नीति मार्ग नहीं है।

 नीति मार्ग है इस तरह की बातें हजारों साल से प्रचलित हैं। और लोगों को यह भी खयाल है कि नैतिक हुए बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता, नैतिक होगा तब धार्मिक होगा।

मैं आपसे कहना चाहूंगा, नैतिक होने से कोई कभी धार्मिक नहीं होता है। हां, कोई धार्मिक हो जाए तो जरूर नैतिक हो जाता है। इन दो बातों को ठीक से समझ लेना जरूरी होगा।
नीति से धर्म पैदा नहीं होता, धर्म से नीति पैदा होती है। नैतिकता से तो एक तरह का पाखंड पैदा होता है धर्म पैदा नहीं होता। क्योंकि नैतिकता आचरण का परिवर्तन है, आत्मा का परिवर्तन नहीं है। और हमारी आत्मा तो होती है कुछ और आचरण हम बदल लेते हैं कुछ। प्राण तो कहते हैं चोरी करो और बुद्धि कहती है चोरी मत करो। भीतर से तो कोई कहता है कि यह करो, सुनी हुई नैतिकता कहती है यह मत करो। मनुष्य एक द्वंद्व में टूट जाता है। भीतर उठता है कि असत्य बोलो, नैतिकता को ध्यान में रख कर सत्य बोलने की कोशिश करता है।
आप कहेंगे कि क्या यह जरूरी है कि ऐसा होता हो? हां, ऐसा ही होता है। और बिलकुल जरूरी है। नहीं तो सत्य बोलने की कोशिश ही न करनी पड़े। अगर असत्य न उठता हो तो सत्य बोलने की कोशिश का सवाल ही क्या है। अगर भीतर बेईमानी न उठती हो तो ईमानदार होने का सवाल ही क्या है। भीतर चोरी उठती है इसलिए बाहर से हम चोरी से अपने को रोकते हैं। और इस रोकने में क्या होता है, मनुष्य दो हिस्सों में टूट जाता है। भीतर चोर रह जाता है आचरण में अचोर हो जाता है। मनुष्य दो हिस्सों में टूट जाता है। आत्मा तो कमसिद बनी रहती है और आचरण शुद्ध खादी के वस्त्रों जैसा हो जाता है सफेद, धुला हुआ। यह आचरण बड़ा धोखा पैदा करता है। यह दूसरों को तो धोखा देता ही है इससे खुद को भी धोखा पैदा होता है। और यह धोखा पैदा होगा, क्योंकि जीवन का जो वास्तविक परिवर्तन है, आचरण तो परिधि है, केंद्र तो आत्मा है। अगर आत्मा परिवर्तित हो तो आचरण अपने आप बदल जाता है। लेकिन आचरण बदले लें तो आत्मा अपने आप नहीं बदलती। जीवन भर चोरी न करें, तो भी भीतर से चोरी समाप्त नहीं होती। और जीवन भर विनम्र बने रहें तो भी भीतर से अहंकार नहीं जाता है, वह मौजूद होता है भीतर। क्योंकि जीवन के परिवर्तन की जो ठीक विधि है वह यह नहीं है। जीवन के परिवर्तन की ठीक विधि यह है कि पहले आत्मा, केंद्र बदल जाए, तो फिर परिधि अपने आप बदल जाती है। नहीं तो हम किसी न किसी रूप में चीजों से चिपके रहते हैं वहीं के वहीं।
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(सौजन्‍य से- आोशो न्‍यूज लेटर )

