जो केवल 'है'


'एक सराय में एक रात एक यात्री ठहरा था। वह जब वहां पहुंचा तो कुछ यात्री विदा हो रहे थे। सुबह जब वह विदा हो रहा था, तो कुछ और यात्री आ रहे थे। सराय में अतिथि आते और चले जाते, लेकिन आतिथेय वहीं का वहीं था।' एक साधु यह कह कर पूछता था कि क्या यही घटना मनुष्य के साथ प्रतिक्षण नहीं घट रही है?
मैं भी यही पूछता हूं और कहता हूं कि जीवन में अतिथि और आतिथेय को पहचान लेने से बड़ी और कोई बात नहीं है। शरीर-मन एक सराय है। उसमें विचार के, वासनाओं के, विकारों के अतिथि आते हैं। पर इन अतिथियों से पृथक भी वहां कुछ है। आतिथेय भी है। वह आतिथेय कौन है?
यह 'कौन' कैसे जाना जाये? बुद्ध ने कहा है, 'रुक जाओ।' और यह रुक जाना ही उसका जानना है। बुद्ध का पूरा वचन है, 'यह पागल मन रुकता नहीं, यदि यह रुक जाए तो वही बोधि है, वही निर्वाण है।' मन के रुकते ही आतिथेय प्रकट हो जाता है। वह शुद्ध, नित्य, बुद्ध, चैतन्य है। जो न कभी जन्मा, न मरा। न जो बद्ध है, न मुक्त होता है। जो केवल 'है', और जिसका होना परमा आनंद है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)