पूर्णिमा है, लेकिन आकाश बादलों से ढका है। मैं राह से आया हूं। एक रेत के ढेर पर कुछ बच्चे खेल रहे थे। उन्होंने रेत के कुछ घर बनाए और उस पर से ही उनके बीच में झगड़ा हो गया था। रेत के घरों पर ही सारे झगड़े होते हैं। वे तो बच्चे ही थे, पर थोड़ी देर में जो बच्चे नहीं थे, वे भी उसमें सम्मिलित हो गये। बच्चों के झगड़े में, बाद में उनके बड़े भी सम्मिलित हो गये थे।
मैं किनारे खड़ा सोचता रहा कि बच्चों और बड़ों का विभाजन कितना कृत्रिम है! आयु वस्तुत: कोई भेद नहीं लाती और उससे प्रौढ़ता का कोई संबंध नहीं है।
हममें से अधिक बच्चे ही मर जाते हैं। लाओत्से के संबंध में कथा है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ था। यह बात बहुत अस्वाभाविक लगती है। पर क्या इससे भी अधिक अस्वाभाविक घटना यह नहीं है कि कोई मरते समय तक भी प्रौढ़ता को उपलब्ध न हो पाये! शरीर विकसित हो जाते हैं, पर चित्त वहीं का वहीं ठहरा रह जाता है। तभी तो संभव है कि रेत के घरों पर झगड़े चलें और आदमी- आदमी के वस्त्रों को उतार क्षण में नग्न हो जाये और जाहिर कर दे कि सब विकास की बातें व्यर्थ हैं। और कौन कहता है कि मनुष्य पशु से पैदा हुआ है? मनुष्य के पशु से पैदा होने की बात गलत है, क्योंकि वह तो अभी भी पशु ही है।
क्या कभी मनुष्य पैदा नहीं हुआ है?
मनुष्य को गहरा देखने में जो उत्तर मिलता है। वह 'हां' में नहीं मिलता है। डायोजनीज दिन को, भरी दोपहरी में भी अपने साथ एक जलती हुई लालटेन लिये रहता था और कहता था कि मैं मनुष्य को खोज रहा हूं। वह जब वृद्ध हो गया था, तो किसी ने उससे पूछा, 'मनुष्य खोज लेने की आशा है।' उसने कहा, 'हां', क्योंकि अब भी जलती हुई लालटेन मेरे पास है।'
मैं खड़ा रहा हूं और उस रेत के ढेर के पास बहुत भीड़ इकट्ठी हो गयी है और लोग गाली-गलौज का और एक-दूसरे को डराने-धमकाने का बहुत रस-मुग्ध हो पान कर रहे हैं। जो लड़ रहे हैं, उनकी आंखों में भी बहुत चमक मालूम हो रही है। कोई पाशविक आनंद जरूर उनकी आंखों और गतिविधियों में प्रवाहित हो रहा है।
जिब्रान ने लिखा है- एक दिन मैंने खेत में खड़े एक काठ के पुतले से पूछा, 'क्या तुम इस खेत में खड़े-खड़े उकता नहीं जाते हो?' उसने उत्तर दिया, 'ओह! पक्षियों को डराने का आनंद इतना है कि समय कब बीत जाता है, कुछ पता ही नहीं चलता।' मैंने क्षण भर सोचकर कहा, 'यह सत्य है, क्योंकि मुझे भी इस आनंद का अनुभव है।' पुतला बोला, 'हां, वे ही व्यक्ति जिनके शरीर में घास-फूस भरा है, इस आनंद से परिचित हो सकते हैं!' पर इस आनंद से तो सभी परिचित मालूम हाते हैं। क्या हम सबके भीतर घास-फूस ही नहीं भर हुआ है? और क्या हम भी खेत में खड़े झूठे आदमी ही नहीं हैं?
उस रेत के ढेर पर यही आनंद देखकर लौटा हूं और क्या सारी पृथ्वी के ढेर पर भी यही आनंद नहीं चल रहा है?
