मैं का बोद्ध


धूप में घूम कर लौटा हूं। सर्दियों की कुननी धूप कितनी सुखद मालूम होती है। सूरज निकला ही है और किरणों की गरमाहट आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ रही है।
एक व्यक्ति साथ थे। मैं राह भर चुप रहा, पर वे बोलते ही रहे। सुनता था, तो एक बात ध्यान में आयी कि हम कितनी बार 'मैं' का प्रयोग करते हैं। इस 'मैं' के केंद्र से ही सब जुड़ा रहता है। जन्म के बाद संभवत: 'मैं' का बोध सबसे पहले उठता है और मृत्यु के समय सबसे अंत में यह जाता है। इन दो छोरों के बीच में भी उसका ही विस्तार होता है।
इतना सुपरिचित यह 'मैं' है, पर कितना अज्ञात भी है! इससे अधिक रहस्यमय शब्द मानवीय भाषा में दूसरा नहीं है।
जीवन बीत जाता है, पर 'मैं' का रहस्य शायद उघड़ पाता हो!
यह 'मैं' कौन है? इसे अस्वीकार करना भी संभव नहीं है। निषेध में भी यह प्रस्तावित हो जाता है। 'मैं नहीं हूं' कहने में भी वह उपस्थित हो जाता है। मानवीय बोध में यह 'मैं' सबसे सुनिश्चित और अंसदिग्ध तत्व है।
'मैं हूं'- यह बोध तो है, पर 'मैं कौन हूं?'- यह सहज ज्ञान नहीं है। इसे जानना साधना से ही सुलभ है। समस्त साधना 'मैं' को जानने की साधना है। समस्त धर्म, समस्त दर्शन इस एक प्रश्न के ही उत्तर हैं।
'मैं कौन हूं?' इसे प्रत्येक को अपने से पूछना है। सब छूट जाए और एक प्रश्न ही रह जाये। सारे मन पर गूंजती यह एक जिज्ञासा रह जाये। तो ऐसा यह प्रश्न अचेतन में उतर जाता है। प्रश्न जैस-जैसे गहरा होने लगता है, वैसे-वैसे सतही तादात्म्य टूटने लगते हैं। दिखने लगता है कि मैं शरीर नहीं हूं। दिखने लगता है कि मैं मन नहीं हूं। दिखने लगता है कि मैं तो वह हूं, जो सबको देख रहा है। द्रष्टा हूं मैं, साक्षी हूं मैं। यह अनुभूति 'मैं' के वास्तविक स्वरूप का दर्शन बन जाती है। शुद्ध-बुद्ध, द्रष्टा-चेतना का साक्षात हो जाता है।
इस सत-ज्ञान के उदय से जीवन के रहस्य का द्वार खुलता है। अपने से परिचित होकर हम जगत के समस्त रहस्य से परिचित हो जाते हैं। 'मैं' का ज्ञान ही प्रभु का ज्ञान बन जाता है। इसलिए कहता हूं कि यह 'मैं' बहुमूल्य है। इसकी परिपूर्ण गहराई में उतर जाना, सब-कुछ पा लेना है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)