थना का आनंद उनमें ही है- उनके बाहर नहीं। जो उनके द्वारा उनसे कुछ चाहता है, उसे उनके रहस्य का पता नहीं है। प्रेम में डूब जाना ही प्रेम का फल है। और, प्रार्थना की तन्मयता और आनंद ही उसका पुरस्कार है।
ईश्वर का एक प्रेमी अनेक वर्षो से साधना में था। एक रात्रि उसने स्वप्न में सुना कि कोई कह रहा है, ''प्रभु तेरे भाग्य में नहीं, व्यर्थ श्रम और प्रतीक्षा मत कर।'' उसने इस स्वप्न की बात अपने मित्रों से कही। किंतु, न तो उसके चेहरे पर उदासी आई और न ही उसकी साधाना ही बंद हुई। उसके मित्रों ने उससे कहा, ''जब तूने सुन लिया कि तेरे भाग्य का दरवाजा बंद है, तो अब क्यों व्यर्थ प्रार्थनाओं में लगा हुआ है?'' उस प्रेमी ने कहा, ''व्यर्थ प्रार्थनाएं? पागलों! प्रार्थना तो स्वयं में ही आनंद है- कुछ या किसी के मिलने या न मिलने से उसका क्या संबंध है? और, जब कोई अभिलाषा रखने वाला एक दरवाजे से निराश हो जाता है, तो दूसरा दरवाजा खटखटाता है, लेकिन मेरे लिए दूसरा दरवाजा कहां है? प्रभु के अतिरिक्त कोई दरवाजा नहीं।'' उस रात्रि उसने देखा था कि प्रभु उसे आलिंगन में लिए हुए हैं।
प्रभु के अतिरिक्त जिनकी कोई चाह नहीं है, असंभव है कि वे उसे न पा लें। सब चाहों का एक चाह बन जाना ही मनुष्य के भीतर उस शक्ति को पैदा करता है, जो कि उसे स्वयं को अतिक्रमण कर भागवत चैतन्य में प्रवेश के लिए समर्थ बनाती है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

कार्य - ध्यान की तरह!

जब आपको लगे कि आपका मूड अच्छा नहीं है और काम करना अच्छा नहीं लग रहा है, तो काम शुरू करने से पहले पांच मिनट के लिए गहरी श्वास बाहर फेंके। भाव करें कि श्वास के साथ खराब मूड भी बाहर फेंक रहे हैं। और, आप हैरान हो जाएंगे कि पांच मिनट में अनायास ही आप फिर से सहज हो गए और खराब मूड चला गया, काले बादल छंट गए।
यदि हम अपने कार्य को ही ध्यान बना सकें तो सबसे अच्छी बात है। तब ध्यान हमारे जीवन में कभी द्वंद्व नहीं खड़ा करेगा। जो भी हम करें, ध्यानपूर्वक करें। ध्यान कुछ अलग नहीं है, वह जीवन का ही एक हिस्सा है। वह श्वास की तरह है- जैसे श्वास आती-जाती है, वैसे ही ध्यान भी रहता है। और केवल थोड़ी सी सजगता की बात है- ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। जो चीजें आप असावधानी से कर रहे थे, उन्हें सावधानी से करना शुरू करें। जो चीजें आप किसी आकांक्षा से कर रहे थे, उदाहरण के लिए पैसा..। वह ठीक है, लेकिन आप उसमें कुछ जोड़ सकते हैं। पैसा ठीक है और अगर आपके काम से पैसा आता है, तो अच्छा है; सबको पैसे की जरूरत है। लेकिन वही सब कुछ नहीं है। और साथ ही साथ यदि और भी आनंद मिलते हों, तो उन्हें क्यों चूकना? वे मुफ्त ही मिल रहे हैं।
हम कुछ न कुछ तो काम करेंगे ही, चाहे उसे प्रेम से करें या बिना प्रेम के करें। तो अपने काम में सिर्फ प्रेम जोड़ देने से हमें और बहुत कुछ मिल सकता है, जिन्हें हम वैसे चूक जाते।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन
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हृदय शांति का स्रोत है
अमृत साधना
हृदय स्वभावतः शांति का स्त्रोत है। यदि आप हृदय पर ध्यान करते हैं तो तो आप बस उस स्त्रोत पर लौट रहे हैं जो सदा है। यह कल्पना आपको इस बात के प्रति जागने में सहयोगी होगी कि हृदय शांति से भरा हुआ है। उसके लिए एक सरल ओशो ध्यान विधि:
आंखें बंद करके दस मिनट तक शांति से बैठें, ध्यान हृदय पर केंद्रित रहे, फिर आंखें खोलें। संसार बिलकुल अलग ही नजर आएगा, क्योंकि शांति आपकी आंखों से भी झलकेगी। और सारा दिन आपको अलग ही अनुभव होगा। न केवल आपको अलग अनुभव होगा, बल्कि आपको लगेगा कि लोग भी आपसे अलग तरह से व्यवहार कर रहे हैं। लोग अधिक प्रेमपूर्ण और अधिक विनम्र होंगे, कम बाधा डालेंगे, खुले होंगे, समीप होंगे। एक चुंबकत्व पैदा हो गया।
शांति एक चुंबक है। शांत व्यक्ति के चारों ओर एक छाया होती है। जब आप शांत होते हो तो लोग आपके अधिक निकट आते हैं, जब आप परेशान होते हैंे तो सब पीछे हटते हैं।शांति विकीरित होने लगती है, चारों ओर एक तरंग बन जाती है। तुम्हारे चारों ओर शांति के स्पंदन होते हैं और जो भी आता है तुम्हारे करीब होना चाहता है, जैसे तुम किसी वृक्ष की छाया के नीचे जाकर विश्राम करना चाहते हो।
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रेत के घरों से खेलते बच्चे!


