परिपूर्ण


एक मुर्गा बोल रहा है- सुनता हूं।
एक गाड़ी मार्ग से जा रही है- देखता हूं।
सुनना है, देखना है और बीच में कोई शब्द नहीं है। शब्द सत्ता से तोड़ देता है। शब्द सत्य के संबंध में है, सत्य नहीं है। सत्य तक शब्द से नहीं, शब्द खोकर पहुंचना होता है।
और शब्द खोना समाधि है। लेकिन केवल शब्द खोना मात्र समाधि नहीं है। शब्द तो मूच्र्छा में भी खो जाते हैं, सुषुप्ति में भी खो जाते हैं। शब्द खोकर भी जाग्रत, चेतन और प्रबुद्ध बने रहना समाधि है।
यह एक साधु से कह रहा हूं। वे तल्लीन और मूच्र्छा को समाधि मानते रहे हैं। यह भ्रम बहुतों को रहा है। यह भ्रम बहुत घातक है। इस भ्रम से ही पूजा और भक्ति और मू‌िर्च्छत होने के बहुत से उपाय प्रचलित हुए हैं। वे सब उपाय पलायन हैं और उनका उपयोग मादक द्रव्यों से भिन्न नहीं है। उनमें व्यक्ति अपने को भूल जाता है। इस भूलने से, इस आत्म-विस्मरण से आनंद का आभास पैदा होता है। पर योग आत्मा-विस्मरण नहीं, पूर्ण आत्म-स्मरण चाहता है।
मैं जब परिपूर्ण रूप से जागता हूं, तब मैं परिपूर्ण रूप से हो पाता हूं। यह जागना- शब्द से, विचार से, मन से मुक्त होने से होता है। इस जागृति में, इस शब्द-शून्य चेतना में, 'मैं' मिट जाता है। पर मैं नहीं मिटता हूं, वरन् 'मैं' के मिट जाने पर, अहं-बोध के मिट जाने पर, मैं परिपूर्ण हो जाता हूं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन) क्रांतिबीज