जीवन कला!



मनुष्य को प्रतिक्षण और प्रतिपल नया कर लेना होता है। उसे अपने को ही जन्म देना होता है। स्वयं के सतत जन्म की इस कला को जो नहीं जानते हैं, वे जानें कि वे कभी के मर चुके हैं।
रात्रि कुछ लोग आये । वे पूछने लगे, ''धर्म क्या है?'' मैंने उनसे कहा, ''धर्म मनुष्य के प्रभु में जन्म की कला है। मनुष्य में आत्म-ध्वंस और आत्म-स्रजन की दोनों ही शक्तियां हैं। यही उसका स्वयं के प्रति उत्तरदायित्व है। उसका अपने प्रति प्रेम विश्व के प्रति प्रेम का उद्भव है। वह जितना स्वयं को प्रेम कर सकेगा, उतना ही उसके आत्मघात का मार्ग बंद होता है। और, जो-जो उसके लिए आत्मघाती है, वही-वही ही औरों के लिए अधर्म है। स्वयं की सत्ता और उसकी संभावनाओं के विकास के प्रति प्रेम का अभाव ही पाप बन जाता है। इस भांति पाप और पुण्य, शुभ और अशुभ, धर्म और अधर्म का स्रोत उसके भीतर ही विद्यमान है- परमात्मा में या अन्य किसी लोक में नहीं। इस सत्य की तीव्रता और गहरी अनुभूति ही परिवर्तन लाती है और उस उत्तरदायित्व के प्रति हमें सजग करती है, जो कि मनुष्य होने में अंतर्निहित है। तब, जीवन मात्र जीना नहीं रह जाता। उसमें उदात्त तत्वों का प्रवेश हो जाता है और हम स्वयं का सतत सृजन करने में लग जाते हैं। जो इस बोध को पा लेते हैं वे प्रतिक्षण स्वयं को ऊ‌र्ध्व लोक में जन्म देते रहते हैं। इस सतत सृजन से ही जीवन का सौंदर्य उपलब्ध होता है, जो कि क्रमश: घाटियों के अंधकार और कुहासे से ऊपर उठकर हमारे हृदय की आंखों को सूर्य के दर्शन में समर्थ बनाता है।''
जीवन एक कला है। और, मनुष्य अपने जीवन का कलाकार भी है और कला का उपकरण भी। जो जैसा अपने को बनाता है, वैसा ही अपने को पाता है। स्मरण रहे कि मनुष्य बना-बनाया पैदा नहीं होता। जन्म से तो हम अनगढ़े पत्थरों की भांति ही पैदा होते हैं। फिर, जो कुरूप या सुंदर मूर्तियां बनाती हैं, उनके स्रष्टा हम ही होते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

मुझे कुछ नहीं चाहिए!



परमात्मा के अतिरिक्त और कोई संतुष्टिं नहीं। उसके सिवाय और कुछ भी मनुष्य के हृदय को भरने में असमर्थ है।
एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी थी। किसी फकीर ने सम्राट से भिक्षा मांगी थी। सम्राट ने उससे कहा, ''जो भी चाहते हो, मांग लो।'' दिवस के प्रथम याचक की कोई भी इच्छा पूरी करने का उसका नियम था। उस फकीर ने अपने छोटे से भिक्षापात्र को आगे बढ़ाया और कहा, ''बस इसे स्वर्ण मुद्राओं से भर दें।'' सम्राट ने सोचा इससे सरल बात और क्या हो सकती है! लेकिन जब उस भिक्षा पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली गई, तो ज्ञात हुआ कि उसे भरना असंभव था। वह तो जादुई था। जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गई, वह उतना ही अधिक खाली होता गया! सम्राट को दुखी देख वह फकीर बोला, ''न भर सकें तो वैसा कह दें। मैं खाली पात्र को ही लेकर चला जाऊंगा! ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि लोग कहेंगे कि सम्राट अपना वचन पूरा नहीं कर सके !'' सम्राट ने अपना सारा खजाना खाली कर दिया, उसके पास जो कुछ भी था, सभी उस पात्र में डाल दिया गया, लेकिन अद्भुत पात्र न भरा, सो न भरा। तब उस सम्राट ने पूछा, ''भिक्षु, तुम्हारा पात्र साधारण नहीं है। उसे भरना मेरी साम‌र्थ्य से बाहर है। क्या मैं पूछ सकता हूं कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है?'' वह फकीर हंसने लगा और बोला, ''कोई विशेष रहस्य नहीं। यह पात्र मनुष्य के हृदय से बनाया गया है। क्या आपको ज्ञात नहीं है कि मनुष्य का हृदय कभी भी भरा नहीं जा सकता? धन से, पद से, ज्ञान से- किसी से भी भरो, वह खाली ही रहेगा, क्योंकि इन चीजों से भरने के लिए वह बना ही नहीं है। इस सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है, उतना ही दरिद्र होता जाता है। हृदय की इच्छाएं कुछ भी पाकर शांत नहीं होती हैं। क्यों? क्योंकि, हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है।''
शांति चाहते हो? संतृप्ति चाहते हो? तो अपने संकल्प को कहने दो कि परमात्मा के अतिरिक्त और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

