दोपहर की शांति। उजली धूप और पौधे सोये-सोये
से एक जामुन की छाय तले दूब पर आ बैठा हूं। रह-रह कर पत्ते ऊपर गिर रहे हैं- अंतिम, पुराने पत्ते मालूम होते हैं। सारे वृक्षों पर नई पत्तियां आ गई हैं। और नई पत्तियों के साथ न मालूम कितनी नई चिडि़यों और पक्षियों का आगमन हुआ है। उनके गीतों का जैसे कोई अंत ही नहीं है। कितने प्रकार की मधुर ध्वनियां इस दोपहर को संगीत दे रही हैं, सुनता हूं और सुनता रहता हूं और फिर मैं भी एक अभिनव संगीत-लोक में चला जाता हूं।
'स्व' का लोक, संगीत का लोक ही है।
यह संगीत प्रत्येक के पास है। इसे पैदा नहीं करना होता है। यह सुन पड़े, इसके लिए केवल मौन होना होता है। चुप होते ही कैसे एक परदा उठ जाता है! जो सदा से था, वह सुन पड़ता है और पहली बार ज्ञात होता है कि हम दरिद्र नहीं हैं। एक अनंत संपत्ति का पुनराधिकार मिल जाता है। फिर कितनी हंसी आती है- जिसे खोजते थे, वह भीतर ही बैठा था!
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)
No comments:
Post a Comment