प्रेम स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं !




"चूंकि मैं अपनी स्वतंत्रता चाहता हूं, अपनी प्रेयसी को हर संभव स्वतंत्रता देता हूं। लेकिन मैं पाता हूं कि पहले उसका ध्यान रखने का नतीजा यह होता है कि अंततः मैं स्वयं को ही चोट पहुंचाता हूं।'

अपनी प्रेयसी को स्वतंत्रता देने का तुम्हारा विचार ही गलत है। अपनी प्रेयसी को स्वतंत्रता देने वाले तुम कौन होते हो? तुम प्रेम कर सकते हो, और तुम्हारे प्रेम में स्वतंत्रता निहित है। यह ऐसी चीज नहीं है जो किसी को दी जा सके। यदि इसे दिया जाता है तो वही समस्याएं आएंगी जिसका तुम सामना करते हो।

सबसे पहले तुम कुछ गलत करते हो। वास्तव में तुम स्वतंत्रता देना नहीं चाहते हो; तुम चाहोगे कि कोई ऐसी परिस्थिति उत्पन्न न हो जिसमें तुम्हें स्वतंत्रता देनी पड़े। लेकिन तुमने कई बार मुझे यह कहते हुए सुना होगा कि प्रेम स्वतंत्रता देता है, इसलिए बिना सचेत हुए स्वतंत्रता देने के लिए स्वयं पर दबाव डालते हो; क्योंकि अन्यथा तुम्हारा प्रेम, प्रेम नहीं रह जाता।

तुम एक कठिन समस्या में घिरे हो: यदि तुम स्वतंत्रता नहीं देते हो तो तुम अपने प्रेम पर संदेह करने लगते हो; यदि तुम स्वतंत्रता देते हो, जो कि तुम दे नहीं सकते...अहंकार बहुत ही ईर्ष्यालु होता है। इससे हजारों प्रश्न खड़े होंगे। "क्या तुम अपनी प्रेमिका के लिए काफी नहीं हो कि वह किसी और का साथ पाने के लिए तुमसे स्वतंत्रता चाहती है? इससे चोट पहुंचती है और तुम सोचने लगते हो कि तुम अपने को किसी से कम महत्व देते हो।'

उसे स्वतंत्रता देकर तुमने किसी अन्य को पहले रखा और स्वयं को बाद में। यह अहम्‌ के विरुद्ध है और इससे कोई लाभ भी नहीं मिलने वाला है क्योंकि तुमने जो स्वतंत्रता दी है उसके लिए तुम बदला लोगे। तुम चाहोगे कि ऐसी ही स्वतंत्रता तुम्हें मिले, चाहे तुम्हें उसकी आवश्यकता है या नहीं, बात यह नहीं है-ऐसा केवल यह सिद्ध करने के लिए किया जाता है कि तुम ठगे तो नहीं जा रहे हो।

दूसरी बात, यदि तुम्हारी प्रेमिका किसी अन्य के साथ रही है तो तुम अपनी प्रेमिका के साथ रहने पर अजीब सा महसूस करोगे। यह तुम्हारे और उसके बीच बाधा बनकर खड़ा हो जाएगा। उसने किसी और को चुन लिया है और तुम्हारा त्याग कर दिया है; उसने तुम्हारा अपमान किया है।

और तुमने उसे इतना कुछ दिया है, तुम इतने उदार रहे हो, तुमने उसे स्वतंत्रता दी है। चूंकि तुम आहत महसूस कर रहे हो इसलिए तुम किसी न किसी रूप में उसे चोट पहुंचाओगे।

लेकिन यह सब कुछ गलतफहमी के कारण पैदा होता है। मैंने यह नहीं कहा है कि तुम प्रेम करते हो तो तुम्हें स्वतंत्रता देनी होगी। नहीं, मैंने कहा है कि प्रेम स्वतंत्रता है। यह देने का प्रश्न नहीं है। यदि तुम्हें यह देना पड़ता है तो इसे न देना बेहतर है। जो जैसा है उसे वैसे रहने दो। बिना कारण जटिलता क्यों उत्पन्न की जाए? पहले से ही बहुत समस्याएं हैं।

यदि तुम्हारे प्रेम में वह स्तर आ गया है कि स्वतंत्रता उसका अंग बन गया है, तब तुम्हारी प्रेमिका को अनुमति लेने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। वास्तव में, यदि मैं तुम्हारी जगह होता और मेरी प्रेमिका यदि अनुमति मांगती तो मुझे चोट पहुंचती। इसका अर्थ यह कि उसे मेरे प्रेम पर भरोसा नहीं। मेरा प्रेम स्वतंत्रता है। मैंने उससे प्रेम किया है इसका अर्थ यह नहीं है कि मुझे सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद कर देना चाहिए ताकि वह किसी के साथ हंस न सके, किसी के साथ नृत्य न कर सके, किसी से प्रेम न कर सके-क्योंकि हम कौन होते हैं?