मृण्मय घरों को ही ही बनाने में जीवन को व्यय मत करो। उस चिन्मय घर का भी स्मरण करो, जिसे कि पीछे छोड़ आये हो और जहां कि आगे भी जाना है। उसका स्मरण आते ही ये घर फिर घर नहीं रह जाते हैं।
''नदी की रेत में कुछ बच्चे खेल रहे थे। उन्होंने रेत के मकान बनाये थे और प्रत्येक कह रहा था, 'यह मेरा है और सबसे श्रेष्ठ है। इसे कोई दूसरा नहीं पा सकता है।' ऐसे वे खेलते रहे। और जब किसी ने किसी के महल को तोड़ दिया, तो लड़े-झगड़े भी। फिर, सांझ का अंधेरा घिर आया। उन्हें घर लौटने का स्मरण हुआ। महल जहां थे, वहीं पड़े रह गये और फिर उनमें उनका 'मेरा' और 'तेरा' भी न रहा।''
यह प्रबोध प्रसंग कहीं पढ़ा था। मैंने कहा, '' यह छोटा सा प्रसंग कितना सत्य है। और, क्या हम सब भी रेत पर महल बनाते बच्चों की भांति नहीं हैं? और कितने कम ऐसे लोग हैं, जिन्हें सूर्य के डूबते देखकर घर लौटने का स्मरण आता हो! और, क्या अधिक लोग रेत के घरों में 'मेरा' 'तेरा' का भाव लिये ही जगत से विदा नहीं हो जाते हैं!''
स्मरण रखना कि प्रौढ़ता का उम्र से कोई संबंध नहीं। मिट्टी के घरों में जिसकी आस्था न रही, उसे ही मैं प्रौढ़ कहता हूं। शेष सब तो रेत के घरों में खेलते बच्चे ही हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन में ही मृत्यु के द्वारा!


प्रभु को पाना है, तो मरना सीखो। क्या देखते नहीं कि बीज जब मरता है, तो वृक्ष बन जाता है!
एक बाउल फकीर से कोई मिलने गया था। वह गीत गाने में मग्न था। उसकी आंखें इस जगत को देखती हुई मालूम नहीं होती थीं और न ही प्रतीत होता था कि उसकी आत्मा ही यहां उपस्थित है। वह कहीं और ही था- किसी और लोक में, और किसी और रूप में। फिर, जब उसका गीत थमा और उसकी चेतना वापस लौटती हुई मालूम हुई, तो आगंतुक ने पूछा, ''आपका क्या विश्वास है कि मोक्ष कैसे पाया जा सकता है?'' वह सुमधुर वाणी का फकीर बोला, ''केवल मृत्यु के द्वारा।''
कल किसी से यह कहता था। वे पूछने लगे, ''मृत्यु के द्वारा?'' मैंने कहा, ''हां, जीवन में ही मृत्यु के द्वारा। जो शेष सबके प्रति मर जाता है, केवल वही प्रभु के प्रति जागता और जीवित होता है।''
जीवन में ही मरना सीख लेने से बड़ी और कोई कला नहीं है। उस कला को ही मैं योग कहता हूं। जो ऐसे जीता है कि जैसे मृत है, वह जीवन में जो भी सारभूत है, उसे अवश्य ही जान लेता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

स्व से उत्पन्न ही स्थाई है!