पाप-पुण्य!



कुछ युवकों ने मुझ से पूछा : ''पाप क्या है?'' मैंने कहा, ''मूर्च्‍छा'' वस्तुत: होश पूर्वक कोई भी पाप करना असंभव है। इसलिए, मैं कहता हूं कि जो परिपूर्ण होश में हो सके, वही पुण्य है। और जो मूच्र्छा, बेहोशी के बिना न हो सके वही पाप है।
एक अंधकार पूर्ण रात्रि में किसी युवक ने एक साधु के झोपड़े में प्रवेश किया। उसने जाकर कहा, ''मैं आपका शिष्य होना चाहता हूं।'' साधु ने कहा, ''स्वागत है। परमात्मा के द्वार पर सदा ही सबका स्वागत है।'' वह युवक कुछ हैरान हुआ और बोला, ''लेकिन बहुत त्रुटियां हैं, मुझ में! मैं बहुत पापी हूं!'' यह सुन साधु हंसने लगा और बोला : ''परमात्मा तुम्हें स्वीकार करता है, तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हूं! मैं भी सब पापों के साथ तुम्हें स्वीकार करता हूं।'' उस युवक ने कहा, ''लेकिन मैं जुआ खेलता हूं, मैं शराब पीता हूं- मैं व्यभिचारी हूं।'' वह साधु बोला, ''मैंने तुम्हें स्वीकार किया, क्या तुम भी मुझे स्वीकार करोगे? क्या तुम जिन्हें पाप कह रहे हो, उन्हें करते समय कम से कम इतना ध्यान रखोगे कि मेरी उपस्थिति में उन्हें न करो। मैं इतनी तो आशा कर ही सकता हूं!'' उस युवक ने आश्वासन दिया। गुरु का इतना आदर स्वाभाविक ही था। लेकिन कुछ दिनों बाद जब वह लौटा और उसके गुरु ने पूछा कि तुम्हारे उन पापों का क्या हाल है, तो वह हंसने लगा और बोला, ''मैं जैसे ही उनकी मूच्र्छा में पड़ता हूं कि आपकी आंखें सामने आ जाती हैं और मैं जाग जाता हूं। आपकी उपस्थिति मुझे जगा देती है। और, जागते हुए तो गड्ढों में गिरना असंभव है!''
मेरे देखे पाप और पुण्य मात्र कृत्य ही नहीं हैं। वस्तुत: तो वे हमारे अंत:करण के सोये होने या जागे होने की सूचनाएं हैं। जो सीधे पापों से लड़ता है, या पुण्य करना चाहता है, वह भूल में है। सवाल कुछ 'करने' या 'न करने' का नहीं है। सवाल तो भीतर कुछ 'होने' या 'न-होने' का है। और, यदि भीतर जागरण है, होश है, स्व-बोध है, तो ही तुम हो, अन्यथा घर के मालिक के सोये होने पर जैसे चोरों को सुविधा होती है, वैसी ही सुविधा पापों को भी है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

संपत्ति और भय!


