स्व-ज्ञान ही जीवन है


रात पानी बरसा है। उसका गीलापन अभी तक है और मिट्टी से सोंधी सुगंध उठ रही है। सूरज काफी ऊपर उठ आया है और गायों का एक झुंड जंगल जा रहा है। उनकी काठ की घंटियां बड़ी मधुर बज रही हैं। मैं थोड़ी देर तक उन्हें सुनता रहा हूं। अब गायें दूर निकल गयी हैं और घंटियों की फीकी प्रतिध्वनि ही शेष रह गयी है।
इतने में कुछ लोग मिलने आये हैं। पूछ रहे हैं, 'मृत्यु क्या है?'
मैं कहता हूं, 'जीवन को हम नहीं जानते हैं, इसलिए मृत्यु है। स्व-विस्मरण मृत्यु है, अन्यथा मृत्यु नहीं है, केवल परिवर्तन है। 'स्व' को न जानने से एक कल्पित 'स्व' हमने निर्मित किया है। यही है हमारा 'मैं' -अहंकार।'
यह है नहीं, केवल भासता है। यह झूठी इकाई ही मृत्यु में टूटती है। इसके टूटने से दुख होता है, क्योंकि इसी से हमने अपना तादात्म्य स्थापित किया था। जीवन में ही इस भ्रांति को पहचान लेना मृत्यु से बच जाना है। जीवन को जान लो और मृत्यु समाप्त हो जाती है। जो है, वह अमृत है। उसे जानते ही नित्य, शाश्वत जीवन उपलब्ध हो जाता है।
कल एक सभा में यही कहा है : 'स्व-ज्ञान जीवन है। स्व-विस्मरण मृत्यु है।'
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)