रेत के घरों से खेलते बच्चे!


मृण्मय घरों को ही ही बनाने में जीवन को व्यय मत करो। उस चिन्मय घर का भी स्मरण करो, जिसे कि पीछे छोड़ आये हो और जहां कि आगे भी जाना है। उसका स्मरण आते ही ये घर फिर घर नहीं रह जाते हैं।
''नदी की रेत में कुछ बच्चे खेल रहे थे। उन्होंने रेत के मकान बनाये थे और प्रत्येक कह रहा था, 'यह मेरा है और सबसे श्रेष्ठ है। इसे कोई दूसरा नहीं पा सकता है।' ऐसे वे खेलते रहे। और जब किसी ने किसी के महल को तोड़ दिया, तो लड़े-झगड़े भी। फिर, सांझ का अंधेरा घिर आया। उन्हें घर लौटने का स्मरण हुआ। महल जहां थे, वहीं पड़े रह गये और फिर उनमें उनका 'मेरा' और 'तेरा' भी न रहा।''
यह प्रबोध प्रसंग कहीं पढ़ा था। मैंने कहा, '' यह छोटा सा प्रसंग कितना सत्य है। और, क्या हम सब भी रेत पर महल बनाते बच्चों की भांति नहीं हैं? और कितने कम ऐसे लोग हैं, जिन्हें सूर्य के डूबते देखकर घर लौटने का स्मरण आता हो! और, क्या अधिक लोग रेत के घरों में 'मेरा' 'तेरा' का भाव लिये ही जगत से विदा नहीं हो जाते हैं!''
स्मरण रखना कि प्रौढ़ता का उम्र से कोई संबंध नहीं। मिट्टी के घरों में जिसकी आस्था न रही, उसे ही मैं प्रौढ़ कहता हूं। शेष सब तो रेत के घरों में खेलते बच्चे ही हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)