मैं लोगों को भय से कांपता देखता हूं। उनका पूरा जीवन ही भय के नारकीय कंपन में बीता जाता है, क्योंकि वे केवल उस संपत्ति को ही जानते हैं, जो कि उनके बाहर है। बाहर की संपत्ति जितनी बढ़ती है, उतना ही भय बढ़ता जाता है- जब कि लोग भय को मिटाने को ही बाहर की संपत्ति के पीछे दौड़ते हैं! काश! उन्हें ज्ञात हो सके कि एक और संपदा भी है, जो कि प्रत्येक के भीतर है। और, जो उसे जान लेता है, वह निर्भय हो जाता है।
अमावस की संध्या थी। सूर्य पश्चिम में ढल रहा था आर शीघ्र ही रात्रि का अंधकार उतर आने को था। एक वृद्ध संन्यासी अपने युवा शिष्य के साथ वन से निकलते थे। अंधेरे को उतरते देख उन्होंने युवक से पूछा, ''रात्रि होने को है, बीहड़ वन है। आगे मार्ग में कोई भय तो नहीं है?''
इस प्रश्न को सुन युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ। संन्यासी को भय कैसा? भय बाहर तो होता नहीं, उसकी जड़े तो निश्चय ही कहीं भीतर होती हैं!
संध्या ढले, वृद्ध संन्यासी ने अपना झोला युवक को दिया और वे शौच को चले गये। झोला देते समय भी वे चिंतित और भयभीत मालूम हो रहे थे। उनके जाते ही युवक ने झोला देखा, तो उसमें एक सोने की ईट थी! उसकी समस्या समाप्त हो गयी। उसे भय का कारण मिल गया था। वृद्ध ने आते ही शीघ्र झोला अपने हाथ में ले लिया और उन्होंने पुन: यात्रा आरंभ कर दी। रात्रि जब और सघन हो गई और निर्जन वन-पथ पर अंधकार ही अंधकार शेष रह गया, तो वृद्ध ने पुन: वही प्रश्न पूछा। उसे सुनकर युवक हंसने लगा और बोला, ''आप अब निर्भय हो जावें। हम भय के बाहर हो गये हैं।'' वृद्ध ने साश्चर्य युवक को देखा और कहा, ''अभी वन कहां समाप्त हुआ है?'' युवक ने कहा, ''वन तो नहीं भय समाप्त हो गया है। उसे मैं पीछे कुएं मैं फेंक आया हूं।'' यह सुन वृद्ध ने घबराकर अपना झोला देखा। वहां तो सोने की जगह पत्थर की ईट रखी थी। एक क्षण को तो उसे अपने हृदय की गति ही बंद होती प्रतीत हुई। लेकिन, दूसरे ही क्षण वह जाग गया और वह अमावस की रात्रि उसके लिए पूर्णिमा की रात्रि बन गयी। आंखों में आ गए इस आलोक से आनंदित हो, वह नाचने लगा। एक अद्भुत सत्य का उसे दर्शन हो गया था। उस रात्रि फिर वे उसी वन में सो गये थे। लेकिन, अब वहां न तो अंधकार था, न ही भय था!
संपत्ति और संपत्ति में भेद है। वह संपत्ति जो बाह्य संग्रह से उपलब्ध होती है, वस्तुत: संपत्ति नहीं है, अच्छा हो कि उसे विपत्ति ही कहें! वास्तविक संपत्ति तो स्वयं को उघाड़ने से ही प्राप्त होती है। जिससे भय आवे, वह विपत्ति है- और जिससे अभय, उसे ही मैं संपत्ति कहता हूं।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

भीतर के प्रकाश को जानों!