आनंद क्या है? सुख तो एक उत्तेजना है और दुख भी। प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और अप्रीतिकर को हम दुख कहते हैं। आनंद दोनों से भिन्न है। वह उत्तेजना की नहीं, शांति की अवस्था है। सुख को जो चाहता है, वह निरंतर दुख में पड़ता है, क्योंकि एक उत्तेजना के बाद दूसरी विरोधी उत्तेजना वैसे ही अपरिहार्य है, जैसे कि पहाड़ों के साथ घाटियां होती हैं, और दिन के साथ रात्रि। किंतु, जो सुख और दुख दोनों को छोड़ने के लिए तत्पर हो जाता है, वह उस आनंद को उपलब्ध होता है, जो कि शाश्वत है।
ह्वांग-पो एक कहानी कहता था। किसी व्यक्ति का एकमात्र पुत्र गुम गया था। उसे गुमे बहुत दिन-बहुत बरस बीत गए। सब खोजबीन करके वह व्यक्ति भी थक गया। फिर धीरे-धीरे वह घटना को ही भूल गया।
तब अनेक वर्षो बाद उसके द्वार एक अजनबी आया और उसने कहा, ''मैं आपका पुत्र हूं। आप पहचाने नहीं?'' पिता प्रसन्न हुआ। उसने घर लौटे पुत्र की खुशी में मित्रों को प्रीतिभोज दिया, उत्सव मनाया और उसका स्वागत किया। लेकिन, वह तो अपने पुत्र को भूल ही गया था और इसलिए इस दावेदार को पहचान नहीं सका। पर थोड़े दिन बाद ही पहचानना भी हो गया! वह व्यक्ति उसका पुत्र नहीं था और समय पाकर वह उसकी सारी संपत्ति लेकर भाग गया था। फिर, ह्वांग-पो कहता था कि ऐसे ही दावेदार प्रत्येक के घर आते हैं, लेकिन बहुत कम लोग हैं, जो कि उन्हें पहचानते हों। अधिक लोग तो उनके धोखे में आ जाते हैं और अपनी जीवन संपत्ति खो बैठते हैं। आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनंद की बजाय, जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनंद समझ लेते हें, वे जीवन की अमूल्य संपदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं।
स्मरण रखना कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जावेगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक संपदा है। उसे न खोजकर जो कुछ और खोजता है, वे चाहे कुछ भी पा लें, अंतत: वे पायेंगे कि उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड़ में वे स्वयं जीवन को ही गंवा बैठे हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

अतंरात्मा को आलोकित करो!


