एक अध्यापक हैं। धर्म में उनकी अभिरुचि है। धर्म ग्रंथों के अध्ययन में जीवन लगाया है। धर्म की बातें उठे तो उनके विचार -प्रवाह का अंत नहीं आता है। एक अंतहीन फीते के भांति उनके विचार निकलते आते हैं। कितने उद्धरण और कितने सूत्र उन्हें याद हैं, कहना कठिन हैं। कोई भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। वे एक चलते-फिरते विश्वकोश हैं, ऐसी ही उनकी ख्याति है। कई बार मैंने उनके विचार सुने हैं और मौन रहा हूं। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा कि मेरे संबंध में क्या ख्याल है? मैंने जो सत्य था, वही कहा। कहा कि ईश्वर के संबंध में विचार इकट्ठा करने में उन्होंने ईश्वर को गंवा दिया है। वे निश्चित ही चौंक गये मालूम हुए थे। फिर बाद में आये भी। उसी संबंध में पूछने आये थे। आकर कहा कि अध्ययन और मनन से ही तो सत्य को पाया जा सकता है। और तो कोई मार्ग भी नहीं है!
मैं ऐसे सब लोगों से एक ही प्रश्न पूछता हूं। वही उनसे भी पूछा था कि अध्ययन क्या है और उससे आपके भीतर क्या हो जाता है? क्या कोई नई दृष्टिं का आयाम पैदा हो जाता है? क्या चेतना किसी नये स्तर पर पहुंच जाती है? क्या सत्ता में कोई क्रांति हो जाती है? क्या आप जो हैं, उससे भिन्न और अन्यथा हो जाते हैं? या कि आप वही रहते हैं और केवल कुछ विचार और सूचनाएं आपकी स्मृति का अंग बन जाती हैं? अध्ययन से केवल स्मृति प्रशिक्षित होती है और मन की सतही परत पर विचार की धूल जम जाती है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं होता है, न हो सकता है। केंद्र पर उससे कोई परिवर्तन नहीं होता है। चेतना वही की वही रहती है। अनुभूति के आयाम वही के वही रहते हैं। सत्य के संबंध में कुछ जानना और सत्य को जानना दोनों बिलकुल भिन्न बातें हें। 'सत्य के संबंध में जानना' बुद्धिगत है, सत्य को जानना चेतनागत है।
सत्य को जानने के लिए चेतना की परिपूर्ण जागृति, उसकी अमूच्र्छा आवश्यक है। स्मृति-प्रशिक्षण और तथाकथित ज्ञान से यह नहीं हो सकता है।
जो स्वयं नहीं जाना गया है, वह ज्ञान नहीं है।
सत्य के, अज्ञात सत्य के संबंध में जो बौद्धिक जानकारी है, वह ज्ञान का आभास है। वह मिथ्या है और सम्यक-ज्ञान में मार्ग में बाधा है। असलियत में जो अज्ञात है, उसे जानने का ज्ञात से कोई मार्ग नहीं है। वह तो बिलकुल नया है। वह तो ऐसा है, जो पूर्व कभी जाना नहीं गया है, इसलिए स्मृति उसे देने या उसकी प्रत्यभिज्ञा में भी समर्थ नहीं है। स्मृति केवल उसे ही दे सकती है- उसकी ही प्रत्यभिज्ञा भी उससे आ सकती है- जो कि पहले भी जाना गया है। वह ज्ञात की ही पुनरुक्ति है।
लेकिन जो नवीन है-एकदम अभिनव, अज्ञात और पूर्व-अपरिचित- उसके आने के लिए तो स्मृति को हट जाना होगा। स्मृति को, समस्त ज्ञात विचारों को हटाना होगा ताकि नये का जन्म हो सके; ताकि 'जो है' वह वैसे ही जाना जा सके जैसा कि है। मनुष्य समस्त धारणाएं और पूर्वाग्रह उसके आने के लिए हटाने आवश्यक हैं। विचार, स्मृति और धारणा-शून्य मन ही अमूच्र्छा है, जागृति है। इसके आने पर ही केंद्र पर परिवर्तन होता है और सत्य का द्वार खुलता है। इसके पूर्व सब भटकन है और जीवन-अपव्यय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
मैं ऐसे सब लोगों से एक ही प्रश्न पूछता हूं। वही उनसे भी पूछा था कि अध्ययन क्या है और उससे आपके भीतर क्या हो जाता है? क्या कोई नई दृष्टिं का आयाम पैदा हो जाता है? क्या चेतना किसी नये स्तर पर पहुंच जाती है? क्या सत्ता में कोई क्रांति हो जाती है? क्या आप जो हैं, उससे भिन्न और अन्यथा हो जाते हैं? या कि आप वही रहते हैं और केवल कुछ विचार और सूचनाएं आपकी स्मृति का अंग बन जाती हैं? अध्ययन से केवल स्मृति प्रशिक्षित होती है और मन की सतही परत पर विचार की धूल जम जाती है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं होता है, न हो सकता है। केंद्र पर उससे कोई परिवर्तन नहीं होता है। चेतना वही की वही रहती है। अनुभूति के आयाम वही के वही रहते हैं। सत्य के संबंध में कुछ जानना और सत्य को जानना दोनों बिलकुल भिन्न बातें हें। 'सत्य के संबंध में जानना' बुद्धिगत है, सत्य को जानना चेतनागत है।
सत्य को जानने के लिए चेतना की परिपूर्ण जागृति, उसकी अमूच्र्छा आवश्यक है। स्मृति-प्रशिक्षण और तथाकथित ज्ञान से यह नहीं हो सकता है।
जो स्वयं नहीं जाना गया है, वह ज्ञान नहीं है।
सत्य के, अज्ञात सत्य के संबंध में जो बौद्धिक जानकारी है, वह ज्ञान का आभास है। वह मिथ्या है और सम्यक-ज्ञान में मार्ग में बाधा है। असलियत में जो अज्ञात है, उसे जानने का ज्ञात से कोई मार्ग नहीं है। वह तो बिलकुल नया है। वह तो ऐसा है, जो पूर्व कभी जाना नहीं गया है, इसलिए स्मृति उसे देने या उसकी प्रत्यभिज्ञा में भी समर्थ नहीं है। स्मृति केवल उसे ही दे सकती है- उसकी ही प्रत्यभिज्ञा भी उससे आ सकती है- जो कि पहले भी जाना गया है। वह ज्ञात की ही पुनरुक्ति है।
लेकिन जो नवीन है-एकदम अभिनव, अज्ञात और पूर्व-अपरिचित- उसके आने के लिए तो स्मृति को हट जाना होगा। स्मृति को, समस्त ज्ञात विचारों को हटाना होगा ताकि नये का जन्म हो सके; ताकि 'जो है' वह वैसे ही जाना जा सके जैसा कि है। मनुष्य समस्त धारणाएं और पूर्वाग्रह उसके आने के लिए हटाने आवश्यक हैं। विचार, स्मृति और धारणा-शून्य मन ही अमूच्र्छा है, जागृति है। इसके आने पर ही केंद्र पर परिवर्तन होता है और सत्य का द्वार खुलता है। इसके पूर्व सब भटकन है और जीवन-अपव्यय है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
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