सत्‍य के संबंध में विवाद सुनता हूं, तो आश्चर्य होता है। निश्चय ही जो विवाद में हैं, वे अज्ञान में होंगे। क्योंकि, ज्ञान तो निर्विवाद है। ज्ञान का कोई पक्ष नहीं है। सभी पक्ष अज्ञान के हैं। ज्ञान तो निष्पक्ष है। फिर, जो विवादग्रस्त विचारधाराओं और पक्षपातों में पड़ जाते हैं, वे स्वयं अपने ही हाथों सत्य के और स्वयं के बीच दीवारें खड़ी कर लेते हैं। मेरी सलाह है : विचारों को छोड़ों निर्विचार हो रहो। पक्षों को छोड़ो और निष्पक्ष हो जाओ। क्योंकि, इसी भांति वह प्रकाश उपलब्ध होता है, जो कि सत्य को उद्घाटित करता है।
एक अंधकार पूर्ण गृह में एक बिलकुल नए और अपरिचित जानवर को लाया गया। उसे देखने को बहुत से लोग उस अंधेरे में जा रहे थे। चूंकि घने अंधकार के कारण आंखों से देखना संभव न था, इसलिए प्रत्येक उसे हाथों से स्पर्श करके ही देख रहा था। एक व्यक्ति ने कहा- राजमहल के खंभों की भांति है, यह जानवर। दूसरे ने कहा- नहीं, एक बड़े पंखे की भांति हैं। तीसरे ने कुछ कहा और चौथे ने कुछ और। वहां जितने व्यक्ति थे, उतने ही मत भी हो गये। उनमें तीव्र विवाद और विरोध हो गया। सत्य तो एक था। लेकिन, मत अनेक थे। उस अंधकार में एक हाथी बंधा हुआ था। प्रत्येक ने उसके जिस अंग को स्पर्श किया, उसे ही वह सत्य मान रहा था। काश! उनमें से प्रत्येक के हाथ में एक-एक दिया रहा होता, तो न कोई विवाद पैदा होता, न कोई विरोध ही! उनकी कठिनाई क्या थी? प्रकाश का अभाव ही उनकी कठिनाई थी। वही कठिनाई हम सबकी भी है। जीवन सत्य को समाधि के प्रकाश में ही जाना जा सकता है। जो विचार से उसका स्पर्श करते हें, वे निर्विवाद सत्य को नहीं, मात्र विवादग्रस्त मतों को ही उपलब्ध हो पाते है।
सत्य को जानना है, तो सिद्धांतों को नहीं, प्रकाश को खोजना आवश्यक है। प्रश्न विचारों का नहीं, प्रकाश का ही है। और, प्रकाश प्रत्येक के भीतर है। जो व्यक्ति विचारों की आंधियों से स्वयं को मुक्त कर लेता है, वह उस चिन्मय-ज्योति को पा लेता है, जो कि सदा-सदा से उसके भीतर ही जल रही है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

ध्यान के लघु प्रयोग



'हां' का अनुसरण!
एक महीने के लिए सिर्फ 'हां' का अनुसरण करें, हां के मार्ग पर चलें। एक महीने के लिए 'नहीं' के रास्ते पर न जाएं।
'हां' को जितना संभव हो सके सहयोग दें। उससे आप अखंड होंगे। 'नहीं' कभी जोड़ती नहीं है। 'हां' जोड़ती है, क्योंकि 'हां' स्वीकार है। 'हां' श्रद्धा है, 'हां' प्रार्थना है। 'हां' कहने में समर्थ होना ही धार्मिक होना है।
दूसरी बात, 'नहीं' का दमन नहीं करना है। यदि आप दमन करेंगे, तो वह बदला लेगी। यदि आप उसे दबाएंगे तो वह और-और शक्तिशाली होती जाएगी और एक दिन उसका विस्फोट होगा और वह आपकी 'हां' को बहा ले जाएगी। तो 'नहीं' को कभी न दबाएं, सिर्फ उसकी उपेक्षा करें।
दमन और उपेक्षा में बड़ा फर्क है। आप भलीभांति जानते हैं कि 'नहीं' अपनी जगह है और आप उसे पहचानते भी हैं। आप कहते हैं, 'हां मैं जानता हूं कि तुम हो, लेकिन मैं हां के मार्ग पर चलूंगा।' आप उसका दमन नहीं करते, आप उससे लड़ते नहीं, आप उससे यह नहीं कहते कि चलो, भाग जाओ, में तुमसे कुछ वास्ता नहीं रखना चाहता। आप उस पर क्रोध नहीं करते। आप उससे भागना नहीं चाहते। आप उसे मन के अंधेरे अचेतन तहखाने में नहीं फेंक देना चाहते। नहीं, आप उसका कुछ भी नहीं करते। आप सिर्फ जानते हैं कि वह है, लेकिन आप 'हां' के मार्ग पर चलते हैं- नहीं के प्रति बिना किसी दुर्भाव के, बिना किसी शिकायत के, बिना किसी क्रोध के। बस 'हां' के मार्ग पर चलें, 'नहीं' के प्रति कोई भाव न रखें।
नहीं को मारने का सबसे अच्छा तरीका उसकी उपेक्षा करना है। यदि आप उससे लड़ने लगते हैं, तो आप पहले ही उसका शिकार बन गए, बहुत ही सूक्ष्म ढंग से उसके जाल में पड़ गए; 'नहीं' की पहले ही आप पर जीत हो गई। जब आप 'नहीं' से लड़ने लगते हैं, तो आप 'नहीं' को नहीं कह रहे हैं। इस तरह पिछले दरवाजे से उसने पुन: आप पर कब्जा जमा लिया।
तो 'नहीं' को भी नहीं न कहें- सिर्फ उसकी उपेक्षा करें। एक महीने के लिए 'हां' के मार्ग पर चलें और 'नहीं' से बिलकुल न लड़े। आप हैरान हो जाएंगे कि धरे-धीरे 'नहीं' कमजोर हो गई है, क्योंकि उसे कोई भोजन नहीं मिल रहा। और एक दिन अचानक आप पाएंगे कि वह है ही नहीं। और जब 'नहीं' विलीन हो जाती है, तो जितनी ऊर्जा उसमें लगी थी वह सब मुक्त हो जाती है। और वह मुक्त ऊर्जा आपकी 'हां' के प्रवाह को और प्रगाढ़ कर देगी।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