यही मूल प्रश्न है जिसे सभी को करना चाहिए: हम कौन हैं? हम सभी अजनबी हैं, और इस आधार पर क्या हम इतने दबंग हो सकते हैं कि हम कह सकते हैं, "मैं तुम्हें स्वतंत्रता दूंगा', अथवा "मैं तुम्हें स्वतंत्रता नहीं दूंगा', "यदि तुम मुझसे प्रेम करती हो तो किसी अन्य से प्रेम नहीं कर सकती?' ये सभी मूर्खतापूर्ण मान्यताएं हैं लेकिन ये सभी मानव पर शुरू से हावी रहे हैं। और हम अभी भी असभ्य हैं; हम अभी भी नहीं जानते कि प्रेम क्या होता है।

यदि मैं किसी से प्रेम करता हूं तो मैं उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञ होता हूं कि उसने मुझे प्रेम करने दिया, उसने मेरे प्रेम को अस्वीकार नहीं किया। यह पर्याप्त है। मैं उसके लिए एक कैदखाना नहीं बन जाता। उसने मुझसे प्रेम किया और इसके बदले मैं उसके चारों ओर एक कैदखाना बना रहा हूं? मैंने उससे प्रेम किया, और इसके बदले वह मेरे चारों ओर एक कैदखाना बना रही है? हम एक दूसरे को अच्छा पुरस्कार दे रहें हैं!

यदि मैं किसी से प्रेम करता हूं तो मैं उसका कृतज्ञ होता हूं और उसकी स्वतंत्रता बनी रहती है। मैंने उसे स्वतंत्रता दी नहीं है। यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है और मेरा प्रेम उससे उसका यह अधिकार नहीं छीन सकता। कैसे प्रेम किसी व्यक्ति से उसकी स्वतंत्रता छीन सकता है, खासकर उस व्यक्ति से जिससे तुम प्रेम करते हो? तुम यह भी नहीं कह सकते कि "मैं उसे स्वतंत्रता देता हूं।' सबसे पहले तुम कौन होते हो? केवल एक अजनवी। तुम दोनों सड़क पर मिले हो, संयोग से, और वह महान है कि उसने तुम्हारे प्रेम को स्वीकार किया। उसके प्रति कृतज्ञ रहो और जिस तरह से जीना चाहती है उसे उस तरह से जीने दो, और तुम जिस तरह से जीना चाहते हो उस तरह से जीवन जीओ। तुम्हारी जीवन-शैली में कोई हस्तक्षेप नहीं करे। इसे ही स्वतंत्रता कहते हैं। तब प्रेम तुम्हें कम तनावपूर्ण, कम चिंताग्रस्त होने, कम क्रुद्ध और अधिक प्रेसन्न होने में सहायक होगा।

दुनिया में ठीक इसका उलटा हो रहा है। प्रेम काफी दुख-दर्द देता है और ऐसे भी लोग हैं जो अंततः निर्णय ले लेते हैं कि किसी से प्रेम न करना बेहतर है। वे अपने हृदय के द्वार को बंद कर देते हैं क्योंकि यह केवल नरक रह जाता और कुछ भी नहीं।

लेकिन प्रेम के लिए द्वार बंद करने का अर्थ है वास्तविकता के लिए द्वार बंद करना, अस्तित्व के लिए द्वार बंद करना; इसलिए मैं इसका समर्थन नहीं करूंगा। मैं कहूंगा कि प्रेम के संपूर्ण स्वरूप को बदल दो! तुमने प्रेम को बड़ी विचित्र परिस्थिति में धकेल दिया-इस परिस्थिति को बदलो।

प्रेम को अपनी आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बनने दो। प्रेम को अपने हृदय और साहस का पोषण बनने दो ताकि तुम्हारा हृदय किसी व्यक्ति के प्रति ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के प्रति खुल सके।


(सौजन्‍य से : ओशो न्‍यूज )

भावनाओं का निकास कैसे करें ?






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काम,, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार! शब्दों से ऐसा प्रतीत होता है, जैसे बहुत सी बीमारियां आदमी के आस-पास हैं। सचाई यह नहीं है। इतनी बीमारियां नहीं हैं, जितने नाम हमें मालूम हैं। बीमारी तो एक ही है। ऊर्जा एक ही है, जो इन सब में प्रकट होती है। अगर काम को आपने दबाया, तो क्रोध बन जाता है। और हम सबने काम को दबाया है, इसलिए सबके भीतर क्रोध कम-ज्यादा मात्रा में इकट्ठा होता है। अब अगर क्रोध से बचना हो, तो उसे कुछ रूप देना पड़ता है। नहीं तो क्रोध जीने न देगा। तो अगर आप लोभ में क्रोध की शक्ति को रूपांतरित कर सकें तो आप कम क्रोधी हो जाएंगे; आपका क्रोध लोभ में निकलना शुरू हो जाएगा। फिर आप आदमियों की गर्दन कम दबाएंगे, रुपए की गर्दन पर मुट्ठी बांध लेंगे।

एक बात खयाल में ले लेनी जरूरी है कि मनुष्य के पास एक ही ऊर्जा है, एक ही इनर्जी है। हम उसके पच्चीस प्रयोग कर सकते हैं। और अगर हम विकृत हो जाएं तो वह हजार धाराओं में बह सकती है। और अगर आपने एक-एक धारा से लड़ने की कोशिश की तो आप पागल हो जाएंगे, क्योंकि आप एक-एक से लड़ते भी रहेंगे और मूल से आपका कभी मुकाबला न होगा।

