मैं अतृप्ति सिखाता हूं

मनुष्य को स्वयं से ही अतृप्त होना होता है, तभी उसके चरण प्रभु की दिशा में उठते हैं। जो स्वयं से तृप्त हो जाता है, वह नष्ट हो जाता है।
मैं अतृप्ति सिखाता हूं, मैं मनुष्य होने से असंतोष सिखाता हूं। मनुष्यता जीवन यात्रा का पड़ाव है, अंत नहीं। और जो उसे अंत समझ लेते हैं, वे मनुष्य से ऊपर उठने के एक अमूल्य अवसर को व्यर्थ ही खो देते हैं। हम एक लंबे विकास की मध्य कड़ी हैं। हमारा अतीत एक यात्रा-पथ था, हमारा भविष्य भी यात्रा है। विकास हम पर समाप्त नहीं है, वह हमें भी अतिक्रमण करेगा। हम अपनी ओर देखें, तो यह समझना कठिन न होगा। मनुष्य का हर भांति अधूरा और अपूर्ण होना इसका प्रमाण है। हम कोई ऐसी कृति नहीं हैं कि प्रकृति हम पर रुक जावे।
प्रभु के पूर्व विकास- यदि वस्तुत: है, तो वह कहीं भी नहीं रुक सकता है। प्रभु की पूर्णता पाने के पूर्व, विकास का न कोई सार्थक अंत हो सकता है, और न कोई अभिप्राय या अर्थ। मनुष्य प्रभु को पाने का मार्ग है। और जो मंजिल को छोड़ मार्ग से ही संतुष्ट हो जावें, उनके दुर्भाग्य को क्या कहें? पशु को हमने पीछे छोड़ा है, प्रभु को हमें आगे पाना है। हम पशु और प्रभु के बीच एक सेतु से ज्यादा नहीं हैं।
इसलिए, मैं मनुष्य के अतिक्रमण के लिये कहता हूं। मनुष्य को हमें वैसे ही पीछे छोड़ देना है, जैसे सांप अपनी केंचुली छोड़कर आगे बढ़ जाता है। मनुष्य का अतिक्रमण ही मनुष्य जीवन का सदुपयोग है। उसके अतिरिक्त सब दुरुपयोग है। मार्ग रुकने के लिए नहीं होता। उसकी सार्थकता ही उसके पार हो जाने में है।
जैसे अपने को पाते हो, उस पर ही मत रुक जाना। वह पथ का अंत नहीं प्रारंभ ही है। पूर्ण जब तक न हो जाओ, तब तक जानना कि अभी मार्ग का अंत नहीं आया है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)