प्रीति रूपांतरकारी रसायन


एक तत्व हमारे भीतर है, जिसको प्रीति कहें। यह जो तत्व हमारे भीतर है-प्रीति, इसी के आधार पर हम जीते हैं। चाहे हम गलत ही जीएं, तो भी हमारा आधार प्रीति ही होता है।
कोई आदमी धन कमाने में लगा है; धन तो ऊपर की बात है, भीतर तो प्रीति से ही जी रहा है--धन से उसकी प्रीति है। कोई आदमी पद के पीछे पागल है; पद तो गौण है, प्रतिष्ठा की प्रीति है। जहां भी खोजोगे, तो तुम प्रीति को ही पाओगे। कोई वेश्यालय चला गया है, और किसी ने किसी की हत्या कर दी है--पापी में और पुण्यात्मा में, तुम एक ही तत्व को एक साथ पाओगे, वह तत्व प्रीति है। फिर प्रीति किससे लग गई, उससे भेद पड़ता है। धन से लग गई तो तुम धन ही होकर रह जाते हो। ठीकरे हो जाते हो। कागज के सड़े-गले नोट होकर मरते हो।
जिससे प्रीति लगी, वही हो जाओगे।
यह बड़ा बुनियादी सत्य है; इसे हृदय में सम्हाल कर रखना। प्रीति महंगा सौदा है, हर किसी से मत लगा लेना। जिससे लगाई वैसे ही हो जाओगे। वैसा होना हो तो ही लगाना। प्रीति का अर्थ ही यही होता है कि मैं यह होना चाहता हूं। राजनेता गांव में आया और तुम भीड़ करके पहुंच गए, फूलमालाएं सजा कर-किस बात की खबर है? तुम गहरे में चाहते हो कि मेरे पास भी पद हो, प्रतिष्ठा हो; इसलिए पद और प्रतिष्ठा की पूजा है। कोई फकीर गांव में आया और तुम पहुंच गए; उससे भी तुम्हारी प्रीति की खबर मिलती है कि तड़फ रहे हो फकीर होने को-कि कब होगा वह मुक्ति का क्षण, जब सब छोड़-छाड़...जब किसी चीज पर मेरी कोई पकड़ न रह जाएगी। कोई संगीत सुनता है तो धीरे-धीरे उसकी चेतना में संगीत की छाया पड़ने लगती है। तुम जिससे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे; जिनसे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे। तो प्रीति का तत्व रूपांतरकारी है। प्रीति का तत्व भीतरी रसायन है। और बिना प्रीति के कोई भी नहीं रह सकता। प्रीति ऐसी अनिवार्य है जैसे श्वास। जैसे शरीर श्वास से जीता, आत्मा प्रीति से जीती। इसलिए अगर तुम्हारे जीवन में कोई प्रीति न हो, तो तुम आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। या कभी तुम्हारी प्रीति का सेतु टूट जाए, तो आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। घर में आग लग गई और सारा धन जल गया, और तुमने आत्महत्या कर ली; क्या तुम कह रहे हो? तुम यह कहते हो: यह घर ही मैं था, यह मेरी प्रीति थी। अब यही न रहा तो मेरे रहने का क्या अर्थ! तुम्हारी पत्नी मर गई और तुमने आत्महत्या कर ली; तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो: यह मेरी प्रीति का आधार था। जब मेरी प्रीति उजड़ गई, मेरा संसार उजड़ गया। अब मेरे रहने में कोई सार नहीं।
हम प्रीति के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं। बिना प्रीति के कोई भी नहीं जी सकता। जैसे बिना श्वास लिए शरीर नहीं रहेगा, वैसे ही बिना प्रीति के आत्मा नहीं टिकेगी। प्रीति है तो आत्मा टिकी रहती है। फिर प्रीति गलत से भी हो तो भी आत्मा टिकी रहती है। मगर चाहिए, प्रीति तो चाहिए-गलत हो कि सही।
फिर प्रीति के बहुत ढंग हैं, वे समझ लेने चाहिए। एक प्रीति है जो तुम्हारी पत्नी में होती है, मित्रों में होती है, पति में होती है, भाई-बहन में होती है। उस प्रीति को हम प्रेम कहते हैं। प्रेम का अर्थ होता है: उसके साथ जो समतल है। तुमसे ऊपर भी नहीं, तुमसे नीचे भी नहीं; तुम्हारे जैसा है; जिससे आलिंगन हो सकता है; उसको प्रेम कहते हैं। समतुल व्यक्तियों में प्रीति होती है तो प्रेम कहते हैं।
फिर एक प्रीति होती है माता, पिता या गुरु में; उसे श्रद्धा कहते हैं। कोई तुमसे ऊपर है; प्रीति को पहाड़ चढ़ना पड़ता है। इसलिए श्रद्धा कठिन होती है। श्रद्धा में दांव लगाना पड़ता है। श्रद्धा में चढ़ाई है। इसलिए बहुत कम लोगों में वैसी प्रीति मिलेगी जिसको श्रद्धा कहें। माता-पिता से कौन प्रीति करता है! कर्तव्य निभाते हैं लोग। दिखाते हैं। उपचार। दिखाना पड़ता है। प्रीति कहां! अपने से ऊपर प्रीति करने में पहाड़ चढ़ने की हिम्मत होनी चाहिए। और ध्यान रखना, तुम अपने से ऊपर, जितने ऊपर प्रीति करोगे, उतने ही तुम ऊपर जाने लगोगे, तुम्हारी चेतना ऊर्ध्वगामी होगी। इसलिए तो हमने श्रद्धा को बड़ा मूल्य दिया है सदियों से, क्योंकि श्रद्धा आदमी को बदलती है, अपने से पार ले जाती है। तुम्हारे हाथ तुमसे ऊपर की तरफ उठने लगते हैं और तुम्हारे पैर किसी ऊर्ध्वगमन पर गतिमान होते हैं। तुम्हारी आंखें ऊंचे शिखरों से टकराती और चुनौती लेती हैं।


जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं है, उसके जीवन में विकास नहीं है। विकास हो ही नहीं सकता। अपने से छोटे के प्रति जो प्रीति होती है उसका नाम स्नेह है। मेरे देखे, अपने से छोटे के प्रति सच्ची प्रीति और ठीक प्रीति तभी होती है जब अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा हो; अन्यथा नहीं होती; अन्यथा झूठी होती है। जिस व्यक्ति के जीवन में अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा है, सम्यक श्रद्धा है, उस व्यक्ति के जीवन में अपने से छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है। और उस व्यक्ति के जीवन में एक और क्रांति घटती है-अपने से सम के प्रति सम्यक प्रेम होता है। उसके जीवन में प्रेम का छंद बंध जाता है। छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है, धारा की तरह बहता है उसका प्रेम। बेशर्त। वह कोई शर्तबंदी नहीं करता कि तुम ऐसा करोगे तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा, कि तुम ऐसे होओगे तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा।


(सौजन्य से : ओशो  न्यूंज लेटर)




शरीर और मन दो अलग चीजें नहीं हैं।



योग का कहना है कि हमारे भीतर शरीर और मन, ऐसी दो चीजें नहीं हैं। हमारे भीतर चेतन और अचेतन, ऐसी दो चीजें नहीं हैं। हमारे भीतर एक ही अस्तित्व है, जिसके ये दो छोर हैं। और इसलिए किसी भी छोर से प्रभावित किया जा सकता है। तिब्बत में एक प्रयोग है, जिसका नाम हीट-योग है, उष्णता का योग। वह तिब्बत में सैकड़ों फकीर हैं ऐसे जो नंगे बर्फ पर बैठे रह सकते हैं और उनके शरीर से पसीना चूता रहता है। इस सबकी वैज्ञानिक जांच-परख हो चुकी है। इस सबकी डाक्टरी जांच-परख हो चुकी है। और चिकित्सक बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं कि यह क्या हो रहा है? एक आदमी बर्फ पर बैठा है नंगा, चारों तरफ बर्फ पड़ रही है, बर्फीली हवाएं बह रही हैं, और उसके शरीर पर पसीना बह रहा है! क्या हुआ है इसको? यह आदमी योग के सूत्र का प्रयोग कर रहा है। इसने मन से मानने से इनकार कर दिया कि बर्फ पड़ रही है। यह आंख बंद करके यह कह रहा है, बर्फ नहीं पड़ रही है। यह आंख बंद करके कह रहा है कि सूरज तपा है और धूप बरस रही है। और यह आदमी आंख बंद करके कह रहा है कि मैं गरमी से तड़पा जा रहा हूं। शरीर उसका अनुसरण कर रहा है, वह पसीना छोड़ रहा है।
दक्षिण में एक योगी थे—ब्रह्मयोगी। उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी, रंगून यूनिवर्सिटी और आक्सफोर्ड, तीनों जगह कुछ प्रयोग करके दिखाया। वे किसी भी तरह का जहर पी लेते थे और आधा घंटे के भीतर उस जहर को शरीर के बाहर पेशाब से निकाल देते थे। किसी भी तरह का जहर उनके खून में कभी मिश्रित नहीं होता था। सब तरह के एक्सरे परीक्षण हुए। और मुश्किल में पड़ गई बात कि क्या मामला है? और वह आदमी इतना ही कहता था कि मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मैं मन को कहता हूं कि मैं स्वीकार नहीं करूंगा जहर। बस इतना मेरा अभ्यास है।
लेकिन रंगून यूनिवर्सिटी में प्रयोग करने के बाद वे मर गए, जहर खून में पहुंच गया। आधा घंटे तक ही उनका संकल्प काम कर पाता था। इसलिए आधा घंटे के पहले जहर को शरीर के बाहर कर देना जरूरी था। आधा घंटे के बाद उनको भी शक होने लगता था कि कहीं जहर मिल ही न जाए। आधा घंटे तक वे अपने संकल्प को मजबूत रख पाते थे। आधा घंटे के बाद शक उनको भी पकड़ने लगता था कि कहीं जहर मिल न जाए। शक बड़ी अजीब चीज है। जो आदमी आधा घंटे तक जहर को अपने खून से दूर रखे, उसको भी पकड़ जाता है कि कहीं पकड़ न जाए जहर।