परम निधि की खोज!


आदर्श को चुनने में कभी कंजूसी मत करना। वह तो ऊंचे से ऊंचा होना चाहिए। वस्तुत: तो परमात्मा से नीचे जो है, वह आदर्श ही नहीं है। आदर्श उसकी भविष्यवाणी है, जो कि अंतत: तुम करके दिखा दोगे। वह तुम्हारे स्वरूप की परम अभिव्यक्ति की घोषणा है।
सुबह से सांझ तक बहुत लोग मेरे पास आते हैं। उनसे मैं पूछता हूं कि तुम्हारे प्राण कहां हैं? एकाएक वे समझ नहीं पाते। फिर, मैं उनसे कहता हूं कि प्रत्येक प्राण उसके जीवन दर्शन में होते हैं वह जो होना चाहता है, जो पाना चाहता है, उसमें ही उसके प्राण होते हैं। और जो कुछ भी नहीं होना चाहता है, कुछ भी नहीं पाना चाहता है, वही निष्प्राण है। यह हमारे हाथों में है कि हम अपने प्राण कहां रखें। जो जितनी ऊंचाइयों या निचाइयों पर उन्हें रखता है, उतनी ही ऊ‌र्ध्वगामी या अधोगामी उसकी जीवनधारा हो जाती है और श्वास-प्रश्वास में स्मृति उसी ओर दौड़ती रहती है। और, स्मृति जिस दिशा में दौड़ती है, क्रमश: विचार उसी पथ पर बीजारोपित होने लगते हैं। विचार आचार के बीज हैं। आज जो विचार हैं, कल वे ही अनुकूल अवसर पाकर अंकुरित हो, आचार बन जाते हैं। इसलिए जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- अपने प्राणों को रखने के लिए सम्यक स्थल चुनना। जो इस चुनाव के बिना चलते हैं, वे उन नावों की भांति हैं, जो सागर में छोड़ दी गई हैं, लेकिन जिन्हें गंतव्य को कोई बोध नहीं। ऐसी नावें निकलने के पहले ही डूबी समझनी चाहिए। जो अविवेक और प्रमाद में बहते रहते हैं, उनके प्राण उनकी दैहिक वासनाओं में ही केंद्रित हो जाते हैं। ऐसे मनुष्य, शरीर के ऊपर और किसी सत्य से परिचित नहीं हो पाते। वे उस परम निधि से वंचित रह जाते हैं, जोकि उनके भीतर छिपी हुई थी।
अविवेक और प्रमाद से जागकर आंखें खोलो और उन हिमाच्छादित जीवन शिखरों को देखो, जो कि सूर्य के प्रकाश में चमक रहे हैं और तुम्हें अपनी ओर बुला रहे हैं। यदि तुम अपने हृदय में उन तक पहुंचने की आकांक्षा को जन्म दे सको, तो वे जरा भी दूर नहीं हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)