मैं क्या सिखाता हूं? एक ही बात सिखाता हूं। अपनी अंतरात्मा के अलावा और कुछ अनुकरणीय नहीं है। वहां जो आलोक का आविष्कार कर लेता है, उसका समग्र जीवन आलोक हो जाता है। फिर उसे बाहर की मिट्टी के दियों का सहारा नहीं लेना होता और दूसरों की धुआं छोड़ती मशालों के पीछे नहीं चलना पड़ता है। इनसे मुक्त होकर ही कोई व्यक्ति आत्मा के गौरव और गरिमा को उपलब्ध होता है।
एक विद्वान था। उसने बहुत अध्ययन किया था। वेदज्ञ था और सब शास्त्रों में पारंगत। अपनी बौद्घिक उपलब्धियों का उसे बहुत अहंकार था। वह सदा ही एक जलती मशाल अपने हाथ में लेकर चलता था। रात्रि हो या दिन यह मशाल उसके साथ ही होती थी। और, जब कोई उसका कारण उससे पूछता, तो वह कहता था, ''संसार अंधकारपूर्ण है। मैं इस मशाल को लेकर चलता हूं, ताकि कुछ प्रकाश तो मनुष्य को मिल सके। उनके अंधकारपूर्ण जीवन-पथ पर इस मशाल के अतिरिक्त और कौन सा प्रकाश है?'' एक दिन एक भिक्षु ने उसके ये शब्द सुनें। सुनकर वह भिक्षु हंसने लगा और बोला, ''मेरे मित्र, अगर तुम्हारी आंखें सर्वव्यापी प्रकाश-सूर्य के प्रति अंधी हैं, तो संसार को अंधकारपूर्ण तो मत कहो। फिर, तुम्हारी यह मशाल सूर्य के गौरव में और क्या जोड़ सकेगी? और, जो सूर्य को नहीं देख पा रहे हैं, क्या तुम सोचते हो कि वे तुम्हारी इस क्षुद्र मशाल को देख सकेंगे?''
यह कथा बुद्ध ने कभी कही थी। यह कथा मैं पुन: कहना चाहता हूं। इस समय तो एक नहीं, बहुत-सी मशालें आकाश में जली हुई दिखाई पड़ रही हैं। राह-राह पर मशालें हैं- धर्मो की, संप्रदायों की, विचारों की, वादों की। इन सब का दावा यही है कि उनके अतिरिक्त और कोई प्रकाश ही नहीं है और वे सभी मनुष्यों के अंधकारपूर्ण पथ को आलोकित करने को उत्सुक हैं। लेकिन सत्य यह है कि उनके धुएं में मनुष्य की आंखें सूर्य को भी नहीं देख पा रही हैं। इन सब मशालों को बुझा देना है, ताकि सूर्य के दर्शन हो सकें। मनुष्य निर्मित कोई मशाल नहीं, प्रभु निर्मित सूर्य ही वास्तविक और एकमात्र प्रकाश है।
आंखें भीतर ले जाओ और सूर्य को देखो, जो कि स्वयं में है। उस प्रकाश के अतिरिक्त और सूर्य कोई प्रकाश नहीं है। उसकी ही शरण जाओ। उससे भिन्न और शरण जो पकड़ता है, वह स्वयं में बैठे परमात्मा का अपमान करता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जिंदगी का सत्य!


जीवन झाग का बुलबुला है। जो उसे ऐसा नहीं देखते, वे उसी में डूबते और नष्ट हो जाते हैं। किंतु, जो इस सत्य के प्रति सजग होते हैं, वे एक ऐसे जीवन को पा लेने का प्रारंभ करते हैं, जिसका कि कोई अंत नहीं होता है।
एक फकीर कैद कर लिया गया था। उसने कुछ ऐसी सत्य बातें कहीं थीं, जो कि बादशाह को अप्रिय थीं। उस फकीर के किसी मित्र ने कैदखाने में जाकर उससे कहा, ''यह मुसीबत व्यर्थ क्यों मोल ले ली? न कही होती वे बातें, तो क्या बिगड़ता था?'' फकीर ने कहा, ''सत्य ही अब मुझ से बोला जाता है। असत्य का ख्याल ही नहीं उठता। जब से जीवन में परमात्मा का आभास मिला, तब से सत्य के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं रहा है। फिर, यह कैद तो घड़ी भर की है!'' किसी ने जाकर यह बात बादशाह से कह दी। बादशाह ने कहा, ''उस पागल फकीर को कह देना कि कैद घड़ी भर की नहीं, जीवन भर की है।'' जब यह फकीर ने सुना तो खूब हंसने लगा और बोला, ''प्यारे बादशाह को कहना कि उस पागल फकीर ने पूछा है कि क्या जिंदगी घड़ी भर से ज्यादा की है?''
सत्य-जीवन जिन्हें पाना हो, उन्हें इस तथाकथित जीवन की सत्यता को जानना होगा। और, जो इसकी सत्यता को जानने का प्रयास करते हैं, वे पाते हैं कि एक स्वप्न से ज्यादा न इसकी सत्ता है और न अर्थ है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मन को निस्तरंग करो!


