जीवन की मृत्यु नहीं और मृत का जीवन नहीं

एक बार ऐसा हुआ कि किसी साधु का शिष्य मर गया था। वह साधु उस शिष्य के घर गया। उसके शिष्य की लाश रखी थी और लोग रोते थे। उस साधु ने जाकर जोर से पूछा, 'यह मनुष्य मृत है या जीवित?' इस प्रश्न से लोग बहुत चौंके और हैरान हुए। यह कैसा प्रश्न था! लाश सामने थी और इसमें पूछने की बात ही क्या थी?थोड़ी देर सन्नाटा रहा और फिर किसी ने साधु से प्रश्न किया, 'आप ही बतावें?' जानते हैं कि साधु ने क्या कहा? साधु ने कहा, 'जो मृत था, वह मृत है; जो जीवित था, वह अभी भी जीवित है। केवल दोनों का संबंध टूटा है।'जीवन की कोई मृत्यु नहीं होती है और मृत का कोई जीवन नहीं होता है।जीवन को जो नहीं जानते हैं, वे मृत्यु को जीवन का अंत कहते हैं। जन्म जीवन का प्रारंभ नहीं है और मृत्यु उसका अंत नहीं है। जीवन, जन्म और मृत्यु के भीतर भी है और बाहर भी है। वह जन्म के पूर्व भी है और मृत्यु के पश्चात भी है। उसमें ही जन्म है, उसमें ही मृत्यु है; पर न उसका कोई जन्म है, न उसकी कोई मृत्यु है।एक शवयात्रा से लौटा हूं। वहां चिता से लपटें उठीं, तो लोग बोले, 'सब समाप्त हो गया।' मैंने कहा, 'आंखें नहीं हैं, ऐसा इसलिए लगता है।'
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)