वे रंगून यूनिवर्सिटी से, जहां ठहरे थे वहां के लिए कार से निकले, और कार बीच में खराब हो गई और वे अपने स्थान पर तीस मिनट की बजाय पैंतालीस मिनट में पहुंच पाए, लेकिन बेहोश पहुंचे। वे पंद्रह मिनट उनकी मृत्यु का कारण बने। सैकड़ों योगियों ने खून की गति पर नियंत्रण घोषित किया है। कहीं से भी कोई भी वेन काट दी जाए, खून उनकी आज्ञा से बहेगा या बंद होगा।
यह तो आप भी छोटा-मोटा प्रयोग करें तो बहुत अच्छा होगा। अपनी नाड़ी को गिन लें। और गिनने के बाद पांच मिनट बैठ जाएं और मन में सिर्फ इतना सोचते रहें कि मेरी नाड़ी की रफ्तार तेज हो रही है, तेज हो रही है, तेज हो रही है। और पांच मिनट बाद फिर नाड़ी को गिनें। तो आप पाएंगे, रफ्तार तेज हो गई है। कम भी हो सकती है। लंबा प्रयोग करें तो बंद भी हो सकती है। हृदय की धड़कन भी, अति सूक्ष्मतम हिस्से तक बंद की जा सकेगी, खून की गति भी बंद की जा सकेगी। शरीर और मन, ऐसी दो चीजें नहीं हैं; शरीर और मन एक ही चीज का विस्तार हैं, एक ही चीज के अलग-अलग वेवलेंथ हैं। चेतन और अचेतन एक का ही विस्तार हैं।
योग के सारे के सारे प्रयोग इस सूत्र पर खड़े हैं। इसलिए योग मानता है, कहीं से भी शुरू किया जा सकता है। शरीर से भी शुरू की जा सकती है यात्रा और मन से भी शुरू की जा सकती है। बीमारी भी, स्वास्थ्य भी, सौंदर्य भी, शक्ति भी, उम्र भी—शरीर से भी प्रभावित होती है, मन से भी प्रभावित होती है।
बर्नार्ड शा लंदन से कोई बीस मील दूर एक गांव को चुना था अपनी कब्र बनाने के लिए। और मरने के कुछ दिन पहले उस गांव में जाकर रहने लगा। उसके मित्रों ने कहा कि कारण क्या है इस गांव को चुनने का? तो बर्नार्ड शा ने कहा, इस गांव को चुनने का एक बहुत अजीब कारण है। बताऊं तो तुम हंसोगे। लेकिन फिर कोई हर्ज नहीं, तुम हंसना, मैं तुम्हें कारण बताता हूं। ऐसे ही एक दिन इस गांव में घूमने आया था। इस गांव के कब्रिस्तान पर घूमने गया था। वहां एक कब्र पर मैंने एक पत्थर लगा देखा। उसको देख कर मैंने तय किया कि इस गांव में रहना चाहिए। उस पत्थर पर लिखा था—किसी आदमी की मौत का पत्थर था—लिखा था: यह आदमी सोलह सौ दस में पैदा हुआ और सत्रह सौ दस में बहुत कम उम्र में मर गया। तो बर्नार्ड शा ने कहा कि जिस गांव के लोग सौ वर्ष को कम उम्र मानते हैं, अगर ज्यादा जीना हो तो उसी गांव में रहना चाहिए। यह तो उसका मजाक ही था, लेकिन बर्नार्ड शा काफी उम्र तक जीया भी। उस गांव की वजह से जीया, यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन उस पत्थर को बर्नार्ड शा ने चुना, यह तो उसके मन का चुनाव है, यह ज्यादा जीने की आकांक्षा का हिस्सा तो है ही। यह हिस्सा उसके ज्यादा जीने में कारण बन सकता है।
जिन मुल्कों में उम्र कम है, उन मुल्कों में सभी लोग कम उम्र की वजह से मर जाते हैं, ऐसा सोचना जरूरी नहीं है। उन मुल्कों में कम उम्र होने की वजह से हमारी उम्र की अपेक्षाएं भी कम हो जाती हैं। हम जल्दी बूढ़े होने लगते हैं, हम जल्दी मरने का विचार करने लगते हैं, हम जल्दी तय करते हैं कि अब वक्त आ गया। जिन मुल्कों में उम्र की अपेक्षाएं ज्यादा हैं, उनमें जल्दी कोई तय नहीं करता, क्योंकि अभी वक्त आया नहीं। तो मरने का खयाल अगर जल्दी प्रवेश कर जाए तो जल्दी परिणाम आने शुरू हो जाएंगे। मन मरने को राजी हो गया। अगर मन मरने को राजी न हो तो देर तक लंबाया जा सकता है।


(सौजन्यब से : ओशो न्यूज लेटर)