काश! हम शांत हो सकें और भीतर गूंजते शब्दों और ध्वनियों को शून्य कर सकें, तो जीवन में जो सर्वाधिक आधारभूत है, उसके दर्शन हो सकते हैं। सत्य के दर्शन के लिए शांति के चक्षु चाहिए। उन चक्षुओं को पाये बिना जो सत्य को खोजता है, वह व्यर्थ ही खोजता है।
साधु रिझांई एक दिन प्रवचन दे रहे थे। उन्होंने कहा, ''प्रत्येक भीतर, प्रत्येक के शरीर में वह मनुष्य छिपा है, जिसका कोई विशेषण नहीं है- न पद है, न नाम है। वह उपाधि शून्य मनुष्य ही शरीर की खिड़कियों में से बाहर आता है। जिन्होंने यह बात आज तक नहीं देखी है, वे देखें, देखें। मित्रों! देखो! देखो!'' यह आवाहन सुनकर एक भिक्षु बाहर आया और बोला,''यह सत्य पुरुष कौन है? यह उपाधि शून्य सत्ता कौन है?'' रिंझाई नीचे उतरा और भिक्षुओं की भीड़ को पार कर उस भिक्षु के पास पहुंचा। सब चकित थे कि उत्तर न देकर, वह यह क्या कर रहा है? उसने जाकर जोर-से उस भिक्षु को पकड़ कर कहा, ''फिर से बोलो।'' भिक्षु घबड़ा गया और कुछ बोल नहीं सका। रिंझाई ने कहा,''भीतर देखो। वहां जो है- मौन और शांत- वही वह सत्य पुरुष है। वही हो तुम। उसे ही पहचानो। जो उसे पहचान लेता है, उसके लिए सत्य के समस्त द्वार खुल जाते हैं।''
पूर्णिमा की रात्रि में किसी झील को देखो। यदि झील निस्तरंग हो तो चंद्रमा का प्रतिबिंब बनता है। ऐसा ही मन है। उसमें तरंगें न हों, तो सत्य प्रतिफलित होता है। जिसके मन तरंगों से ढका है, वह अपने हाथों सत्य से स्वयं को दूर किये है। सत्य तो सदा निकट है, लेकिन अपनी अशांति के कारण हम सदा उसके निकट नहीं होते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

प्रात:कालीन ध्यान विधियां- नटराज




इस क्षण में जीना
जैसे- जैसे हम ध्यान में गहरे उतरते हैं, समय विलीन हो जाता है। जब ध्यान अपनी परिपूर्णता में खिलता है, समय खोजने पर भी नहीं मिलता। यह युगपत होता है- जब मन खो जाता है, समय भी खो जाता है। इसलिए सदियों से रहस्यवादी संत कहते आए हैं कि मन और समय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मन समय के बिना नहीं हो सकता और समय मन के बिना नहीं हो सकता। मन के बिना रहने के लिए समय एक उपाय है।
इसलिए सभी बुद्ध पुरुषों ने जोर दिया है, 'इस क्षण में जीओ।'
इस क्षण में जीना ही ध्यान है; अभी और यहीं होना ही ध्यान है। जो केवल अभी और इस क्षण में मेरे साथ हैं, वे ध्यान में हैं। यह ध्यान है- दूर से आती कोयल की पुकार और हवाई जहाज का गुजरना, कौओं और पक्षियों की आवाज- और सब शांत है और मन में कोई हलन-चलन नहीं है। न आप अतीत के बारे में सोच रहे हैं, न भविष्य के बारे में सोच रहे हैं। समय रुक गया है। संसार रुक गया है।
संसार का रुक जाना ही ध्यान की पूरी कला है। और, इस क्षण में जीना ही शाश्वतता में जीना है। बिना किसी धारणा के बिना किसी मन के इस क्षण का स्वाद लेना ही अमरत्व का स्वाद लेना है।

नटराज-नृत्य एक संपूर्ण ध्यान है। यह पैंसठ मिनट का है और इसके तीन चरण हैं।

प्रथम चरण : चालीस मिनट
आंखें बंद करके इस प्रकार नाचें जैसे आविष्ट हो गया हो। नृत्य को अपने ऊपर छाने दें कि नृत्य ही नृत्य रह जाए। शरीर जैसे भी नृत्य करे, उसे करने दें। न तो उसे नियंत्रित करें और न ही जो हो रहा है, उसके साक्षी बनें। बस नृत्य में पूरी तरह डूब जाएं।
दूसरा चरण : बीस मिनट
आंखें बंद रखे हुए ही लेट जाएं। शांत और निश्चल रहें।
तीसरा चरण : पांच मिनट
उत्सव भाव से नाचें, आनंदित हों और अहोभाव व्यक्त करें।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

जीवन अहस्तांतरणीय है!


