एक युवक ने मुझ से पूछा, ''जीवन में बचाने जैसा क्या है?'' मैंने कहा, ''स्वयं की आत्मा और उसका संगीत। जो उसे बचा लेता है, वह सब बचा लेता है और जो उसे खोता है, वह सब खो देता है।''
एक वृद्ध संगीतज्ञ किसी वन से निकलता था। उसके पास बहुत सी स्वर्ण मुद्राएं थीं। मार्ग में कुछ डाकुओं ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसका सारा धन तो छीन ही लिया, साथ ही उसका वाद्य वायलिन भी। वायलिन पर उस संगीतज्ञ की कुशलता अप्रतिम थी। उस वाद्य का उस-सा अधिकारी और कोई न था। उस वृद्ध ने बड़ी विनय से वायलिन लौटा देने की प्रार्थना की। वे डाकू चकित हुए। वृद्ध अपनी संपत्ति न मांग कर अति साधारण मूल्य का वाद्य ही क्यों मांग रहा था? फिर, उन्होंने भी सोचा कि यह बाजा हमारे किस काम का और उसे वापस लौटा दिया। उसे पाकर वह संगीतज्ञ आनंद से नाचने गा और उसने वहीं बैठकर उसे बजाना प्रारंभ कर दिया। अमावस का रात्रि, निर्जन वन। उस अंधकार पूर्ण निस्तब्ध निशा में उसके वायलिन से उठे स्वर अलौकिक हो गूंजने लगे। शुरू में तो डाकू अनमने पन से सुनते रहे, फिर उनकी आंखों में भी नरमी आ गई। उनका चित्त भी संगीत की रसधार में बहने लगा। अंत में भव विभोर हो वे उस वृद्ध संगीतज्ञ के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने उसका सारा धन लौटा दया। यही नहीं, वे उसे और भी बहुत-सा धन भेंटकर वन के बाहर तक सुरक्षित पहुंचा गये थे।
ऐसी ही स्थिति में क्या प्रत्येक मनुष्य नहीं है? और क्या प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन ही लूटा नहीं जा रहा है? पर, कितने हैं, जो कि संपत्ति नहीं, स्वयं के संगीत को और उस संगीत-वाद्य को बचा लेने का विचार करते हैं?
सब छोड़ो और स्वयं के संगीत को बचाओ और उस वाद्य को जिससे कि जीवन संगीत पैदा होता है। जिन्हें थोड़ी भी समझ है, वे यही करते हैं और जो यह नहीं कर पाते हैं, उनके विश्व भर की संपत्ति को पा लेने का भी कोई मूल्य नहीं है। स्मरण रहे कि स्वयं के संगीत से बड़ी और कोई संपत्ति नहीं है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
एक वृद्ध संगीतज्ञ किसी वन से निकलता था। उसके पास बहुत सी स्वर्ण मुद्राएं थीं। मार्ग में कुछ डाकुओं ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसका सारा धन तो छीन ही लिया, साथ ही उसका वाद्य वायलिन भी। वायलिन पर उस संगीतज्ञ की कुशलता अप्रतिम थी। उस वाद्य का उस-सा अधिकारी और कोई न था। उस वृद्ध ने बड़ी विनय से वायलिन लौटा देने की प्रार्थना की। वे डाकू चकित हुए। वृद्ध अपनी संपत्ति न मांग कर अति साधारण मूल्य का वाद्य ही क्यों मांग रहा था? फिर, उन्होंने भी सोचा कि यह बाजा हमारे किस काम का और उसे वापस लौटा दिया। उसे पाकर वह संगीतज्ञ आनंद से नाचने गा और उसने वहीं बैठकर उसे बजाना प्रारंभ कर दिया। अमावस का रात्रि, निर्जन वन। उस अंधकार पूर्ण निस्तब्ध निशा में उसके वायलिन से उठे स्वर अलौकिक हो गूंजने लगे। शुरू में तो डाकू अनमने पन से सुनते रहे, फिर उनकी आंखों में भी नरमी आ गई। उनका चित्त भी संगीत की रसधार में बहने लगा। अंत में भव विभोर हो वे उस वृद्ध संगीतज्ञ के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने उसका सारा धन लौटा दया। यही नहीं, वे उसे और भी बहुत-सा धन भेंटकर वन के बाहर तक सुरक्षित पहुंचा गये थे।
ऐसी ही स्थिति में क्या प्रत्येक मनुष्य नहीं है? और क्या प्रत्येक व्यक्ति प्रतिदिन ही लूटा नहीं जा रहा है? पर, कितने हैं, जो कि संपत्ति नहीं, स्वयं के संगीत को और उस संगीत-वाद्य को बचा लेने का विचार करते हैं?
सब छोड़ो और स्वयं के संगीत को बचाओ और उस वाद्य को जिससे कि जीवन संगीत पैदा होता है। जिन्हें थोड़ी भी समझ है, वे यही करते हैं और जो यह नहीं कर पाते हैं, उनके विश्व भर की संपत्ति को पा लेने का भी कोई मूल्य नहीं है। स्मरण रहे कि स्वयं के संगीत से बड़ी और कोई संपत्ति नहीं है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
2 comments:
''स्वयं की आत्मा और उसका संगीत। ""
कितनी गहन बात है...जय हो ओशो महाराज!!!
-आपका हार्दिक नमन नित प्रस्तुति के लिए-
आपके इस कार्य हेतु अति साधुवाद!!
सच है अपनी आत्मा के संगीत से ही जीवन का लयमय होता है...
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