यह अपने से पूछता हूं और रोता हूं। उस मनुष्य के लिए रोता हूं, जो कि पैदा हो सकता है, पर पैदा नहीं हुआ है। जो कि प्रत्येक के भीतर है, पर वैसे ही छिपा है, जैसे राख में अंगारे छिपा होता है।
वस्तुत: शरीर घास-फूस के ढेर से ज्यादा नहीं है। जो उस पर समाप्त है, अच्छा था कि वह किसी खेत में होता, तो कम से कम फसलों को पक्षियों से बचाने के काम तो आ जाता। मनुष्य की सार्थकता तो उतनी भी नहीं है!
शरीर से जो अतीत है, उसे जाने बिना कोई मनुष्य नहीं बनता है। आत्मा को जाने बिना कोई मनुष्य नहीं बनता है। मनुष्य की भांति पैदा हो जाना एक बात है, मनुष्य होना बिलकुल दूसरी बात है।
मनुष्य को तो स्वयं के भीतर स्वयं को जन्म देना होता है। यह वस्त्रों की भांति नहीं है कि उसे ओढ़ा जा सके। मनुष्यता के वस्त्रों को ओढ़कर कोई मनुष्य नहीं बनता है, क्योंकि वे उसी समय तक उसे मनुष्य बनाये रखते हैं, जब तक कि मनुष्यता की वस्तुत: कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है। आवश्यकता आते ही वे कब गिर जाते हैं, ज्ञात भी नहीं हो पाता है।
बीज जैसे अपने प्राणों को परिवर्तित का अंकुर बनता है- किन्हीं वस्त्रों को धारण करके नहीं- वैसे ही मनुष्य को भी अपनी समस्त प्राण-सत्ता एक नये ही आयाम में अंकुरित करनी होती है, तभी उसका जन्म होता है और परिवर्तन होता है।
और तब उसका आनंद कांटों को फेंकने में नहीं, कांटों को उठाने में और फूलों को बिखेरने में परिणत हो जाता है। वह घड़ी ही घोषणा करती है कि अब वह घास-फूस नहीं है- मनुष्य है, देह नहीं, आत्मा है।
गुरजिएफ ने कहा है, 'इस भ्रम को छोड़ दें कि प्रत्येक के पास आत्मा है।' सच ही जो सोया है, उसके पास आत्मा है या नहीं, इससे क्या अंतर पड़ता है! वही वास्तविक है- जो है। आत्मा सबकी संभावना है, पर उसे जो सत्य बनाता है, वही उसे पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
मैं किनारे खड़ा सोचता रहा कि बच्चों और बड़ों का विभाजन कितना कृत्रिम है! आयु वस्तुत: कोई भेद नहीं लाती और उससे प्रौढ़ता का कोई संबंध नहीं है।
हममें से अधिक बच्चे ही मर जाते हैं। लाओत्से के संबंध में कथा है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ था। यह बात बहुत अस्वाभाविक लगती है। पर क्या इससे भी अधिक अस्वाभाविक घटना यह नहीं है कि कोई मरते समय तक भी प्रौढ़ता को उपलब्ध न हो पाये! शरीर विकसित हो जाते हैं, पर चित्त वहीं का वहीं ठहरा रह जाता है। तभी तो संभव है कि रेत के घरों पर झगड़े चलें और आदमी- आदमी के वस्त्रों को उतार क्षण में नग्न हो जाये और जाहिर कर दे कि सब विकास की बातें व्यर्थ हैं। और कौन कहता है कि मनुष्य पशु से पैदा हुआ है? मनुष्य के पशु से पैदा होने की बात गलत है, क्योंकि वह तो अभी भी पशु ही है।
क्या कभी मनुष्य पैदा नहीं हुआ है?