जगत में जो भी मूल्यवान है- जीवन, प्रेम या सौंदर्य- उसका आविष्कार स्वयं करना पड़ता है। उसे किसी ओर से पाने का कोई उपाय नहीं है।
एक अद्भुत वार्ता का मुझे स्मरण आता है। दूसरे महायुद्ध के समय मरे हुए, मरणासन्न, चोट खाये हुए सैनिकों से भरी हुई किसी खाई में दो मित्रों के बीच एक बातचीत हुई थी। उनमें से एक बिलकुल मृत्यु के द्वार पर है। वह जानता है कि वह मरने को है। उसकी जीवन-ज्योति थोड़ी ही देर की और है।
वह उसके पास ही पड़े अपने मित्र से कहता है, ''मित्र सुनो। मैं जानता हूं कि तुम्हारा जीवन शुभ नहीं रहा। बहुत अपराध तुम्हारे नाम हैं और अक्षम्य भूलें। उनकी क ाली छाया सदा ही तुम्हें घेरे रही हैं। उसके कारण बहुत दुख और अपमान तुमने सहे हैं। लेकिन मेरे विरोध में अधिकारियों के पास कुछ भी नहीं है। मेरी किताबों में कोई दाग नहीं। तुम मेरा नाम ले लो- मेरा सैनिक नंबर और मेरा जीवन भी। और, मैं तुम्हारा नाम और जीवन ले लेता हूं। मैं तो मर रहा हूं। मैं तुम्हारे अपराध और कालिमाओं को अपने साथ लेता जाऊं! देर न करो। यह मेरी किताब रही। कृपा करो अपनी किताब मुझे दे दो।''
प्रेम में कहे ये शब्द कितने मधुर हैं! काश, ऐसा हो सकता? लेकिन, क्या जीवन बदला जा सकता है? नाम और किताबें बदली जा सकती हैं, क्योंकि वे जीवन नहीं हैं। जीवन को किसी से कैसे बदला जा सकता है, और न किसी की जगह मर ही सकता है। वस्तुत: कोई भी, किसी भी भांति उस बिंदु पर नहीं हो हो सकता है, जहां किसी और का होना है। किसी के पाप या पुण्य लेने का कोई मार्ग नहीं है। यह असंभव है। जीवन ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे कि किसी से अदल-बदल किया जा सके। उसे तो स्वयं से और स्वयं ही निर्मित करना होता है।
उस दूसरे सैनिक ने अपने विदा होते मित्र को हृदय से लगाकर कहा था, ''क्षमा करो। तुम्हारा नाम और किताब लेकर भी तो मैं ही बना रहूंगा। मनुष्य के समक्ष अन्य दिखूंगा, लेकिन असली सवाल तो परमात्मा के सामने है। उन आंखों के सामने तो बदली हुई किताबें धोखा नहीं दे सकेंगी।''
अपना जीवन प्रत्येक को वैसे ही निर्मित करना होता है, जैसे कि कोई नृत्य सीखता है। यह चित्रों या मूर्तियों के बनने जैसा नहीं है। उसमें तो बनाने वाला और बनने वाला एक ही हैं। इसलिए, अपना जीवन न तो किसी को भेंट किया जा सकता है और न किसी से उधार ही पाया जा सकता है। जीवन अहस्तांतरणीय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)

अंतर्मन की शांति!

इस जगत में कौन है, जो शांति नहीं चाहता? लेकिन, न लोगों को इसका बोध है और न वे उन बातों को चाहते हैं, जिनसे कि शांति मिलती है। अंतरात्मा शांति चाहती है, लेकिन हम जो करते हैं, उसमें अशांति ही बढ़ती है। स्मरण रहे कि महत्वाकांक्षा अशांति का मूल है। जिसे शांति चाहनी है, उसे महत्वाकांक्षा छोड़ देनी पड़ती है। शांति का प्रारंभ वहां से है, जहां कि महत्वाकांक्षा अंत होती है।
जोशुआ लीबमेन ने लिखा है- मैं जब युवा था, तब जीवन में क्या पाना है, इसके बहुत स्वप्न देखता था। फिर एक दिन मैंने सूची बनाई थी- उन सब तत्वों को पाने की, जिन्हें पाकर व्यक्ति धन्यता को उपलब्ध होता है। स्वास्थ्य, सौंदर्य, सुयश, शक्ति, संपत्ति- उस सूची में सब कुछ था। उस सूची को लेकर मैं एक बुजुर्ग के पास गया और उनसे कहा कि क्या इन बातों में जीवन की सब उपलब्धियां नहीं आ जाती हैं? मेरी बातों को सुन और मेरी सूची को देख उन वृद्ध की आंखों के पास हंसी इकट्ठा होने लगी थी और वे बोले थे, ''मेरे बेटे, बड़ी सुंदर सूची है। अत्यंत विचार से तुमने इसे बनाया है। लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण बात तुम छोड़ ही गये हो, जिसके अभाव में शेष सब व्यर्थ हो जाता है। किंतु, उस तत्व के दर्शन, मात्र विचार से नहीं, अनुभव से ही होते हैं।'' मैंने पूछा, ''वह क्या है?'' क्योंकि मेरी दृष्टिं में तो सब-कुछ ही आ गया था। उन वृद्ध ने उत्तर में मेरी पूरी सूची को निर्ममता के साथ काट दिया और उन सारे शब्दों की जगह उन्होंने छोटे से तीन शब्द लिखे, 'मन की शांति।'
शांति को चाहो। लेकिन, ध्यान रहे कि उसे तुम अपने भीतर नहीं पाते हो, तो कहीं भी नहीं पा सकोगे। शांति कोई बाह्य वस्तु नहीं है। वह तो स्वयं का ही ऐसा निर्माण है कि हर परिस्थिति में भीतर संगीत बना रहे। अंतस के संगीतपूर्ण हो उठने का नाम ही शांति है। वह कोई रिक्त और खाली मन:स्थिति नहीं है, किंतु अत्यंत विधायक संगीत की भावदशा है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)

