शून्य होना ही एकमात्र पुरुषार्थ है!

संध्या बीती है, कुछ लोग आये हैं। वे कहते हैं,'आप शून्य सिखाते हैं। पर शून्य के तो विचार से ही भय लगता है। क्या कोई और सहारा व आधार नहीं हो सकता है?'
मैं उनसे कहता हूं कि शून्य में कूदने में अवश्य साहस की जरूरत है। पर जो कूद जाते हैं, वे शून्य को नहीं, पूर्ण को पाते हैं और जो कोई कल्पित सहारा और आधार पकड़ते रहते हैं, वे शून्य में ही अटके रहते हैं। कल्पनाओं के सहारे और आधार भी क्या कोई सहारे और आधार होते हैं!
सत्य का सहारा और आधार केवल शून्य से ही मिलता है। शून्य होने का अर्थ- कल्पनाओं के सहारों और आधारों से ही शून्य होना है।
एक कहानी उनसे कहता हूं - एक अमावस की अंधेरी रात्रि में, पर्वतीय निर्जन से गुजरते अजनबी यात्री ने पाया कि वह किसी खड्ड में गिर गया है। उसके पैर चट्टान से फिसल गये हैं और एक झाड़ी को पकड़ कर लटक गया है। चारों और अंधकार है। नीचे भी भयंकर अंधकार और खड्ड है। घंटों वह उस झाड़ी को पकड़ लटका रहा और इस समय में संभाव्य मृत्यु की बहुत पीड़ा सही। सर्दी की रात्रि थी। फिर क्रमश: उसके हाथ ठंडे और जड़ हो गये। अंतत: उसके हाथों ने जवाब दे दिया। उसे उस भयंकर खड्ड में गिरना ही पड़ा। उसकी कोई चेष्टा सफल नहीं हो सकी और अपनी आंखों से स्वयं को मृत्यु के मुंह में जाते देखा। वह गिरा, पर गिरा नहीं। वहां खड्ड था ही नहीं। गिरते ही उसने पाया कि वह जमीन पर खड़ा है।
ऐसे ही मैंने भी पाया है। शून्य में गिरकर पाया कि शून्य ही भूमि है। चित्त के सब आधार जो छोड़ देता है, वह प्रभु का आधार पा जाता है। शून्य होने का पुरुषार्थ ही एकमात्र पुरुषार्थ है और जो शून्य होने की शक्ति नहीं जुटा पाता है, वे 'शून्य' ही बने रह जाते हैं।
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)