अभय-चेतना ही ईश्वरानुभूति


सुबह एक उपदेश सुना है। अनायास ही सुनने में आया है। एक साधु बोलते थे। मैं उस राह से निकलता तो सुन पड़ा। वे बोल रहे थे कि धार्मिक होने का मार्ग ईश्वर-भीरु होना है। जो ईश्वर से डरता है, वही धार्मिक है। भय ही उस पर प्रेम लाता है। 'भय बिनु होय न प्रीति।' प्रेम भय के अभाव में असंभव है।
साधारणतया, जिन्हें धार्मिक कहा जाता है, वे शायद भय के कारण ही होते हैं। जिन्हें नैतिक कहा जता है, उनके आधार में भी भय होता है।
कांट ने कहा है, 'ईश्वर न हो तो भी उसका मानना आवश्यक है।' यह भी शायद इसलिए है कि उसका भय लोगों को शुभ बनाता है।
मैं इन बातों को सुनता हूँ, तो हँसें बिना नहीं रहा जाता है। इतनी भ्रांत और असत्य शायद और कोई बात नहीं हो सकती है।
धर्म का भय से कोई संबंध नहीं है। धर्म तो अभय से उत्पन्न होता है।
प्रेम भी भय के साथ असंभव है। भय प्रेम कैसे पैदा कर सकता है? उससे तो केवल प्रेम का अभिनय ही पैदा हो सकता है। ओर अभिनय के पीछे अप्रेम के अतिरिक्त और क्या होगा? प्रेम का भय से पैदा होना एक असंभावना है।
वह धार्मिकता और नैतिकता जो भय पर आधारित होती हैं, सत्य नहीं मिथ्या है। वह आरोपण है, आत्मशक्ति का आरोहण नहीं। धर्म या प्रेम आरोपित नहीं किया जाता है। उसे तो जगाना होता है।
सत्य भय पर नहीं खड़ा होता है। वह सत्य के लिए आधार नहीं विरोध ही है। उसकी आधारशिला तो असंभव है।
धर्म और प्रेम के फूल अभय की भूमि में ही लगते हैं और भय में जो लगा लिए जाते हैं, वे फूल नहीं कागज के धोखे हैं।
ईश्वरानुभूति अभय में ही उपलब्ध होती है। या कि ठीक हो, यदि कहें कि अभय-चेतना ही ईश्वरानुभूति है। जिस क्षण समस्त भय-ग्रंथियां चित्त से विसर्जित हो जाती हैं, उस क्षण जो होता है, वही सत्य है।
(सौजन्य से : ओशे इंटरनेशनल फउंडेशन)