आनंद हृदय में है!


जीवन का आनंद, जीने वाले की दृष्टिं में होता है। वह आप में है। वह आपके अनुरूप होता है। क्या आपको मिलता है- उसमें नहीं, कैसे आप उसे लेते हैं- उसमें ही वह छिपा है।
मैंने सुना है- कहीं मंदिर बन रहा था। तीन श्रमिक धूप में बैठे पत्थर तोड़ रहे थे। एक राहगीर ने पूछा, ''क्या कर रहे हैं?''
एक से पूछा। वह बोला, ''पत्थर तोड़ रहा हूं।'' उसने गलत नहीं कहा था। लेकिन, उसके कहने में दुख था और बोझ था। निश्चय ही पत्थर तोड़ना आनंद की बात कैसे हो सकती है? वह उत्तर देकर फिर उदास मन से पत्थर तोड़ने लगा था।
दूसरे से पूछा। वह बोला, ''आजीविका कमा रहा हूं।'' उसने जो कहा वह भी ठीक था। वह दुखी नहीं दिख रहा था, लेकिन आनंद का कोई भाव उसकी आंखों में नहीं था। निश्चय ही आजीविका कामना भी काम ही है, आनंद वह कैसे हो सकता है?
तीसरे से पूछा। वह गीत गा रहा था। उसने गीत को बीच में रोक कर कहा, ''मैं मंदिर बना रहा हूं।'' उसकी आंखों में चमक थी और हृदय में गीत था। निश्चय ही मंदिर बनाना कितना सौभाग्यपूर्ण है! और, सृजन से बड़ा आनंद और क्या है?
मैं सोचता हूं कि जीवन के प्रति भी ये तीन उत्तर हो सकते हैं। आप कौन-सा उत्तर चुनते हैं, वह आप पर निर्भर है। और, जो आप चुनेंगे, उस पर ही आपके जीवन का अर्थ और अभिप्राय निर्भर होगा। जीवन तो वही है, पर दृष्टिं भिन्न होने से सब-कुछ बदल जाता है। दृष्टिं भिन्न होने से फूल कांटे हो जाते हैं और कांटे फूल बन जाते हैं।
आनंद तो हर जगह है, पर उसे अनुभव कर सकें, ऐसा हृदय सबके पास नहीं है। और, कभी किसी को आनंद नहीं मिला है, जब तक कि उसने उसे अनुभव करने के लिए आने हृदय को तैयार न कर लिया हो। विशेष स्थिति और स्थान नहीं- वरन जो आनंद अनुभव करने की भावदशा को पा लेता है, उसे हर स्थिति और स्थान में ही आनंद मिल जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)

स्व-सत्ता ही सर्वोपरि!

