उसे देखो जो, सबको देखता है!

एक बैलगाड़ी निकलती है। उसके चाक देखता हूं। धुरी पर चाक घूमते हैं। जो स्वयं स्थिर है, उस पर चाकों का घूमना है। गति के पीछे स्थिर बैठा हुआ है। क्रिया के पीछे अक्रिया है। सत्ता के पीछे शून्य का वास है।
ऐसे ही एक दिन देखा धूल का एक बवंडर। धूल का गुब्बारा चक्कर खाता हुआ ऊपर उठ रहा था, पर बीच में एक केंद्र था, जहां सब शांत और स्थिर था। क्या जगत का मूल सत्य इन प्रतीकों में प्रकट नहीं है?
क्या समस्त सत्ता के पीछे शून्य नहीं बैठा हुआ है?
क्या समस्त क्रिया के पीछे अक्रिया नहीं है?
शून्य ही सत्ता का केंद्र और प्राण है। उसे ही जानना है। उसमें ही होना है, क्योंकि वही हमारा वास्तविक होना है। जो प्रत्येक अपने केंद्र पर है, वही प्रत्येक का होना है। कहीं और नहीं, जहां हम हैं, वहीं हमें चलना है।
यह होना कैसे हो?
उसे देखो जो 'देखता है' और शून्य में उतरना हो जाता है।
'दृश्य' से 'द्रष्टा' की ओर चलना है। दृश्य है रूप, क्रिया, सत्ता। दृष्टा है अरूप, अक्रिया, शून्य। 'दृश्य' है पर, अनित्य, संसार, बंधन, अमुक्ति, आवागमन। 'दृष्टा' है स्व, नित्य, ब्रह्मं, मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण। देखो- जो देखता है, उसे देखो। यही समस्त योग है।
यही रोज कह रहा हूं या जो भी कह रहा हूं, उसमें यही है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)