स्व से उत्पन्न ही स्थाई है!


आनंद क्या है? सुख तो एक उत्तेजना है और दुख भी। प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और अप्रीतिकर को हम दुख कहते हैं। आनंद दोनों से भिन्न है। वह उत्तेजना की नहीं, शांति की अवस्था है। सुख को जो चाहता है, वह निरंतर दुख में पड़ता है, क्योंकि एक उत्तेजना के बाद दूसरी विरोधी उत्तेजना वैसे ही अपरिहार्य है, जैसे कि पहाड़ों के साथ घाटियां होती हैं, और दिन के साथ रात्रि। किंतु, जो सुख और दुख दोनों को छोड़ने के लिए तत्पर हो जाता है, वह उस आनंद को उपलब्ध होता है, जो कि शाश्वत है।
ह्वांग-पो एक कहानी कहता था। किसी व्यक्ति का एकमात्र पुत्र गुम गया था। उसे गुमे बहुत दिन-बहुत बरस बीत गए। सब खोजबीन करके वह व्यक्ति भी थक गया। फिर धीरे-धीरे वह घटना को ही भूल गया।
तब अनेक वर्षो बाद उसके द्वार एक अजनबी आया और उसने कहा, ''मैं आपका पुत्र हूं। आप पहचाने नहीं?'' पिता प्रसन्न हुआ। उसने घर लौटे पुत्र की खुशी में मित्रों को प्रीतिभोज दिया, उत्सव मनाया और उसका स्वागत किया। लेकिन, वह तो अपने पुत्र को भूल ही गया था और इसलिए इस दावेदार को पहचान नहीं सका। पर थोड़े दिन बाद ही पहचानना भी हो गया! वह व्यक्ति उसका पुत्र नहीं था और समय पाकर वह उसकी सारी संपत्ति लेकर भाग गया था। फिर, ह्वांग-पो कहता था कि ऐसे ही दावेदार प्रत्येक के घर आते हैं, लेकिन बहुत कम लोग हैं, जो कि उन्हें पहचानते हों। अधिक लोग तो उनके धोखे में आ जाते हैं और अपनी जीवन संपत्ति खो बैठते हैं। आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनंद की बजाय, जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनंद समझ लेते हें, वे जीवन की अमूल्य संपदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं।
स्मरण रखना कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जावेगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक संपदा है। उसे न खोजकर जो कुछ और खोजता है, वे चाहे कुछ भी पा लें, अंतत: वे पायेंगे कि उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड़ में वे स्वयं जीवन को ही गंवा बैठे हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

3 comments:

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया. जय हो, मेरे भाई.

मीनाक्षी said...

माया की माया मानव समझ कहाँ पाता है?...कुछ और पाने के मोह में जो पास होता है उसे भी गँवा बैठता है...

Anonymous said...

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