सत्य का स्वरूप

सत्य पर चर्चा चल रही थी कि मैं भी आ गया हूं। सुनता हूं। जो बात कह रहे हैं, वे अध्ययनशील हैं। विभिन्न दर्शनों से परिचित हैं। कितने मत हैं और कितने विचार हैं, सब उन्हें ज्ञात मालूम होते हैं। बुद्धि उनकी भरी हुई है- सत्य से तो नहीं, सत्य के संबंध में औरों ने जो कहा है, उससे। जैसे औरों ने जो कहा है, उस आधार से भी सत्य जाना जा सकता है! सत्य जैसे कोई मत है- विचार है और कोई बौद्धिक तार्किक निष्कर्ष है! विवाद उनका गहरा होता जा रहा है और अब कोई भी किसी की सुनने की स्थिति में नहीं है। प्रत्येक बोल रहा है, पर कोई भी सुन नहीं रहा है।
मैं चुप हूं। फिर किसी को मेरा स्मरण आता है और वे मेरा मत जानना चाहते हैं। मेरा तो कोई मत नहीं है। मुझे तो दिखता है कि जहां तक मत है, वहां तक सत्य नहीं है। विचार की जहां सीमा समाप्ति है, सत्य का वहां प्रारंभ है।
मैं क्या हूं! वे सभी सुनने को उत्सुक हैं। एक कहानी कहता हूं- एक साधु था, बोधिधर्म। वह ईसा की छठी सदी में चीन गया था। कुछ वर्ष वहां रहा, फिर घर लौटना चाहा और अपने शिष्यों को इकट्ठा किया। वह जानना चाहता था कि सत्य में उनकी कितनी गति हुई है।
उसके उत्तर में एक ने कहा, 'मेरे मत से सत्य स्वीकार-अस्वीकार के अतीत है- न कहा जा सकता है कि है, न कहा जा सकता है कि नहीं है, क्योंकि ऐसा ही उसका स्वरूप है।'
बोधिधर्म बोला, 'तेरे पास मेरी चमड़ी है।'
दूसरे ने कहा, 'मेरी दृष्टिं में सत्य अंतदर्ृष्टिं है। उसे एक बार पा लिया, फिर खोना नहीं है।'
बोधिधर्म बोला, 'तेरे पास मेरा मांस है।'
तीसरे ने कहा, 'मैं मानता हूं कि पंच महाभूत शून्य हैं और पंच स्कंध भी अवास्तविक हैं। यह शून्यता ही सत्य है।'
बोधिधर्म ने कहा, 'तेरे पास मेरी हड्डियां हैं।'
और अंतत: वह उठा जो जानता था। उसने गुरु के चरणों में सिर रख दिया और मौन रहा। वह चुप था और उसकी आंखें शून्य थी।
बोधिधर्म ने कहा, 'तेरे पास मेरी मज्जा है, मेरी आत्मा है।'
और यही कहानी मेरा उत्तर है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)