कल्पना, स्वप्न और धारणाओं के विसर्जन करो


सुबह ही सुबह एक युवक आ गये हैं। उदास दिखते हैं और लगता है, जैसे भीतर किसी एकाकीपन ने घेर लिया है। कुछ जैसे खो गया है और आंखें उसे खोजती मालूम होती है। मेरे पास वे कई वर्ष से आ रहे हैं और ऐसे भी एक दिन आयेंगे यह भी भलीभांति जानता था। इसके पूर्व उनमें काल्पनिक आनंद था, वह धीरे-धीरे विलीन हो गया है।
कुछ देर सन्नाटा सरकता रहा है। उन्होंने आंखें बंद कर ली हैं और कुछ सोचते मालूम होते हैं। फिर प्रकटत: बोले, 'मैं अपनी आस्था खो चुका हूं, मैं एक स्वप्न में था, वह जैसे खंडित हो गया है। ईश्वर साथ मालूम होते था, अब अकेला रह गया हूं और बहुत घबराहट होती है। इतना असहाय तो मैं कभी भी नहीं था। पीछे वापस लौटना चाहता हूं, पर वह भी अब संभव नहीं दिखता है। वह सेतु खंडहर सा हो गया है।'
मैं कहता हूं : जो नहीं था, केवल वही छीना जा सकता है। जो है, उसका छीनना संभव नहीं है। स्वप्न और कल्पना के साथी से एकाकीपन मिटता नहीं है, केवल मूच्र्छा में दब जाता है। ईश्वर की कल्पना और मानसिक प्रक्षेप से मिला आनंद वास्तविक नहीं है। वह सहारा नहीं भ्रांति है। और भ्रांतियों से जितनी जल्दी छुटकारा हो, उतना ही अच्छा है। ईश्वर को वस्तुत: पाने के लिए समस्त मानसिक धारणाओं को त्यागना पड़ता है। और इन धारणाओं में ईश्वर की धारणा भी अपवाद नहीं है। वह भी छोड़नी पड़ती है। यही त्याग है और यही तप है। क्योंकि स्वप्नों को छोड़ने से अधिक कष्ट और किसी बात में नहीं है।
कल्पना, स्वप्न और धारणाओं के विसर्जन पर, 'जो है' वह अभिव्यक्त होता है। निद्रा टूटती है और जागरण आता है। फिर जो पाना है, वही वास्तविक पाना है, क्योंकि उसे कोई छीन नहीं सकता है। वह किसी और अनुभूति से खंडित नहीं होता है, क्योंकि वह परानुभूति नहीं, स्वानुभूति है। वह किसी दृश्य का दर्शन नहीं, स्वयं ईश्वर में होना है। ईश्वर की काल्पनिक धारणा और आस्था खो गयी है, तो घबराओ मत। यह शुभ ही है।
सब धारणाएं खो दो और फिर देखो। तब जो दिखाई पड़ता है, वही ईश्वर है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)