जगत में जो भी मूल्यवान है- जीवन, प्रेम या सौंदर्य- उसका आविष्कार स्वयं करना पड़ता है। उसे किसी ओर से पाने का कोई उपाय नहीं है।
एक अद्भुत वार्ता का मुझे स्मरण आता है। दूसरे महायुद्ध के समय मरे हुए, मरणासन्न, चोट खाये हुए सैनिकों से भरी हुई किसी खाई में दो मित्रों के बीच एक बातचीत हुई थी। उनमें से एक बिलकुल मृत्यु के द्वार पर है। वह जानता है कि वह मरने को है। उसकी जीवन-ज्योति थोड़ी ही देर की और है।
वह उसके पास ही पड़े अपने मित्र से कहता है, ''मित्र सुनो। मैं जानता हूं कि तुम्हारा जीवन शुभ नहीं रहा। बहुत अपराध तुम्हारे नाम हैं और अक्षम्य भूलें। उनकी क ाली छाया सदा ही तुम्हें घेरे रही हैं। उसके कारण बहुत दुख और अपमान तुमने सहे हैं। लेकिन मेरे विरोध में अधिकारियों के पास कुछ भी नहीं है। मेरी किताबों में कोई दाग नहीं। तुम मेरा नाम ले लो- मेरा सैनिक नंबर और मेरा जीवन भी। और, मैं तुम्हारा नाम और जीवन ले लेता हूं। मैं तो मर रहा हूं। मैं तुम्हारे अपराध और कालिमाओं को अपने साथ लेता जाऊं! देर न करो। यह मेरी किताब रही। कृपा करो अपनी किताब मुझे दे दो।''
प्रेम में कहे ये शब्द कितने मधुर हैं! काश, ऐसा हो सकता? लेकिन, क्या जीवन बदला जा सकता है? नाम और किताबें बदली जा सकती हैं, क्योंकि वे जीवन नहीं हैं। जीवन को किसी से कैसे बदला जा सकता है, और न किसी की जगह मर ही सकता है। वस्तुत: कोई भी, किसी भी भांति उस बिंदु पर नहीं हो हो सकता है, जहां किसी और का होना है। किसी के पाप या पुण्य लेने का कोई मार्ग नहीं है। यह असंभव है। जीवन ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे कि किसी से अदल-बदल किया जा सके। उसे तो स्वयं से और स्वयं ही निर्मित करना होता है।
उस दूसरे सैनिक ने अपने विदा होते मित्र को हृदय से लगाकर कहा था, ''क्षमा करो। तुम्हारा नाम और किताब लेकर भी तो मैं ही बना रहूंगा। मनुष्य के समक्ष अन्य दिखूंगा, लेकिन असली सवाल तो परमात्मा के सामने है। उन आंखों के सामने तो बदली हुई किताबें धोखा नहीं दे सकेंगी।''
अपना जीवन प्रत्येक को वैसे ही निर्मित करना होता है, जैसे कि कोई नृत्य सीखता है। यह चित्रों या मूर्तियों के बनने जैसा नहीं है। उसमें तो बनाने वाला और बनने वाला एक ही हैं। इसलिए, अपना जीवन न तो किसी को भेंट किया जा सकता है और न किसी से उधार ही पाया जा सकता है। जीवन अहस्तांतरणीय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)
एक अद्भुत वार्ता का मुझे स्मरण आता है। दूसरे महायुद्ध के समय मरे हुए, मरणासन्न, चोट खाये हुए सैनिकों से भरी हुई किसी खाई में दो मित्रों के बीच एक बातचीत हुई थी। उनमें से एक बिलकुल मृत्यु के द्वार पर है। वह जानता है कि वह मरने को है। उसकी जीवन-ज्योति थोड़ी ही देर की और है।
वह उसके पास ही पड़े अपने मित्र से कहता है, ''मित्र सुनो। मैं जानता हूं कि तुम्हारा जीवन शुभ नहीं रहा। बहुत अपराध तुम्हारे नाम हैं और अक्षम्य भूलें। उनकी क ाली छाया सदा ही तुम्हें घेरे रही हैं। उसके कारण बहुत दुख और अपमान तुमने सहे हैं। लेकिन मेरे विरोध में अधिकारियों के पास कुछ भी नहीं है। मेरी किताबों में कोई दाग नहीं। तुम मेरा नाम ले लो- मेरा सैनिक नंबर और मेरा जीवन भी। और, मैं तुम्हारा नाम और जीवन ले लेता हूं। मैं तो मर रहा हूं। मैं तुम्हारे अपराध और कालिमाओं को अपने साथ लेता जाऊं! देर न करो। यह मेरी किताब रही। कृपा करो अपनी किताब मुझे दे दो।''
प्रेम में कहे ये शब्द कितने मधुर हैं! काश, ऐसा हो सकता? लेकिन, क्या जीवन बदला जा सकता है? नाम और किताबें बदली जा सकती हैं, क्योंकि वे जीवन नहीं हैं। जीवन को किसी से कैसे बदला जा सकता है, और न किसी की जगह मर ही सकता है। वस्तुत: कोई भी, किसी भी भांति उस बिंदु पर नहीं हो हो सकता है, जहां किसी और का होना है। किसी के पाप या पुण्य लेने का कोई मार्ग नहीं है। यह असंभव है। जीवन ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे कि किसी से अदल-बदल किया जा सके। उसे तो स्वयं से और स्वयं ही निर्मित करना होता है।
उस दूसरे सैनिक ने अपने विदा होते मित्र को हृदय से लगाकर कहा था, ''क्षमा करो। तुम्हारा नाम और किताब लेकर भी तो मैं ही बना रहूंगा। मनुष्य के समक्ष अन्य दिखूंगा, लेकिन असली सवाल तो परमात्मा के सामने है। उन आंखों के सामने तो बदली हुई किताबें धोखा नहीं दे सकेंगी।''
अपना जीवन प्रत्येक को वैसे ही निर्मित करना होता है, जैसे कि कोई नृत्य सीखता है। यह चित्रों या मूर्तियों के बनने जैसा नहीं है। उसमें तो बनाने वाला और बनने वाला एक ही हैं। इसलिए, अपना जीवन न तो किसी को भेंट किया जा सकता है और न किसी से उधार ही पाया जा सकता है। जीवन अहस्तांतरणीय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाडंडेशन)
No comments:
Post a Comment