तो पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि मूल ऊर्जा एक है आदमी के पास। और अगर कोई भी रूपांतरण, कोई भी ट्रांसफार्मेशन करना है, तो मूल ऊर्जा से सीधा संपर्क साधना जरूरी है। उसकी अभिव्यक्तियों से मत उलझिए। सुगमतम मार्ग यह है कि आपके भीतर इन चार में से जो सर्वाधिक प्रबल हो, आप उससे शुरू करिए। अगर आपको लगता है कि क्रोध सर्वाधिक प्रबल है आपके भीतर, तो वह आपका चीफ करेक्टरिस्टिक हुआ। जो भी आपके भीतर खास लक्षण हो, उस पर दो काम करें। पहला काम तो यह है कि उसकी पूरी सजगता बढ़ाएं। क्योंकि कठिनाई यह है सदा कि जो हमारा खास लक्षण होता है, उसे हम सबसे ज्यादा छिपा कर रखते हैं। जैसे क्रोधी आदमी सबसे ज्यादा अपने क्रोध को छिपा कर रखता है, क्योंकि वह डरा रहता है, कहीं भी निकल न जाए। वह उसको छिपाए रखता है। वह हजार तरह के झूठ खड़े करता है अपने आस-पास, ताकि क्रोध का दूसरों को भी पता न चले, उसको खुद को भी पता न चले। और अगर पता न चले, तो उसे बदला नहीं जा सकता।

दूसरा, इसके साथ सजग होना शुरू करें। जैसे क्रोध आ गया। तो जब क्रोध आता है तो तत्काल हमें खयाल आता है उस आदमी का, जिसने क्रोध दिलवाया; उसका खयाल नहीं आता, जिसे क्रोध आया।

और जब भी हमें क्रोध पकड़ता है, तो हमारा ध्यान उस पर होता है, जिसने क्रोध शुरू करवाया है। अगर आप ऐसा ही ध्यान रखेंगे, तो क्रोध के कभी बाहर न हो सकेंगे। जब कोई क्रोध करवाए, तब उसे तत्काल भूल जाइए; और अब इसका स्मरण करिए, जिसको क्रोध हो रहा है। और ध्यान रखिए, जिसने क्रोध करवाया है, उसका आप कितना ही चिंतन करिए, आप उसमें कोई फर्क न करवा पाएंगे। फर्क कुछ भी हो सकता है, तो इसमें हो सकता है जिसे क्रोध हुआ है।

तो जब क्रोध पकड़े, लोभ पकड़े, कामवासना पकड़े-जब कुछ भी पकड़े-तो तत्काल आब्जेक्ट को छोड़ दें। क्रोध भीतर आ रहा है, तो चिल्लाएं, कूदें, फांदें, बकें, जो करना है, कमरा बंद कर लें। अपने पूरे पागलपन को पूरा अपने सामने करके देख लें। और आपको पता तब चलता है, जब यह सब घटना जा चुकी होती है, नाटक समाप्त हो गया होता है। अगर क्रोध को पूरा देखना हो, तो अकेले में करके ही पूरा देखा जा सकता है। तब कोई सीमा नहीं होती। इसलिए मैंने वह जो पिलो मेडिटेशन, वह जो तकिए पर ध्यान करने की प्रक्रिया कुछ मित्रों को करवाता हूं, वह इसलिए कि तकिए पर पूरा किया जा सकता है। तो अपने कमरे में बंद हो जाएं और अपने मूल, जो आपकी बीमारी है, उसको जब प्रकट होने का मौका हो, तब उसे प्रकट करें। इसको मेडिटेशन समझें, इसको ध्यान समझें। उसे पूरा निकालें। उसको आपके रोएं-रोएं में प्रकट होने दें। चिल्लाएं, कूदें, फांदें, जो भी हो रहा है उसे होने दें। और पीछे से देखें, आपको हंसी भी आएगी। हैरानी भी होगी।

एक-दो दफे तो आपको थोड़ी सी बेचैनी होगी, तीसरी दफे आप पूरी गति में आ जाएंगे और पूरे रस से कर पाएंगे। और जब आप पूरे रस से कर पाएंगे, तब आपको एक अदभुत अनुभव होगा कि आप कर भी रहे होंगे बाहर और बीच में कोई चेतना खड़ी होकर देखने भी लगेगी। दूसरे के साथ यह कभी होना मुश्किल है या बहुत कठिन है। एकांत में यह सरलता से हो जाएगा। चारों तरफ क्रोध की लपटें जल रही होंगी, आप बीच में खड़े होकर अलग हो जाएंगे। और ऐसा किसी भी वृत्ति के साथ किया जा सकता है। यह वृत्ति से कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रक्रिया एक ही होगी। बीमारी एक ही है, उसके नाम भर अलग हैं।
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(सौजन्‍य से : ओशो न्‍यूज लेटर)