जहां मृत्यु जीवन है


आकाश आज तारों से नहीं भरा है। काली बदलियां घिरी हैं और रह-रह कर बूंदे पड़ रही हें।
रातरानी के फूल खिल गये हैं और हवाएं सुवासित हो गयी हैं।
मैं हूं ऐसा कि जैसे नहीं ही हूं और न होकर, होना पूर्ण हो गया है। एक जगत है, जहां मृत्यु जीवन है और जहां खो जाना, पा जाना है। एक दिन सोचता था, बूंद को सागर में गिरा देना है। अब पाता हूं कि यह तो सागर ही बूंद में गिर आया है।
मनुष्य का 'होना' ही उसका बंधन है। उसका शून्य होना मुक्ति है। यह 'होना' की गांठ व्यर्थ ही भटकती है। और शून्य होने का भय पूर्ण होने से रोकता है। जब तक 'न-कुछ' होने की तैयारी नहीं है, तब तक मनुष्य 'न-कुछ' ही बना रहता है। मृत्यु में उतरने का जब तक साहस नहीं है, तब तक मृत्यु में ही भटकना होता है। पर जो मृत्यु लेने को तैयार हो जाता है, वह पाता है कि मृत्यु है ही नहीं। और जो मिटने को राजी हो जाता है, वह पाता है कि उसमें कुछ है जो कि मिट ही नहीं सकता है।
ऐसा विरोध का नियम, जीवन का नियम है। इस नियम को जानना योग है। और ठीक से जान लेना उसके बाहर हो जाना है। विरोध के इस नियम का ज्ञात न होना ही भटकाता है। उसके ज्ञात हो जाने से भटकन समाप्त हो जाती है। और वह उपलब्ध होता है, जो कि यात्रा का पड़ाव नहीं, यात्रा का अंत है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)