मनुष्य को गहरा देखने में जो उत्तर मिलता है। वह 'हां' में नहीं मिलता है। डायोजनीज दिन को, भरी दोपहरी में भी अपने साथ एक जलती हुई लालटेन लिये रहता था और कहता था कि मैं मनुष्य को खोज रहा हूं। वह जब वृद्ध हो गया था, तो किसी ने उससे पूछा, 'मनुष्य खोज लेने की आशा है।' उसने कहा, 'हां', क्योंकि अब भी जलती हुई लालटेन मेरे पास है।'
मैं खड़ा रहा हूं और उस रेत के ढेर के पास बहुत भीड़ इकट्ठी हो गयी है और लोग गाली-गलौज का और एक-दूसरे को डराने-धमकाने का बहुत रस-मुग्ध हो पान कर रहे हैं। जो लड़ रहे हैं, उनकी आंखों में भी बहुत चमक मालूम हो रही है। कोई पाशविक आनंद जरूर उनकी आंखों और गतिविधियों में प्रवाहित हो रहा है।
जिब्रान ने लिखा है- एक दिन मैंने खेत में खड़े एक काठ के पुतले से पूछा, 'क्या तुम इस खेत में खड़े-खड़े उकता नहीं जाते हो?' उसने उत्तर दिया, 'ओह! पक्षियों को डराने का आनंद इतना है कि समय कब बीत जाता है, कुछ पता ही नहीं चलता।' मैंने क्षण भर सोचकर कहा, 'यह सत्य है, क्योंकि मुझे भी इस आनंद का अनुभव है।' पुतला बोला, 'हां, वे ही व्यक्ति जिनके शरीर में घास-फूस भरा है, इस आनंद से परिचित हो सकते हैं!' पर इस आनंद से तो सभी परिचित मालूम हाते हैं। क्या हम सबके भीतर घास-फूस ही नहीं भर हुआ है? और क्या हम भी खेत में खड़े झूठे आदमी ही नहीं हैं?
उस रेत के ढेर पर यही आनंद देखकर लौटा हूं और क्या सारी पृथ्वी के ढेर पर भी यही आनंद नहीं चल रहा है?
यह अपने से पूछता हूं और रोता हूं। उस मनुष्य के लिए रोता हूं, जो कि पैदा हो सकता है, पर पैदा नहीं हुआ है। जो कि प्रत्येक के भीतर है, पर वैसे ही छिपा है, जैसे राख में अंगारे छिपा होता है।
वस्तुत: शरीर घास-फूस के ढेर से ज्यादा नहीं है। जो उस पर समाप्त है, अच्छा था कि वह किसी खेत में होता, तो कम से कम फसलों को पक्षियों से बचाने के काम तो आ जाता। मनुष्य की सार्थकता तो उतनी भी नहीं है!
शरीर से जो अतीत है, उसे जाने बिना कोई मनुष्य नहीं बनता है। आत्मा को जाने बिना कोई मनुष्य नहीं बनता है। मनुष्य की भांति पैदा हो जाना एक बात है, मनुष्य होना बिलकुल दूसरी बात है।
मनुष्य को तो स्वयं के भीतर स्वयं को जन्म देना होता है। यह वस्त्रों की भांति नहीं है कि उसे ओढ़ा जा सके। मनुष्यता के वस्त्रों को ओढ़कर कोई मनुष्य नहीं बनता है, क्योंकि वे उसी समय तक उसे मनुष्य बनाये रखते हैं, जब तक कि मनुष्यता की वस्तुत: कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है। आवश्यकता आते ही वे कब गिर जाते हैं, ज्ञात भी नहीं हो पाता है।
बीज जैसे अपने प्राणों को परिवर्तित का अंकुर बनता है- किन्हीं वस्त्रों को धारण करके नहीं- वैसे ही मनुष्य को भी अपनी समस्त प्राण-सत्ता एक नये ही आयाम में अंकुरित करनी होती है, तभी उसका जन्म होता है और परिवर्तन होता है।
और तब उसका आनंद कांटों को फेंकने में नहीं, कांटों को उठाने में और फूलों को बिखेरने में परिणत हो जाता है। वह घड़ी ही घोषणा करती है कि अब वह घास-फूस नहीं है- मनुष्य है, देह नहीं, आत्मा है।
गुरजिएफ ने कहा है, 'इस भ्रम को छोड़ दें कि प्रत्येक के पास आत्मा है।' सच ही जो सोया है, उसके पास आत्मा है या नहीं, इससे क्या अंतर पड़ता है! वही वास्तविक है- जो है। आत्मा सबकी संभावना है, पर उसे जो सत्य बनाता है, वही उसे पाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
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