जहां विचार नहीं, वहां मन नहीं!

सत्य को पाना है, तो मन को छोड़ दो। मन के न होते ही सत्य आविष्कृत हो जाता है, वैसे ही जैसे किसी ने द्वार खोल दिए हों और सूर्य का प्रकाश भीतर आ गया हो। सत्य के आगमन को मन दीवार की भांति रोके हुए है। मन की इस दीवार की ईट विचारों से बनी है। विचार, विचार और विचार- विचारों की यह श्रंखला ही मन है। रमण ने किसी से कहा था, 'विचारों को रोक दो और फिर मुझे बताओ कि मन कहां है?'
विचार जहां नहीं है, वहां मन नहीं है। ईट न हो, तो दीवार कैसे होगी?
एक साधु रात्रि आये थे। पूछते थे, 'मन के साथ क्या करूं?' मैंने कहा, 'कुछ भी न करो। मन को छोड़ दो और देखो। उसे बिलकुल छोड़ दो और बस देखते रहो। जैसे कोई नदी के किनारे बैठकर जल प्रवाह को देखता है। ऐसे ही विचार प्रवाह को देखो- अलिप्त और असंग। देखते रहो और देखते रहो। उस देखने के आघात से विचार शून्य हो जाते हैं। और मन नहीं पाया जाता है।'
मन के हटते ही उसके रिक्त स्थान में जिसका अनुभव होता है, वही आत्मा है, वही सत्य है; क्योंकि वही सत्ता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)