द्वंद्व में नहीं, द्वंद्व को देखने वाले 'ज्ञान' में स्थिर हों!

एक यात्रा से लौटा हूं। जहां गया था, वहां बहुत से साधु-साध्वियों से मिलना हुआ। साधना तो बिलकुल नहीं है और साधु बहुत हैं। सब तरफ कागज ही कागज के फूल दिखाई देते हैं।
साधना के अभाव में धर्म असंभव है। फिर, धर्म के नाम से जो चलता है, उससे अधर्म का ही पोषण होते है। धर्म ऊपर और अधर्म भीतर होता है। यह स्वाभाविक ही है। जिन पौधों में जड़े नहीं हैं, वे ऊपर से खोंसे हुए ही होंगे। किसी उत्सव में उनसे शोभा बन सकती है, पर उन पौधों में फूल और फल तो नहीं लग सकते हैं।
धर्म की जड़े साधना में हैं, योग में हैं। योग के अभाव में साधु का जीवन या तो मात्र अभिनय हो सकता है या फिर दमन हो सकता है। दोनो ही बातें शुभ नहीं हैं। सदाचरण का मिथ्या अभिनय पाखण्ड है और दमन भी घातक है। उसमें संघर्ष तो है, पर उपलब्धि कोई नहीं। जिसे दबाया है, वह मरता नहीं, वरन और गहरी परतों पर सरक जाता है।
एक और वासना की पीड़ाएं हैं, उनकी ज्वालाओं में उत्तप्त और ज्वरग्रस्त जीवन है, तृष्णा की दुष्पूर दौड़ दुख है। दूसरी ओर दमन और आत्म-उत्पीड़न की अग्निशिखाएं हैं। एक ओर कुएं से जो बचता है, वह दूसरी ओर की खाई में गिर जाता है।
योग न भोग है, न दमन है। वह तो दोनों से जागरण है। अतियों के द्वंद्व में से किसी को भी नहीं पकड़ना है। द्वंद्व का कोई भी पक्ष द्वंद्व से बाहर नहीं ले जा सकता है। उनके बाहर जाना, उनमें से किसी को भी चुनकर नही हो सकता है। जो उनमें से किसी को भी चुनता और पकड़ता है, वह उनके द्वारा ही चुना और पकड़ लिया जाता है।
योग किसी को पकड़ना नहीं है, वरन समस्त पकड़ को छोड़ना है। किसी के पक्ष में किसी को नहीं छोड़ना है। बस बिना किसी पक्ष के, निष्पक्ष ही सब पकड़ छोड़ देनी है। पकड़ ही भूल है। वही कुएं में या खाई में गिरा देती है। वही अतियों में और द्वंद्वों में और संघर्षो में ले जाती है। जबकि मार्ग वहां है, जहां कोई अति नहीं है, जहां कोई दुई नहीं है, जहां कोई संघर्ष नहीं है। चुनाव न करें, वरन चुनाव करने वाली चेतना में प्रतिष्ठित हों। द्वंद्व में न पड़ें, वरन द्वंद्व को देखने वाले 'ज्ञान' में स्थिर हों। उसमें प्रतिष्ठा ही प्रज्ञा है और वह प्रज्ञा ही प्रकाश में जाने का द्वार है। वह द्वार निकट है।
जो अपनी चेतना की लौ को द्वंद्वों की आंधियों से मुक्त कर लेता हैं, वे उस कुंजी को पा लेते हैं, जिससे सत्य का वह द्वार खुलता है।
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)