विकारों का त्याग

मैं एक प्रवचन पढ़ रहा हूं। किन्हीं साधु का है। क्रोध छोड़ने को, वासनाएं छोड़ने को कहा है। जैसे ये सब बातें छोड़ने की हों! किसी ने चाहा और छोड़ दिया! पढ़-सुन कर ऐसा ही प्रतीत होता है। इन उपदेशों को सुनकर ज्ञात होता है कि अज्ञान कितना घना है। मनुष्य के मन के संबंध में हम कितना कम जानते हैं।
एक बच्चे से एक दिन मैंने कहा कि तुम अपनी बीमारी को छोड़ क्यों नहीं देते हो? वह बीमार बच्चा हंसने लगा और बोला कि क्या बीमारी छोड़ना मेरे हाथ में है।
प्रत्येक व्यक्ति बीमारी और विकार को छोड़ना चाहता है, पर विकार की जड़ों तक जाना आवश्यक है; वे जिस अचेतन के गर्त से आते हैं, वहां तक जाना आवश्यक है- केवल चेतन-मन के संकल्प से उनसे मुक्ति नहीं पायी जा सकती है।
एक कहानी फ्रॉयड ने कही है- एक ग्रामीण शहर के किसी होटल में ठहरा था। रात्रि उसने अपने कमरे में प्रकाश को बुझाने की बहुत कोशिश की पर असफल ही रहा। उसने प्रकाश को फूंक कर बुझाना चाहा, बहुत भांति फूंका, पर प्रकाश था कि अकंपित जलता ही गया। उसने सुबह इसकी शिकायत की। शिकायत के उत्तर में उसे ज्ञात हुआ कि वह प्रकाश दिये का नहीं था, जो फूंकने से बुझ जाता- वह प्रकाश तो विद्युत का था।
और मैं कहता हूं कि मनुष्य के विकारों को भी फूंककर बुझाने की विधि गलत है। वे मिट्टी के दिये नहीं हैं; विद्युत के दिये हैं। उन्हें बुझाने की विधि अचेतन में छिपी है। चेतन के सब संकल्प फूंकने की भांति व्यर्थ हैं। केवल अचेतन में योग्य माध्यम से उतरकर ही उनकी जड़े तोड़ी जा सकती हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)