नीति मार्ग नहीं है --गतांक से आगे


दो व्यक्ति पति और पत्नी जंगल से लौटते थे। वे दोनों बहुत साधु-चरित्र थे, बहुत नैतिक थे। न तो चोरी करते थे, न बेईमानी, न असत्य बोलते थे, न संपत्ति का संग्रह करते थे। लकड़ियां काट लाते थे जंगल से, बेच देते थे, जो मिलता था उसे खा लेते थे। सांझ जो चावल, गेहूं के दाने बच जाते थे उनको बांट देते थे, रात उनके पास कुछ भी नहीं होता था। दूसरे दिन सुबह फिर जंगल जाते और लकड़ी काट लाते। लेकिन एक बार सात दिन तक पानी गिरता रहा, और वे जंगल नहीं जा सके और सात दिन उपवास करना पड़ा। लेकिन उन्होंने किया। उन्होंने पड़ोसियों से मांगा नहीं। पड़ोसियों ने देना भी चाहा, तो वे लेने को राजी न हुए।
सात दिन बाद पानी खुला और वे जंगल गए। वे लकड़ियां काट कर लौटते थे। पति आगे था पत्नी पीछे थी। कमजोर हो गए थे, सात दिन के भूखे थे, परेशान थे। और फिर लकड़ियों को काटने का श्रम और बोझ। पति थोड़ा आगे पत्नी थोड़ी पीछे। पति ने देखा कि राह के किनारे किसी राहगीर की सोने की अशर्फियों से भरी हुई थैली गिर गई है, कुछ अशर्फियां बाहर पड़ी हैं, कुछ थैली के भीतर हैं। उसके मन में हुआ, मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया है, मेरे मन में तो स्वर्ण के प्रति कोई कामना और वासना नहीं उठती। लेकिन स्त्री का क्या भरोसा। पुरुषों को आज तक स्त्रियों का भरोसा कभी भी नहीं रहा है। उसको भी नहीं था। इसलिए पुरुषों ने जो धर्म बनाएं हैं उनमें स्त्रियों को मोक्ष जाने की व्यवस्था नहीं की है। उनका कोई भरोसा नहीं है। स्त्रियां शास्त्र बनातीं तो शायद पुरुष का भरोसा उसमें नहीं होता, और पुरुष को स्वर्ग जाने की कोई व्यवस्था नहीं होती। लेकिन चूंकि सभी शास्त्र पुरुषों ने बनाएं हैं इसलिए स्त्रियों को कोई हक स्वर्ग वगैरह, मोक्ष वगैरह जाने का नहीं है।

उसने भी सोचा कि नहीं, यह स्त्री का क्या भरोसा। इसकी नैतिकता का कोई पक्का विश्वास नहीं है। स्त्री ही ठहरी, मन डांवाडोल हो सकता है। तो उसने उस थैली को सरका दिया गड्ढे में और मिट्टी डाल दी। पीछे से तब तक उसकी स्त्री भी आ गई, वह मिट्टी डाल ही रहा था। उसकी स्त्री ने पूछा कि क्या करते हैं? सत्य बोलने का नियम था। नैतिक आदमी था, झूठ बोल सकता नहीं था। तो बड़ी मुश्किल में पड़ गया। बताना पड़ा उसे कि ऐसा-ऐसा हुआ, यहां थैली पड़ी थी अशर्फियों से भरी, मेरे मन में हुआ कि मैंने तो स्वर्ण को जीत लिया लेकिन मेरी स्त्री का मन न डोल जाए। इसलिए मैंने उस स्वर्ण की थैली को गड्ढे में डाल कर मिट्टी से ढंक दिया है।
उसकी स्त्री बोली: मैं बहुत हैरान हूं, तुम्हें अभी स्वर्ण दिखाई पड़ता है? और अभी तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आती? तुम्हें अभी स्वर्ण दिखाई पड़ता है? और मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आती?
यह स्त्री धार्मिक है और वह पुरुष नैतिक है। उसने अपने आचरण को तो ठोंक-पीट कर बदल लिया है, लेकिन उसकी आत्मा में वही सब वासनाएं मौजूद हैं स्वर्ण के प्रति। स्त्री पर तो वह प्रोजेक्ट कर रहा है। उसके भीतर वह मौजूद है। स्त्री का तो बहाना ले रहा है, उस पर ढाल रहा है। लेकिन स्त्री धार्मिक है। वह यह कह रही है कि तुम्हें मिट्टी पर मिट्टी डालते हुए शर्म नहीं आती। जब आत्मा से कोई परिवर्तन होता है तो सोना छोड़ना नहीं पड़ता, सोना मिट्टी हो जाता है। और जब नैतिक परिवर्तन होता है तो सोना छोड़ना पड़ता है, सोना मिट्टी नहीं होता।
तो चाहे सोने को पकड़ो और चाहे छोड़ो, ये दोनों हालत में कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं है। लेकिन जिस दिन सोना मिट्टी ही हो जाए, उसी दिन कोई फर्क है। और सोना उसी दिन मिट्टी होगा जिस दिन आत्मा का दर्शन हो जाए उसके पहले नहीं। जिसको अपना शरीर ही दिखाई पड़ रहा है उसे सोना मिट्टी कभी नहीं हो सकता। वह चाहे छोड़े और चाहे इकट्ठा करे। जिसने अभी अपने शरीर के पार नहीं देखा है उसे सोना मिट्टी नहीं हो सकता। जो अपने शरीर के पार देखने में समर्थ हो जाता है उसे शरीर मिट्टी हो जाता है। और शरीर मिट्टी हो जाता है इसलिए शरीर की दुनिया का सब कुछ मिट्टी हो जाता है। उसमें सोना भी मिट्टी हो जाता है। तब छोड़ना नहीं पड़ता।
धार्मिक चित्त चीजों को छोड़ता नहीं है। नैतिक चित्त छोड़ता है। और यह बड़े मजे की बात है जिस चीज को आप छोड़ते हैं उससे आप हमेशा कि लिए बंध जाते हैं, उससे कभी मुक्त नहीं होते। छोड़ कर देख लें कोई चीज, उससे आप बंध जाएंगे। क्योंकि छोड़ने का मतलब यह है कि भीतर रस था, जबरदस्ती धक्का दिया और छोड़ दिया, रस मौजूद है। धार्मिक चित्त से चीजें छूटती हैं, छोड़ी नहीं जातीं। जैसे पके पत्ते गिर जाते हैं वृक्ष से, वैसे धार्मिक चित्त से कुछ चीजें गिर जाती हैं, झड़ जाती हैं। उन्हें कोई छोड़ता नहीं है। धार्मिक व्यक्ति असत्य बोलना छोड़ता नहीं है असमर्थ हो जाता है असत्य बोलने में। नैतिक व्यक्ति समर्थ होता है असत्य बोलने में, लेकिन असत्य बोलना छोड़ता है। इससे एक द्वंद्व उसके भीतर पैदा होता है।
      ---जारी