जो स्वयं को खोकर सब-कुछ भी पा ले, उसने बहुत महंगा सौदा किया है। वह हीरा देक कंकड़ बीन लाया है। उससे तो वही व्यक्ति समझदार है, जो कि सब-कुछ खोकर भी स्वयं को बचा लेता है।
एक बार किसी धनवान के महल में आग लग गई थी। उसने अपने सेवकों से बड़ी सावधानी से घर का सारा सामान निकलवाया। कुर्सियां, मेजें, कपड़े की संदूकें, खाते बहियां, तिजोरियां और सब कुछ। इस बीच आग चरों ओर फैलती गई। घर का मालिक बाहर आकर सब लोगों के साथ खड़ा हो गया था। उसकी आंखों में आंसू थे और किंकर्तव्यविमूढ़ वह अपने प्यारे भवन को अग्निसात होते देख रहा था। अंतत: उसने लोगों से पूछा, ''भीतर कुछ रह तो नहीं गया है?'' वे बोले, ''नहीं, फिर भी हम एकबार और जाकर देख आते हैं।'' उन्होंने भीतर जाकर देखा, तो मालिक का एकमात्र पुत्र कोठरी में पड़ा देखा। कोठरी करीब-करीब जल गई थी और पुत्र मृत था। वे घबड़ाकर बाहर आए और छाती पीट-पीटकर रोने-चिल्लाने लगे, ''हाय! हम अभागे, घर का सामान बचाने में लग गये, किंतु सामान के मालिक को खो दिया है।''
क्या यह घटना हम सबके संबंध में भी सत्य नहीं है। और क्या किसी दिन हमें भी यह नहीं कहना पड़ेगा कि हम अभागे न मालूम क्या-क्या व्यर्थ का सामान बचाते रहे और उस सबके मालिक को- स्वयं अपने आप को खो बैठे? मनुष्य के जीवन में इससे बड़ी कोई दुर्घटना नहीं होती है। लेकिन, बहुत कम ऐसे भाग्यशाली हैं, जो इससे बच पाते हैं।
एक बात स्मरण रखना कि स्वयं की सत्ता से ऊपर ओर कुछ नहीं है। जो उसे पा लेता है, वह सब पा लेता है। और, जो उसे खोता है, उसके कुछ- भी पा लेने का कोई मूल्य नहीं है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)

त्याग धीरे-धीरे नहीं


सत्य की ओर जीवन क्रांति अत्यंत द्रुत गति से होती है- सत्य की अंतदर्ृष्टिं भर हो, तो धीरे-धीरे नहीं, किंतु युगपत परिवर्तन घटित होते हैं। जहां स्वयं-बोध नहीं होता है, वही क्रम है, अन्यथा अक्रम में और छलांग में ही - विद्युत की चमक की भांति ही जीवन बदल जाता है।
कुछ लोग एक व्यक्ति को मेरे पास लाए थे। उन्हें कोई दुर्गुण पकड़ गया था। उसके प्रियजन चाहते थे कि वे उसे छोड़ दें। उस दुर्गुण के कारण उनका पूरा जीवन ही नष्ट हुआ जा रहा था। मैंने उनसे पूछा कि क्या विचार है? वे बोले, ''मैं धीरे-धीरे उसका त्याग कर दूंगा।'' यह सुन मैं हंसने लगा था और उनसे कहा था, ''धीरे-धीरे त्याग का कोई अर्थ नहीं होता है। कोई मनुष्य आग में गिर पड़ा हो, तो क्या वह उससे धीरे-धीरे निकलेगा? और, यदि वह कहे कि मैं धीरे-धीरे निकलने का प्रयास करूंगा, तो इसका क्या अर्थ होगा? क्या इसका स्पष्ट अर्थ नहीं होगा कि उसे स्वयं आग नहीं दिखाई पड़ रही है?''
फिर मैंने उनसे एक कहानी कही। परमहंस रामकृष्ण की सत्संगति से एक धनाढ्य युवक बहुत प्रभावित था। वह एक दिन परमहंस देव के पास एक हजार स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने लाया। रामकृष्ण ने उससे कहा, ''इस कचरे को गंगा को भेंट कर आओ।'' अब वह क्या करे? उसे जाकर वे मुद्राएं गंगा को भेंट करनी पड़ीं। लेकिन वह बहुत देर से वापस लौटा , क्योंकि उसने एक-एक मुद्रा गिनकर गंगा में फेंकी! एक-दो- तीन- हजार - स्वभावत: बहुत देर उसे लगी। उसकी यह दशा सुनकर रामकृष्ण ने उससे कहा था, ''जिस जगह तू एक कदम उठाकर पहुंच सकता था, वहां पहुंचने के लिये तूने व्यर्थ ही हजार कदम उटाये।''
सत्य को जानो और अनुभव करो, तो किसी भी बात का त्याग धीरे-धीरे नहीं करना होता है। सत्य की अनुभूति ही त्याग बन जाती है। अज्ञान जहां हजार कदमों में नहीं पहुंचता, ज्ञान वहां एक ही कदम में पहुंच जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)